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Why Craze for Getting Foreign Degrees?

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1.विदेशी डिग्रियां प्राप्त करने के लिए दीवानगी क्यों है? (Why Craze for Getting Foreign Degrees?),विदेशी डिग्रियों के प्रति आकर्षण क्यों हैं? (Why Are Attraction Towards Foreign Degrees?):

  • विदेशी डिग्रियां प्राप्त करने के लिए दीवानगी क्यों है? (Why Craze for Getting Foreign Degrees?) क्यों आधुनिक युवक-युवतियां,लोग तथा छात्र-छात्राएं विदेशी डिग्रियां हासिल करना चाहते हैं याकि हासिल करते हैं।क्यों विदेशी डिग्रियों के प्रति इतना आकर्षण और मोहग्रस्त हैं? इसका कारण विदेशी विश्वविद्यालयों,महाविद्यालयों,विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना तो नहीं हो सकता है क्योंकि सभी विदेशी शिक्षा संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहीं कराते हैं।
  • इसका कारण एक तो यह है कि छात्र-छात्राओं तथा लोगों को अपना भविष्य विदेशी डिग्रियों में ही नजर आता है।अन्य कारणों के बारे में तथा विदेशी डिग्रियों के जाल में छात्र-छात्राएं क्यों फँसते हैं इसके बारे में इस लेख में चर्चा की जाएगी।
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2.देश तथा विदेश में डिग्री लेने का नजरिया (Approach to Taking Degrees at Home and Abroad):

  • घर का जोगी जोगड़ा,आन गांव का सिद्ध।भारत के लोग स्वदेशी वस्तुओं का न तो भरोसा करते हैं और न ही आदर,किंतु विदेशी आकर्षणों को आंख मूंदकर और मुंहमांगी कीमत चुकाकर भी प्राप्त करने में नहीं हिचकिचाते।हमारी यह कमजोरी मध्यकाल से आज तक विदेशों में भी उपहास का विषय बनी हुई है।वेशभूषा,भाषा-साहित्य,व्यवसाय,शिक्षा सभी क्षेत्रों में विदेशी वस्तुओं के प्रति भारतीयों की अंधी ललक को विषय बनाकर इंग्लैंड,अमेरिका और फ्रांस के लोगों ने तो फब्तियां और लतीफे गढ़ डाले हैं उनमें से एक इस प्रकार है:
  • भारत के धनाढ्य व्यक्ति पेरिस (फ्रांस) गए।उनके घुड़सवारी का शौक था।अतः वे अपने घोड़े को भी साथ ले गए थे।पेरिस की गलियों से गुजरते हुए उन्होंने एक संकेत पट्ट (साइन बोर्ड) देखा,जिस पर लिखा था, “डी फिल पेरिस अवेलेबुल फार 50000 फ्रैंक्स” यानी यहां पेरिस की डी फिल उपाधि (डिग्री) 60000 फ्रैंको (फ्रांस की मुद्रा) में सुलभ है।अमीर व्यवसायी फौरन घोड़े से उतरे,60000 फ्रैंक चुकाये और अपने नाम से लिखा-पढ़ी कराकर डिग्री ले ली।डिग्री लेकर आगे बढ़े तो अचानक उनके दिमाग में एक ख्याल खटका,” क्यों न एक डिग्री अपने घोड़े के लिए भी ले लूं? आखिर यह अमीर व्यवसायी का घोड़ा है और अपने अमीर व्यवसायी के साथ यहां तक आया है।” अमीर व्यवसायी पीछे लौटकर फिर उस साइनबोर्ड वाले कार्यालय में गए।
  • उन्होंने 60000 फ्रैंक खिड़की पर रखी और बाबू से कहा कि एक डिग्री उनके घोड़े के लिए भी बना दी जाए।बाबू ने विनम्रता के साथ निवेदन किया कि ऐसा संभव नहीं है।”क्यों” अमीर व्यवसायी रोब के साथ बोले,”साइनबोर्ड तो यही बताता है कि साठ हजार फ्रैंक चुकाकर डिग्री किसी के नाम से भी बनवायी और ली जा सकती है।” बाबू ने पहले जैसी मीठी आवाज में कहा,”हमारे विश्वविद्यालय के अध्यादेश के अनुसार यह डिग्री केवल गदहे को दी जाती है घोड़े को नहीं।”
  • इस पुराने अभी तक प्रचलित लतीफे के आगे यह बताने की जरूरत नहीं है कि विदेशी डिग्रियों पर फिदा हिंदुस्तानियों को विदेशों में क्या समझा जाता है।किंतु विदेशी डिग्रियों के प्रति भारतीयों की ललक आज भी कम नहीं हुई है।बल्कि बढ़ती ही जा रही है।वे अमर्त्य सेन जैसे विद्वान तैयार करने में तनिक भी रुचि नहीं लेते लेकिन विदेशी विश्वविद्यालय की सनदे हासिल करने के लिए सनक की सीमा तक लांघ जाते हैं।स्वतंत्रता के बाद विदेशी डिग्रियां किसी भी कीमत पर प्राप्त करने की ललक वाले रईसों की बाढ़-सी आ गई है।नतीजतन,ऊपर के लतीफे में चर्चित पेरिस की दुकान के विपरीत आज बहुतेरे विदेशी विश्वविद्यालय भारतीय ग्राहकों को सनदे बेचकर मालामाल हो रहे हैं।वे यह भी परवाह नहीं करते कि डिग्री लेने वाला कौन है,डिग्री की पात्रता उसमें है भी या नहीं।जो कोई डालरों (अमेरिकी मुद्रा) में शुल्क जमा कर सकता है वह बेरोकटोक डिग्री पा सकता है।इसलिए आज की शिक्षा प्रणाली में विदेशी डिग्री उद्योग सबसे अधिक लाभ का उद्योग बन गया।अधिकांशत ऐसी डिग्रियां किसी काम की नहीं होती।वे जिस देश की होती हैं वहाँ भी उनको मान्यता प्राप्त नहीं होती तथापि आंख के अंधे और गांठ के पूरे भारतीय शौकीनों की बदौलत यह व्यापार खूब चल रहा है।

3.छात्रों का शोषण (Exploitation of Students):

  • यह सनक हिंदुस्तानी जेहन में कैसे जमी,बेशक यह औपनिवेशिक मानसिकता को बढ़ावा देने वाली अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की देन है।यह प्रणाली है जिसने भारत में शिक्षा को एक ऐसे वाणिज्यिक उद्यम में तब्दील कर दिया है जो मोटा मुनाफा कमा रहा है।भारत की अनेकानेक संस्थाएं आज ज्ञान और शिक्षा प्रदान करने के बजाय अत्यल्प लागतें वाले इस शैक्षणिक बाजार में विदेशी एवं देशी डिग्रियाँ बेच रही हैं।कोई यह सवाल उठाने की भी हिम्मत नहीं करता कि डिग्री देने वाले विश्वविद्यालय अपने ही देश में मान्यता पाये हुए हैं या नहीं अथवा उन्हें भारतीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और भारतीय विश्वविद्यालय संघ (एफआईयू), ने मान्यता दी है या नहीं,बिक्री धड़ल्ले से चल रही है।हर रोज अग्रणी समाचार पत्रों और विभिन्न वेबसाइट्स में आकर्षक विज्ञापन प्रकाशित कर छात्रों को लुभाया जा रहा है।विज्ञापनों में नारे दिए जा रहे हैं।भारत में रहिए विदेश में अध्ययन कीजिए,दो साल भारत में,एक वर्ष विदेश में,आइए विदेश में अध्ययन कीजिए,तथाकथित विदेशी विश्वविद्यालय के ये नारे अधिकतर छात्रों पर जादू का असर करते हैं।यह हकीकत विदेशी विश्वविद्यालयों की ही नहीं है भारत में भी अधिकांश विश्वविद्यालय खुले तौर पर डिग्रियां बेचने का धंधा कर रहे हैं और मोटी रकम कमा रहे हैं।तालीम की तिजारत के लिए तमाम नैतिकताओं को ताक पर रख चुके इन विदेशी विश्वविद्यालयों ने व्यापक पैमाने पर भारत स्थित निजी शिक्षापणों (शिक्षा की दुकानों) में अपनी शाखाएं खोल रखी है जिनका उद्देश्य ज्ञान या शिक्षा देना नहीं वरन केवल धन कमाना है।बदकिस्मती तो यह है कि इस तरह की अधिकांश शिक्षा की दुकानें सरकारी निकाय एआईसीटीई की स्वीकृति प्राप्त कर चुकी है।
  • कुछेक विदेशी विश्वविद्यालय तो सीधे विज्ञापन प्रकाशित कराकर पाँच सितारा होटलों में शिक्षण सत्र आयोजित कर और पाठ्यक्रमों की मार्केटिंग करने वाले प्रतिनिधियों तथा सलाहकारों की नियुक्ति कर अधिकाधिक धन कमा रहे हैं।कुल मिलाकर यह ऐसा धंधा तो है ही जिसमें लगायी गई पूंजी थोड़े समय में कई गुने लाभ के साथ वापस मिलती रहती है।बहरहाल,धंधा करने वाले कुछेक बुनियादी सवालों के जवाब नहीं दे पाते,मसलन यदि कोई छात्र यह विदेशी डिग्री यहां हासिल कर लेता है तो क्या विदेशों में या उसी देश में जहां का विश्वविद्यालय यह डिग्री बेच रहा है उच्चतर शिक्षा के लिए यह (डिग्री) मान्य होगी?
  • जवाब न मिलने के माने क्या है,यह हर कोई जानता है,तथापि छात्रों के साथ यह धोखाधड़ी धड़ल्ले से जारी है।अब इस घोटाले को लेकर लगता है कि सरकार की आंखें नहीं खुली हैं।इसी कारण विदेशी विश्वविद्यालयों की तर्ज पर देश में भी ऐसे बहुत से विश्वविद्यालयों ने अपनी दुकान खोल ली और डिग्रियां धड़ल्ले से बेच रहे हैं।छात्रों को बेवकूफ बनाकर लूटने वाली निजी शिक्षण संस्थानों के भ्रामक और अवैध विज्ञापनों पर रोक तो लग गई है परंतु अब भाषा को घुमा फिराकर बदसूरत यह व्यवसाय फल-फूल रहा है और लगातार जारी है।मौखिक तौर पर,भाषा को घुमा फिराकर समाचार पत्रों और वेबसाइट पर,पंपलेट्स के जरिए यह शिक्षण संस्थाएं (देशी-विदेशी) भोले-भाले छात्रों का शोषण कर रही है।
  • शंका-संदेह से अछूते मासूम छात्रों को लूटने-खसोटने का यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है।यह तभी शुरू हो गया जब तथाकथित उदारीकरण की नीति सरकार ने अपनायी।देश में उच्चतर शिक्षा विभाग के सूत्रधार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इस मुद्दे पर अरसे से मौन साधे बैठे हुए हैं।इस प्रकरण के कई मुद्दे तो अभी तक अधर में लटके हुए हैं।उनका निबटना भी आसान नहीं है।इनके चलते उन विदेशी एवं देशी संस्थानों और विश्वविद्यालयों द्वारा जो भारत के विशाल शैक्षणिक बाजार में अपनी व्यापक उपस्थित कायम कर चुके हैं,निरीह छात्रों के शोषण पर कोई अंकुश नहीं लग पाया है।

4.इच्छाशक्ति का अभाव (Lack of Willpower):

  • “अगर बेशर्मी के साथ हकीकत बयान की जाए तो हाल यह है कि अंकुश लगाने की इच्छा ही नहीं बना पा रहे हैं हम।शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारी तक यह स्वीकार करते हैं कि,”पूरे देश में तेजी से फैलते जा रहे इस शैक्षणिक शोषण में,सरकारी साहबान का भी साझा या सहयोग हो सकता है,इस संदेह की पड़ताल होनी चाहिए,वरना इस कुचक्र को रोकने का मन बना ही नहीं पाएंगे हम।” इस संदेह को बल इसलिए भी मिलता है कि पहले तो इस गोरखधंधे में विदेशी विश्वविद्यालय ही शामिल थे परंतु अब भारत में इस तरह के भारतीय विश्वविद्यालयों की पौध बढ़ती जा रही है जो खुले तौर पर डिग्रियां बेच रहे हैं और इन विश्वविद्यालय को यूजीसी की स्वीकृति मिली हुई है।इन्हीं डिग्रियों के बलबूते पर छात्र-छात्राएं सरकारी व गैर सरकारी नौकरियां प्राप्त कर रहे हैं और पेपरलीक माफिया खड़ा हो गया है।
  • बताया तो यहां तक जाता है कि,हमारे अनेक उच्चाधिकारी भी विदेशी डिग्रियों के खास शौकीन हैं।75 साल से लंबा अरसा गुजर गया देश को आजाद हुए,पर उपनिवेशकालीन रईसी जस-की-तस बनी हुई है।हमारे-शिक्षा क्षेत्र में,खासकर इस क्षेत्र के हुक्मरान और संचालक वर्ग में आज भी विदेशी डिग्रियां रुतबे की चीज बनी हुई है।उधर पश्चिम के देश जो बुद्धू हिंदुस्तानियों की बेवकूफियां भुनाते रहे हैं,हमारे शैक्षणिक बाजार में आ जमें हैं।अपनी डिग्रियों का मायाजाल लिए कुछेक मामले तो ऐसे भी मिले हैं जिनमें हमारे विदेशी डिग्री प्रेम की कृपा से विदेशी मृत प्राय संस्थाएं पुनर्जीवित हो गई हैं।पश्चिम में पैसा कमाने के लिए खुली अनेकानेक बहुधंधी प्रविधि प्रशिक्षण (पॉलिटेक्निक) संस्थाएं हाल के वर्षों में धंधे और आमद के अभाव में गंभीर रूप से रुग्ण हो गई थीं।वहीं संस्थाएं अब दूसरे देशों की शिक्षा बाजार में आकर खास धंधा करने लगी हैं।ऐसी संस्थाएं एक ओर सफेदपोश लोगों की औपनिवेशिक रुचियों को तुष्ट और पुष्ट करती हैं तो दूसरी ओर नई पीढ़ी में भी ऐसी रुचियां पैदा करती हैं।

5.कार्यवाही की विडम्बना (The Irony of the Proceedings):

  • बेशक,यह घटिया ही नहीं वरन दण्डनीय धंधा है।पर धंधे का आधार हमारी रुचि है।जब तक आधार बरकरार रहेगा,धंधा सलामत रहेगा।लिहाजा,अगर सचमुच इस धंधे को ध्वस्त करना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें अपनी रुचि,अपनी मानसिकता दुरुस्त करनी होगी।तीसरी दुनिया की शिक्षण प्रणाली पर सुनियोजित साम्राज्यवादी कुचक्र का कितना बुरा असर पड़ रहा है,इस तथ्य को कशिश के साथ समझना होगा।उसके खिलाफ जनजागरण का अभियान चलाना होगा और साथ ही सख्त सुनियोजित कार्यवाही करनी होगी।किंतु यह सब करेगा कौन? यहाँ तो कोई इन डिग्रियों से संबंधित पाठ्यक्रमों पर भी नजर नहीं डालता।इनमें संयुक्त राज्य,इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के मामलात से संबंधित स्थिति अध्ययन (केस स्टडीज) होता है।कोई ना तो यह देखता है कि उनमें डॉलर और पाउंड की गणना से संबंधित सवाल हल करने के तरीके क्यों बताए गए हैं,न ही भारतीय परिप्रेक्ष्य में इन पाठ्यक्रमों के उपयोग की प्रासंगिकता पर ही कोई ध्यान देता है।धंधा चल रहा है।बहुराष्ट्रीय संस्थाएं लूट रही है।काम करने के लिए सफेदपोश श्रम बल और झंडा लेकर चलने के नई पीढ़ी दोनों सुलभ हैं यहां।बहुराष्ट्रीय उस्तादों को और चाहिए क्या?
  • एक सरकारी विश्वविद्यालय के अधिकारी के पास एक हिंदुस्तानी हज़रत आए।वे एक ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय के परामर्श अधिकारी थे।निश्चित ही मोटी पगार पाने वाले थे।उन्होंने अपने विश्वविद्यालय और सरकारी विश्वविद्यालय की साझेदारी में सभी पुलिस अधिकारियों के लिए एक ऐसा पाठ्यक्रम चलाने का प्रस्ताव किया जिसे ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय ने तैयार किया था।
  • उस शख्स ने आमदनी को दोनों संस्थाओं में बांटने और सरकारी अधिकारी को कमीशन देने की भी पेशकश की।सरकारी अधिकारी (ईमानदार थे) सोचते रहे-भारतीय पुलिस व्यवस्था की समस्याएँ ऑस्ट्रेलिया की स्थिति से एकदम भिन्न है,फिर भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह पाठ्यक्रम कैसे उपयोगी हो सकता है? लेकिन एक माह बाद ही सरकारी अधिकारी हैरान था यह देखकर की गृह मंत्रालय के एक अधिकारी महोदय ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय के उस प्रस्ताव पर मंत्रणा के लिए सरकारी विश्वविद्यालय में जा धमके।यह और बात है कि उस पेशकश को खारिज कर दिया।हालांकि यह दृष्टांत वर्षों पुराना है,परंतु सरकारी नौकरशाही की मानसिकता में अभी भी कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हो गया है।दबे-छिपे वे इस तरह के कार्य में संलग्न रहते ही हैं।
  • साथ ही इस प्रकरण से यह सच तो सामने आ ही जाता है कि इस शिक्षेतर क्षेत्र में भी विदेशी शिक्षण संस्थाएं,अधिकारियों को विदेशों में शिक्षित-प्रशिक्षित करने का सिलसिला जारी रखने के नाम पर,भारत सरकार को भरपूर चूना लगाने का प्रयास कर रही हैं।और हम हैं कि इस प्रवंचना से सर्तक होने के विपरीत इस विदेशी प्रयास में सहयोग भी कर रहे हैं और शिकार भी बन रहे हैं।शायद ही कोई अर्थशास्त्री या वित्त मंत्रालय का कारिंदा हो जो यह आकलन करता हो कि तथाकथित विदेश-शिक्षा की इस धारा में देश की कितनी विदेशी मुद्रा बही चली जा रही है।निश्चित ही हिसाब लगाने पर जो राशि सामने आएगी वह दिलो दिमाग को दहला देने वाली होगी।लेकिन व्यवस्था की विडम्बना यह है कि केवल विदेशी मुद्रा की अर्जित राशि ही मीडिया के जरिए प्रचारित की जाती है।उसमें से कितनी बड़ी राशि लीक कर (चू) जाती है,या ऊपर ऊपर बह जाती है,इस पर चुप्पी साध ली जाती है।इस विडम्बना का अंत अब होना चाहिए।यही उपयुक्त समय है कि भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली को सबलता और साख प्रदान करने के कदम उठाए जाएं।लेकिन सरकारी मशीनरी की सुस्ती को क्या कहा जाए? मद्रास उच्च न्यायालय ने भारत में विदेशी विश्वविद्यालय के प्रवेश और कार्यकलाप पर बहुत ही सूझबूझ के साथ कुछ व्यवस्थाएं दी।शिक्षा मंत्रालय (सरकार) द्वारा कानून भी बना दिया गया है।लेकिन कानून के बावजूद यह गोरखधंधा लगातार जारी है और विदेशी के साथ-साथ देशी विश्वविद्यालयों की पौध भी इस लूट-खसोट में शामिल होती जा रही हैं।

6.डिग्रियाँ देने का निष्कर्ष (Conclusion of Awarding Degrees):

  • नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर्ता चंद्रशेखर वेंकट रामन इसी देश में पढ़े लिखे और इसी देश के लिए भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में कार्य किया।डॉ. रामन का सारा अध्ययन और सारा अनुसंधान कार्य अपने देश में संपन्न हुआ।उनका पक्का विश्वास था कि इस देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है।वह चाहते थे कि हमारा देश वैज्ञानिक खोजों के मामले में अपने पैरों पर खड़ा हो और हमें विदेशों का मुँह न ताकना पड़े।
  • पिछली शताब्दी में हमारे देश में बौद्धिक जागरण के नए युग का आरंभ हुआ।सदियों से भारतीय ज्ञान-विज्ञान मुर्दा सोया हुआ था।अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से जब हमारे भारतीय विद्यार्थियों को पश्चिम के बड़े-चढ़े विज्ञान का परिचय मिला तो उसे देखकर उनकी हिम्मत पस्त नहीं हुई।पश्चिम के विज्ञान से परिचित होते ही,पहले दौर में ही,हमारे देश में प्रफुल्ल चंद्र राय,जगदीश चंद्र बसु और रामन जैसे चोटी के वैज्ञानिक पैदा किए।
  • आजकल देखा जाता है कि हमारे तरुण प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को विदेश जाकर पढ़ाई करने का शौक चर्रा गया है।कुछ वैज्ञानिक इस ख्याल से बाहर चले जाते हैं कि बाहर पढ़ाई का बेहतर इंतजाम रहता है।कई वैज्ञानिक बाहर जाकर बाहर के ही हो जाते हैं।डॉक्टर रामन इन बातों के कट्टर विरोधी थे।उन्होंने अपना सारा अध्ययन अपने देश में ही किया और उनका सारा अनुसंधान कार्य इसी देश में हुआ।
  • हालांकि युवाओं का प्रतिभा पलायन आज उतनी गंभीर समस्या नहीं है।परंतु युवा प्रतिभाओं में राष्ट्रीय व सामाजिक सरोकार,राष्ट्रभक्ति,उत्तम चरित्र,मानवीय गुणों की कमी से तो देश जूझ ही रहा है।
  • इस उत्साह की कमी का कारण सरकारी नीतियाँ और राजनीतिक दल हैं,जो जात-पांत की विभाजनकारी रेखाएं खींचकर देश और समाज को बांटने का काम कर रहे हैं,परंतु युवाओं को यह भी सोचना होगा कि आने-जाने वाली सरकारें या फिर अपनी ही टूटन से परेशान राजनीतिक दल इस देश और धरती का पर्याय नहीं है।भारत माता हम सबकी माता है।उस पर किसी राजनीति दल विशेष का एकाधिकार नहीं है।राष्ट्रीय गौरव के लिए,सामाजिक समरसता के लिए युवाओं को अपनी मानसिकता बदलनी होगी।
  • यदि विदेशी विश्वविद्यालय में युवक-युवतियां पढ़ते भी हैं तो अंधे होकर हर किसी विदेशी विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल नहीं करनी चाहिए।शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें इस बात का एहसास होना चाहिए की तरक्की के अवसर यहां भी हैं साथ ही उन्हें यह सोचना चाहिए कि उन्होंने इस देश से लिया काफी है,अब उनके द्वारा अपने देश की माटी का कर्ज चुकाने का समय है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में विदेशी डिग्रियां प्राप्त करने के लिए दीवानगी क्यों है? (Why Craze for Getting Foreign Degrees?),विदेशी डिग्रियों के प्रति आकर्षण क्यों हैं? (Why Are Attraction Towards Foreign Degrees?) के बारे में बताया गया है।

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7.गणितज्ञ दुकान के भरोसे (हास्य-व्यंग्य) (Mathematician Rely on Shop) (Humour-Satire):

  • एक जाने-माने प्रसिद्ध गणितज्ञ ने किराने की दुकान खोली ली है।कह रहे हैं फ्री कोचिंग अनलिमिटेड दिया है तो राशन भी फ्री देंगे।लेकिन इस बार लाइन नहीं है।फ्री कोचिंग के लिए तो लाइनें लग सकती है क्योंकि कोचिंग में सेक्सी परियों से मुलाकात हो जाती है जिसके बिना गुजारा संभव नहीं परंतु राशन के बिना गुजारा चल सकता है।दुकान के साइन बोर्ड पर उन्होंने किसी अनजान से विदेशी नेता की तस्वीर लगा दी है।जाने-पहचाने और देशी नेताओं की तस्वीर इस्तेमाल करने के अपने खतरे हैं।ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रसिद्ध गणितज्ञ ने किराना की दुकान खोली और आम-आदमी की जरूरत समझी है।

8.विदेशी डिग्रियां प्राप्त करने के लिए दीवानगी क्यों है? (Frequently Asked Questions Related to Why Craze for Getting Foreign Degrees?),विदेशी डिग्रियों के प्रति आकर्षण क्यों हैं? (Why Are Attraction Towards Foreign Degrees?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.क्या भारतीय विश्वविद्यालय डिग्रियां नहीं बेच रहे हैं? (Are Indian Universities Not Selling Degrees?):

उत्तर:विदेशी विश्वविद्यालयों की तर्ज पर भारत में भी ऐसे विश्वविद्यालय की बाढ़ आ गई है जो छात्र-छात्राओं को डिग्रियां बेच रहे हैं।इस लेख में फुटकर रूप से इशारा किया भी है परंतु मुख्य विषय विदेशी डिग्रियों का ही था, इसलिए विदेशी डिग्रियों की सच्चाई कोई उजागर किया गया है।वैसे लुटेरा देशी हो या विदेशी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।नुकसान दोनों ही समान रूप से पहुंचाते हैं।

प्रश्न:2.कुछ राष्ट्रीय भावना से प्रेरित छात्रों का उदाहरण दें। (Give Some Examples of Students Inspired by the National Spirit):

उत्तर:प्रभजीत सिंह,निखिल वासवानी,विनीत लाड़िया और श्रद्धा वैद्य छात्रकाल में विदेशी ऑफर ठुकराने वाले हैं जिन्हें यकीन था कि भारत की ताजा तरक्की किसी बुलबुले की तरह अस्थायी नहीं है।इनकी यही धारणा है कि भारत तरक्की की इस लंबी दौड़ में अमेरिका और यूरोप तक को परेशानी में डाल देगा।हो सकता है कि इस वक्त हमें विदेश में बेहतर पैकेज मिले,लेकिन शीघ्र ही दुनिया के लोगों को बेहतर रोजगार की तलाश में भारत की ओर कूच करते देखेंगे।

प्रश्न:3.कौनसे विदेशी विश्वविद्यालय युवा विद्यार्थियों को लुभा रहे हैं? (Which Foreign Universities Are Attracting Young Students?):

उत्तर:अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड,जर्मनी,कनाडा एवं आयरलैंड हैं।यहां तक कि गैर अंग्रेजी भाषी देश भी जो अंग्रेजी में कोर्स चलाते हैं वे भी भारतीय छात्रों को लुभाते हैं:जैसे स्विट्जरलैंड,फ्रांस,हालैंड,जापान,चीन,रूस,पूर्वी यूरोप के देश,स्वीडन,कोरिया,साइप्रस,दक्षिण अफ्रीका और मलेशिया आदि।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा विदेशी डिग्रियां प्राप्त करने के लिए दीवानगी क्यों है? (Why Craze for Getting Foreign Degrees?),विदेशी डिग्रियों के प्रति आकर्षण क्यों हैं? (Why Are Attraction Towards Foreign Degrees?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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