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Undisturbed Equilibrium of Mind

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1.स्थितप्रज्ञ (Undisturbed Equilibrium of Mind),श्रीमद्भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ (Gifted with Unshakable Mental Equilibrium in Srimad Bhagavad Gita):

  • स्थितप्रज्ञ (Undisturbed Equilibrium of Mind) से तात्पर्य है कि जिसकी बुद्धि सदा स्थिर रहती है।जिसकी आत्मा शुद्ध,पवित्र होती है;जो राग,द्वेष से मुक्त रहकर इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ भी इनमें लिप्त और आसक्त नहीं रहता है।जो सुख-दुःख में समभाव रखता है।इन्द्रियों द्वारा पदार्थों का भोग तो कर लिया जाए परंतु मन से उन विषयों का चिंतन नहीं करता है।जो विवेकपूर्वक मन और इन्द्रियों को वश में करता है।विषयों के चिंतन न करने से बुद्धि स्थिर और निर्मल बनी रहती है।मन में सभी कामनाओं और वासनाओं को त्याग देता है।किसी वस्तु के प्रति मोह नहीं रखता है।वह अच्छा होने पर प्रसन्न और बुरा होने पर अप्रसन्न नहीं होता है।सभी कर्म कर्त्तव्य समझकर करता है और जो भी परिणाम हो उसमें आसक्ति नहीं रखता है अर्थात् परिणाम को सहज भाव से स्वीकार करता है वह स्थितप्रज्ञ व्यक्ति होता है।
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2.गीता में स्थितप्रज्ञ व्यक्ति (A Wise Person in the Gita):

  • जिस प्रकार भगवान का आदर्श पुरुषोत्तम है उसी प्रकार गीता में बतलाया गया है।स्थितप्रज्ञ मानव जीवन के लिए सर्वोच्च अवस्था है तथा सर्वोच्च मूल्य है।स्थितप्रज्ञ गीता का अपना शब्द है तथा स्थितप्रज्ञ की धारणा गीता की अपनी देन है।गीता से पहले उपनिषद या वैदिक ग्रंथों में यह शब्द नहीं मिलता।इसी प्रकार स्थितप्रज्ञ की धारणा भी बिल्कुल नयी है जो गीता के पहले किसी धार्मिक साहित्य में प्राप्त नहीं होती।अतः स्थितप्रज्ञ शब्द और इसका भाव दोनों गीता की विशेषता है।
  • स्थितप्रज्ञ का अर्थ है जिसकी प्रज्ञा या बुद्धि स्थिर हो जाती है।अतः स्थितप्रज्ञ का अर्थ समाधिस्थ हुआ।तात्पर्य यह है कि समाधि में जो स्थिर हो,वही स्थितप्रज्ञ है।इससे स्पष्ट है कि स्थितप्रज्ञ और समाधिस्थ दोनों एक ही है।
  • परंतु गीता में दोनों में भेद माना गया है।कुछ लोग स्थिर-बुद्धि (स्थितधीः) को स्थितप्रज्ञ कहते हैं अर्थात् जिसकी बुद्धि स्थिर हो गई वही स्थितप्रज्ञ है।परन्तु गीता में स्थिर-बुद्धि और स्थितप्रज्ञ में भेद किया गया है।अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं,समाधिस्थ के क्या लक्षण हैं,स्थिर-बुद्धि के क्या लक्षण हैं,वह कैसे रहता है,कैसे चलता है इत्यादि।इससे स्पष्ट है कि अर्जुन स्थितप्रज्ञ,समाधिस्थ और स्थिर-बुद्धि में भेद जानना चाहता हैं।स्थितप्रज्ञ जागृत अवस्था की समाधि है।इस अवस्था में परमात्मा के साथ अखंड संबंध स्थापित हो जाता है।सभी कार्यों को करते हुए भी अकर्त्तापन का अनुभव होता है।इस अवस्था में काम,क्रोध आदि के बीज जल जाते हैं।अतः यह जाग्रतकालीन समाधि है।
  • यह ध्यानजन्य समाधि से भिन्न है।ध्यानजन्य समाधि में एक स्थान पर बैठकर आंखें बंद कर परमात्मा का एकाग्रतापूर्वक ध्यान किया जाता है।इस अवस्था में देह और इंद्रियों का ध्यान रहता है।इस अवस्था को लयावस्था भी कहते हैं।निद्रा भी एक लय ही है।निद्रा अवस्था में जो लय होता है उसे सबीज लय कहते हैं,क्योंकि इस अवस्था में अज्ञान का बीज रहता है।समाधि में भी अज्ञान नष्ट नहीं होता क्योंकि समाधि भी एक लय है।समाधि प्राप्त करने के बाद भी काम,क्रोध आदि के बीज बने रहते हैं।भेद यह है कि स्थितप्रज्ञ की समाधि एक ‘स्थिति’ है,लय नहीं।लय मन की वृत्ति है जिसमें सदा परिवर्तन होता रहता है।स्थिति रहने वाली अवस्था है।इस प्रकार स्थितप्रज्ञ स्थिर रहने वाली अवस्था है।यह जागृत अवस्था में ही भगवान में समाधि है जो आंखें बंद कर ध्यानजन्य समाधि से भिन्न है।
  • इसी प्रकार स्थितप्रज्ञ और स्थिर-बुद्धि में भी भेद है।बुद्धि का अर्थ ज्ञान या प्रकाश है।ज्ञान में अज्ञान भी रहता है जैसे अग्नि में धुँआ भी रहता है।जब ज्ञान अज्ञान से रहित हो शुद्ध हो जाता है अर्थात् बुद्धि विकारहीन हो जाती है तो बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं।ऐसी शुद्ध बुद्धि या प्रज्ञा से ही मनुष्य परमात्मा में स्थिर रह सकता है।साधारण स्थिर बुद्धि में अस्थिरता भी आ सकती है,परंतु परमात्मा में प्रज्ञा लग गई है,उसमें अस्थिरता नहीं आ सकती।इस प्रकार स्थितप्रज्ञ जागृत अवस्था में ही परमात्मा में स्थिर-बुद्धि की अवस्था है।इस अवस्था में सभी कार्य परमात्मा की भक्ति में किए जाते हैं।

3.स्थितप्रज्ञ के लक्षण (Symptoms of Undisturbed Equilibrium of Mind):

  • (1.)स्थितप्रज्ञ सभी कामनाओं और वासनाओं का त्याग कर देता है।कामना और वासना के दो वर्ग हैं: शुद्ध और अशुद्ध।इन दो वर्गों के तीन प्रकार हैं:सत्व,रज और तम।सत्व की गणना शुद्ध वर्ग में होती है,रज और तम की अशुद्ध वर्ग में।रजोगुणी और तमोगुणी वासनाओं को छोड़ने के लिए सात्विक वासनाओं को अपनाना चाहिए।पुनः सात्विक वासना का भी धीरे-धीरे त्याग करना चाहिए।स्थितप्रज्ञ दोनों प्रकार की कामनाओं और वासनाओं का त्याग करता है।
  • (2.)स्थितप्रज्ञ परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है।सात्विक इच्छाओं का त्याग तब तक नहीं हो सकता जब तक भगवान में भक्ति न हो।भगवान में सच्ची भक्ति के उत्पन्न होने पर मनुष्य भगवान में ही डूब जाता है,भगवान के चरणों में अपने को अर्पित कर देता है।ऐसे मनुष्य के हृदय में इच्छाएँ बिल्कुल समाप्त हो जाती हैं।अतः सभी कामनाओं का त्याग करने के लिए भगवान के चरणों में भक्ति आवश्यक है।परमात्मा की भक्ति में स्थितप्रज्ञ अपने आपमें सन्तुष्ट रहता है।
  • (3.)स्थितप्रज्ञ दुःख से व्याकुल नहीं होता और सुख के लिए मन में लालसा नहीं रखता।तात्पर्य यह है कि परमात्म-सुख का अनुभव करने के कारण स्थितप्रज्ञ बाह्य सुख-दुःख के प्रति तटस्थ बना रहता है।दुःख की परिस्थिति आने पर भी दुःख से व्याकुल नहीं होता तथा सुख की परिस्थिति आने पर वह ‘सुख सर्वदा बना रहे’ ऐसी लालसा मन में नहीं लाता।वह सुख-दुःख में समान बना रहता है।यही सम स्थिति है।
  • (4.)स्थितप्रज्ञ के मन में काम,भय,क्रोध आदि नहीं रहते।राग,भय,क्रोध तीनों इच्छा के परिणाम है।इच्छा या कामना शुभ और अशुभ दोनों हो सकती है।शुभ या अशुभ इच्छा के तृप्त होते ही उसमें तृष्णा या आसक्ति उत्पन्न होती है।उसके तृप्त न होने पर उससे क्रोध या भय उत्पन्न होता है।भय भी क्रोध के समान तृष्णा से ही उत्पन्न होता है।उदाहरणार्थ:जीवन की तृष्णा से मृत्यु का भय उत्पन्न होता है।स्थितप्रज्ञ पुरुष में कामना या इच्छा नहीं होती है।अतः कामना के तीन परिणाम तृष्णा,क्रोध,भय भी उसमें उत्पन्न नहीं होते।ऐसे ही स्थितप्रज्ञ को ‘मुनि’ कहते हैं।
  • (5.)स्थितप्रज्ञ सर्वदा अनासक्त रहता है।उसकी आसक्ति केवल भगवान में रहती है और जगत के पदार्थों में वह आसक्त नहीं रहता क्योंकि जगत के सभी पदार्थ अनित्य हैं।
  • (6.)शुभ और अशुभ,प्रिय और अप्रिय सभी में स्थितप्रज्ञ तटस्थ रहता है।इस तटस्थता का कारण है कि स्थितप्रज्ञ समझता है कि शुभ और अशुभ,प्रिय और अप्रिय भगवान के अधीन है,मनुष्य के अधीन नहीं।इसी कारण वह शुभ प्राप्त होने पर भी हर्षित नहीं होता और अशुभ प्राप्त होने पर द्वेष नहीं करता।महाभारत में भी एक स्थल पर कहा गया है कि प्रिय हो या अप्रिय,अनुकूल हो या प्रतिकूल,जिस समय जो प्राप्त हो जाय उसका हृदय से सेवन करना चाहिए और उससे पराभूत नहीं होना चाहिए।स्थितप्रज्ञ की भी ठीक यही स्थिति है।
  • (7.)स्थितप्रज्ञ सभी प्रकार के,विषयों से इन्द्रिय निग्रह या संयम करता है।मनुष्य की ग्यारह इंद्रियां हैं।इनमें पांच ज्ञानेंद्रियां,पांच कर्मेंद्रियां और एक मन है।दस इन्द्रियाँ मन के अधीन होकर कार्य करती हैं।स्थितप्रज्ञ दस इंद्रियों और एक मन पर विजय प्राप्त कर लेता है।स्थितप्रज्ञ के संपूर्ण इंद्रिय-निग्रह की तुलना कछुए की अंगों से की जाती है।जिस प्रकार कछुआ अपने संपूर्ण अंगों को सब ओर से खींच लेता है,उसी प्रकार स्थितप्रज्ञ भी अपने सभी इंद्रियों को विषयों की ओर से खींचकर परमात्मा में लगा देता है।

4.गीता का स्थितप्रज्ञ क्या संभव है? (Is it Possible to Know the Undisturbed Equilibrium of Mind of the Gita?):

  • संपूर्ण इंद्रिय निग्रह स्थितप्रज्ञ के लिए सबसे बड़ा गुण है।स्थितप्रज्ञ केवल इन्द्रियों को विषयों से अलग नहीं करता वरन सभी को परमात्मा के परायण कर देता है।इससे स्पष्ट है कि इंद्रिय निग्रह परमात्मा-परायण के बिना संभव नहीं।सभी इंद्रियां मन के अधीन है।मन को भगवान में लगा देने से सभी इन्द्रियां अपने आप भगवान में लग जाती हैं।भगवान में मन के लगते ही मनुष्य अनासक्त आचरण करने लगता है।तात्पर्य यह है कि उसकी आसक्ति केवल भगवान की भक्ति में होती है।इसी कारण वह संसार में सुख और दुःख के प्रति,मित्र और शत्रु के प्रति समभाव से आचरण करता है।अतः स्थितप्रज्ञ ही भगवान का सच्चा भक्त है।उसी व्यक्ति की प्रज्ञा स्थिर मानी जाएगी जो इंद्रिय-निग्रह कर भगवान के अधीन होकर रहे।
  • गीता का स्थितप्रज्ञ आदर्श पुरुष है।स्थितप्रज्ञ की धारणा में गीता में कर्म,ज्ञान और भक्ति तीनों का समन्वय किया गया है।अतः स्थितप्रज्ञ तीनों योगों का समन्वित रूप है।वह अनासक्त कर्म करता है,अतः कर्मयोगी है।वह अपने मन और बुद्धि को भगवान् में लगाकर रखता है,अतः भक्त है।वह सुख और दुःख में समभाव से आचरण करता है,अतः वह ज्ञानी है।इस प्रकार स्थितप्रज्ञ के चरित्र में कर्म,ज्ञान और भक्ति की त्रिवेणी प्रवाहित होती है।
  • स्थितप्रज्ञ की तुलना वेदान्त के जीवन्मुक्त और महायान बौद्धधर्म के ‘बोधिसत्व’ से की जा सकती है।बोधिसत्व के हृदय में करुणा और मैत्री भरी रहती है।अतः वह केवल लोक कल्याण के लिए कर्म करता है।सभी लोगों को मुक्त करना ही उसका धर्म है।जीवन्मुक्त अनासक्त आचरण का प्रतीक है।वह शरीर के रहते हुए भी शरीर के धर्मों से अलग रहता है।गीता का स्थितप्रज्ञ भी इन्हीं के समान है।

5.स्थितप्रज्ञ का दृष्टान्त (The Parable of the Wise):

  • कई छात्र-छात्राएं इस असमंजस में रहते हैं कि अध्ययन में ज्ञान,कर्म और भक्ति कहां से आ गई?वस्तुतः अध्ययन करने पर सफलता-असफलता मिलने पर समभाव रखना अर्थात् अप्रभावित रहना ही ज्ञानयोग है।अध्ययन कार्य को कर्ता व आसक्ति के बिना करना अनासक्त है इस प्रकार यह कर्मयोग है।यदि अध्ययन को कर्ता समझ कर करेंगे तो अहंकार उत्पन्न होगा और फल में आसक्ति रखकर करेंगे तो अध्ययन को निष्ठापूर्वक नहीं कर सकेंगे क्योंकि हमारा ध्यान बार-बार परिणाम प्राप्त करने में लगेगा।अध्ययन को पूर्ण समर्पण भाव के साथ नहीं करेंगे तो अध्ययन में बोरियत महसूस करेंगे अतः समर्पण भाव के साथ अध्ययन करना ही भक्ति है।
  • कई छात्र-छात्राएं एकांगी मार्ग पकड़ लेते हैं और वांछित परिणाम न मिलने पर दुःखी होते हैं,परेशान होते हैं।
    एक बार गणित के गुरुजी विद्यालय में जा रहे थे तो उन्हें मार्ग में एक गणित का छात्र मिला तथा दुःखी होते हुए बोला।गुरुदेव! मैं अध्ययन में कठोर परिश्रम करता हूं,आचरण भी अच्छा है।कोई गलत शौक नहीं है,गलत संगति नहीं करता हूं।गणित का अध्ययन करने के अलावा भी ज्ञानार्जन हेतु अन्य पुस्तकें पढ़ता हूं।स्वाध्याय भी बराबर करता हूं।परंतु जीवन में फिर भी अपने अंदर अपूर्णता महसूस करता हूं।
  • परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने पर न तो कोई मेरी प्रशंसा करता है और न ही मुझे प्रेम-स्नेह मिलता है।ऐसी क्या कमी है जिसके कारण मेरे साथ ऐसा व्यवहार होता है और मैं स्वयं भी अपूर्णता महसूस करता हूं।
  • गणित के गुरुजी ने कहा कि तुमने कर्म और ज्ञान को तो पकड़ रखा है परंतु भाव पक्ष (प्रेम,स्नेह) को भूल गए हो।अध्ययन को पूर्ण आत्मसमर्पण और आनंद के साथ करोगे तो अपने अंदर अपूर्णता महसूस नहीं करोगे।
  • अपने मित्रों,मिलने-जुलने वालों में वही आत्मा व्याप्त है जो तुम्हारे अंदर है।अतः सभी के साथ प्रेम और स्नेह का व्यवहार करो तो सभी लोग तुम्हें अपनापन देंगे।तुम्हारे कार्य की प्रशंसा करेंगे।प्रेम और स्नेह लुटाएंगे।गणित के गुरुजी से गणित के छात्र की शंका का समाधान हुआ।उसने अपने जीवन में,अध्ययन में,व्यवहार में ज्ञान व कर्म के साथ-साथ समर्पण,प्रेम व स्नेह को अपना लिया और उसकी अपूर्णता समाप्त हो गयी।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में स्थितप्रज्ञ (Undisturbed Equilibrium of Mind),श्रीमद्भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ (Gifted with Unshakable Mental Equilibrium in Srimad Bhagavad Gita) के बारे में बताया गया है।

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6.विद्यार्थी जल्दी उठने पर क्या करते हैं (हास्य-व्यंग्य) (What Do Students Do When They Get up Early?) (Humour-Satire):

  • अध्यापक:बच्चों,बताओ सुबह-सुबह उठने पर माता-पिता क्या करते हैं?
  • एक छात्र:सर, यही कहते हैं कि सुबह हो गई है जल्दी से नहा धोकर पढ़ने के लिए बैठ जाओ वरना परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाओगे।बस रोजाना यही अलार्म देते रहते हैं।

7.स्थितप्रज्ञ (Frequently Asked Questions Related to Undisturbed Equilibrium of Mind),श्रीमद्भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ (Gifted with Unshakable Mental Equilibrium in Srimad Bhagavad Gita) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.कर्म में कुशलता कब आती है? (When Does Efficiency Come in the Work?):

उत्तर:कर्म में कर्त्तापन और कर्मफल में आसक्ति नहीं रहने पर कुशलता आती है।कर्त्तापन से अहंकार पैदा होता है और कर्मफल में आसक्ति से कामनाओं व वासनाओं में वृद्धि होती है।कर्म में कुशलता को ही श्रीमद्भगवद्गीता में ऐसे कर्म को योग कहा गया है।

प्रश्न:2.कामनाओं का त्याग कैसे संभव है? (How is It Possible to Give up Desires?):

उत्तर:कर्म को कर्त्तव्य पालन की दृष्टि से करने पर कामनाओं का त्याग सम्भव है।कामनाओं को एकाग्र करने से भी ऐसा संभव है।अपने जीवन का एक लक्ष्य तय कर लो।हमेशा उसी के बारे में चिंतन-मनन व कर्म करो।धीरे-धीरे अन्य कामनाएं छूट जाएगी।अपनी दृष्टि को बाहर से हटाकर अंदर की ओर करने,अपने अंदर की ओर झांकने,आत्मदृष्टि करने पर भी कामनाओं से छुटकारा मिल सकता है।अध्ययन को एकाग्रचित्त होकर तथा समर्पण भाव से करने पर भी कामनाओं से मुक्त हो सकते हैं।

प्रश्न:3.लक्ष्य कैसा होना चाहिए? (What Should Be the Goal?):

उत्तर:मन में कर्त्तव्य की आतुरता उत्पन्न करें उसे ही लक्ष्य कहा जाता है।लक्ष्य प्रगतिशील होना चाहिए।जैसे बीएससी करने का लक्ष्य तय किया हो तो उसके बाद एमएससी करने का लक्ष्य तय कर लेना चाहिए।एमएससी करते ही गणित में रिसर्च करने का लक्ष्य करना चाहिए।अपने अन्दर आध्यात्मिक प्रवृत्ति भी उत्पन्न करनी चाहिए।इस प्रकार लक्ष्य उत्तरोत्तर बढ़ते हुए रहना चाहिए।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा स्थितप्रज्ञ (Undisturbed Equilibrium of Mind),श्रीमद्भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ (Gifted with Unshakable Mental Equilibrium in Srimad Bhagavad Gita) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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