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Rule-Keeping and Strick Discipline

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1.नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline),जीवन जीने के लिए नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline for Living Life):

  • नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline) ही जीवन को सरल और सुगम बनाते हैं।अतः हमें बचपन से ही नियमों और अनुशासन का पालन करने के लिए अपने आपको अभ्यस्त करना चाहिए।प्रगति पथ पर आगे बढ़ने,उन्नति और विकास के लिए भी नियमबद्धता और कठोर अनुशासन में रहना चाहिए।
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2.उन्नति के लिए दो कदम एक साथ बढ़ाएं (Take two steps to advancement together):

  • प्रगति-पथ पर अग्रसर होने के लिए दो कदम एक साथ बढ़ाने होते है।पिछला एक पैर जिस जगह पर था,उसे छोड़ना होता है और दूसरा जहाँ था,उसे छोड़कर आगे बढ़ना होता है।यही क्रम दूसरे को भी अपनाना पड़ता है।आगे बढ़ने के लिए पिछला छोड़ना पड़ता है।सामान्य यात्रा क्रम का भी यही नियम है।जीवन-लक्ष्य की प्रगति-यात्रा में भी यही करना होता है।
  • उन्नति और विकास की दिशा में अग्रसर होने वाले को भी दो कदम बढ़ाने पड़ते हैं।एक वह,जिसमें पूर्वसंचित कुसंस्कारों का त्याग-परिमार्जन हो,जो उस समय की परिस्थितियों में भले ही उपयुक्त रहे हों,किंतु आज मानवीय कलेवर की गरिमा की दृष्टि से ओछे जान पड़ते हैं तथा अनावश्यक भी होते हैं।इनके अपनाए जाने पर हानि ही होती है।छोटे बालक के लिए सिलाई गई पोशाक,उसके बड़े होने पर बेकार हो जाती है,भले ही उस समय कितनी ही सुंदर क्यों न दिखती हो।कोई उसी को पहने रहने का आग्रह करे तो न केवल उसे जगहँसाई का सामना करना पड़ेगा,वरन् बुद्धिमान लोग उसे पागल की ही संज्ञा देंगे।इन सबके अतिरिक्त ताल-मेल बैठाने में भारी अड़चन पड़ेगी।जबरदस्ती करने पर मुसीबत में ही फंसेगा।
  • सामान्य जीव-जंतु नग्न रहकर निर्द्वंद्व विचरते हैं।बिना किसी प्रतिबंध-अनुशासन के मल-मूत्र त्यागते हैं।किसी रोक-टोक की उन्हें कोई परवाह नहीं,पर ऐसा ही मनुष्य करने लगे तो ना केवल लोग उसे अशोभनीय मानेंगे,अपितु दिमाग की खराबी जान किसी पागलखाने में भर्ती कराना ही उचित समझेंगे।वह पक्ष उन योनियों में रहा होगा,तब यह प्रवृत्तियां उसे सहज और स्वाभाविक लगती थीं,इसी का अभ्यास था,पर अब उसके लिए आग्रह करना अबुद्धिमत्तापूर्ण ही कहा जाएगा।इसे छोड़े बगैर कोई चारा नहीं।
  • न केवल पशु और मनुष्य के बीच में भारी अंतर पड़ता है,अपितु मनुष्य की विकसित-अविकसित स्थिति के बीच भी ऐसा ही अंतर हो जाता है।बच्चे जैसा हुड़दंग,स्वेच्छाचार करते हैं,वैसी अनुशासनहीनता बड़े होने पर किसी भी प्रकार नहीं चल सकती।बचपन और प्रौढ़ता न केवल आयु के हिसाब से आँकी जाती है,वरन् इसके लिए स्तर को भी एक कसौटी माना जाता है।
  • अनगढ़,कुसंस्कारी,लालची,मोहग्रस्त,निष्ठुर,कृपण,स्वार्थी प्रकृति के व्यक्ति चाहे कितनी ही आयु के क्यों ना हों,अविकसित ही माने जाएंगे।ऐसे लोग ऐसी भूल करते हैं,ऐसी कुचेष्टाएँ करते हैं,जिन्हें अनैतिक और अवांछनीय ही माना जाएगा।ऐसी ही स्थिति में पापकर्मों का उभार-बाहुल्य रहता है।स्वयं के उत्कर्ष की दिशा में बढ़ने वालों को पिछला कदम उस स्थान से हटाना पड़ता है,जहां वह पहले जमा हुआ था।इसको परिशोधन या परिवर्तन की संज्ञा दी गई है।
  • परिवर्तनशीलता संसार का नियम है।इस परिवर्तनशीलता को जो नकारता है,स्वीकार नहीं करता है उसे ओछा,समय के अनुकूल न चलने वाला,प्रतिगामी,रूढ़िवादी ही समझा जाता है।जीवन के प्रत्येक स्तर पर आगे बढ़ने के लिए प्रगतिशीलता,नवीनता,परिवर्तनशीलता इन तीन तत्त्वों का जीवन में समावेश करना पड़ता है।जो व्यक्ति इन तीनों को स्वीकार नहीं करता है,उसका जीवन उस तालाब की तरह होता है जिसमें पानी रुका हुआ रहने पर सड़ जाता है इसी प्रकार जीवन में इन तीनों तत्त्वों का समावेश नहीं होता उस जीवन में सडांध उत्पन्न हो जाती है।

3.नियमबद्धता और कठोर अनुशासन की आवश्यकता (The need for rule-keeping and strict discipline):

  • महल बनाने के पूर्व उसकी नींव खोदनी पड़ती है।नींव की गहराई और मजबूती पर ही महल की महत्ता टिकाऊ और मजबूत मानी जाती है।खेत बोने के लिए पहले उसकी जुताई करनी पड़ती है।किसी भी उपकरण को ढालने से पूर्व धातु को गलाना आवश्यक माना जाता है।पकवान,मिष्ठान बनाने के पूर्व उसकी बनी सामग्री को कठिन अग्निपरीक्षा से गुजरना होता है।रोगग्रस्त को स्वस्थ होने के पूर्व कड़ुवी,बेकायदा औषध पीने,सुई चुभोए जाने,ऑपरेशन की टेबल पर लेटने,काँट-छाँट सहने जैसी आफतें सहनी पड़ती हैं।तभी उसका स्वस्थ हो पाना संभव बन पड़ता है।इस सबको पहला कदम या पिछला पैर उठाना कहा जा सकता है।
  • बिल्वमंगल को कामलोलुप से संत बनने के लिए कठोर तप करना पड़ा था।विभिन्न सिद्धियां नियम-संयम और अनुशासन की ही चमत्कार होती है।इनसे वंचित अपना सामान्य जीवन भी गिरते पड़ते जी पाते हैं।राजा ययाति ने कामवासना की पूर्ति के लिए जीवन भर प्रयास किया।राजा थे,किसी प्रकार की कमी न थी;परंतु यौवन समाप्त हो गया,वासना शांत न हुई।साधन तो बहुतेरे थे; पर उन्हें भोगे कौन? वासना में अंधा होकर उसने अपने बेटों से जवानी मांगी।बेटों ने दे भी दी;पर अपनी जवानी से वासना का पेट नहीं भरा,तो बेटों की जवानी भी क्या करती? ऋषियों ने,सत्पुरुषों ने उसे धिक्कारा,कहा-“विश्व की सारी जवानियाँ भोग लें,तो भी तुझे शांति न मिलेगी और लोक-तिरस्कार के साथ शाप भी भोगना पड़ा।”
  • इतिहास के पन्ने ऐसे अनेकानेक व्यक्तियों के जीवन को स्पष्ट करते हैं,जो बहुत समय तक सामान्य से गई-बीती स्थिति में रहे अथवा यों कहें कि निंदनीय और हेय जीवन जीते रहे।जगाई-मघाई जैसे डाकू,सेठ अमीचन्द जैसे शराबी-कबाबी व्यसनी की स्थिति भी ऐसी ही थी।इसके उपरांत जब परिवर्तन हुआ तो कुछ-से-कुछ हो गए।इस विकास को नरपशु से देवमानव बनना भी कहा जा सकता है।ये परिवर्तन एकाएक नहीं हुए।इनके बीच एक मध्य वेला भी रही है।इसमें उन्हें अपने अभ्यस्त कुसंस्कारों से जूझना पड़ा है।साथ ही परिष्कृत जीवन जीने के लिए जिस नियमबद्धता और कठोर अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है,उसे भी जुटाना पड़ा है।
  • इन दो मोरचों पर एक साथ युद्ध करने को ही तप कहते हैं।महान परिवर्तनों के हर मध्यांतर का यही स्वरूप रहा है।इसमें असुविधा भी होती है,कष्ट भी होता है और एक अच्छे-खासे अंतरंग-बहिरंग विग्रह का सामना करना पड़ता है।जमीन से उत्खनन किए गए धातु खनिजों का परिशोधन-परिष्कार कर उनका उपयोगी उपकरणों में परिवर्तन भट्टी की प्रचंड उष्मा सहन करने तथा अनेकानेक रासायनिक विधियों से गुजरने के बाद ही बन पड़ता है।गर्भस्थ भ्रूण,इसके पहले कि बंधन से मुक्त हो,स्वच्छंद विचरण करे,उसे प्रसव-पीड़ा से गुजरना पड़ता है।इसके बिना कोई चारा नहीं।
  • नियम-संयम और कठोर अनुशासन का पालन करने के लिए हर व्यक्ति और विद्यार्थी को संघर्ष की भट्टी से गुजरना पड़ता है।संघर्ष से गुजरने पर ही उनके दुर्गुण कट-कटकर,गल-गलकर बाहर निकलते हैं और वह तपकर मानव से महामानव बनता है।जो इनसे घबराकर,संघर्ष से घबराकर अपना रास्ता बदल लेते हैं वे कहीं के नहीं रहते हैं।वे कृमि-कीटकों की तरह अपना जीवनयापन करते हैं और जैसे-तैसे अपने जीवन को पूरा करते हैं।थोड़ी सी भी कठिनाई,समस्या सामने आ जाती है तो उनके हाथ पांव फूल जाते हैं और हौसला खो बैठते हैं।लेकिन जो डटकर मुकाबला करते हैं नियम-संयम और अनुशासन का कड़ाई से पालन करते हैं उनका जीवन दिव्य और भव्य बनता चला जाता है,इसमें संशय नहीं है।

4.नियमित अभ्यास भी तप का पहलू (Regular practice is also an aspect of asceticism):

  • तपश्चर्या का दूसरा पहलू है,नित्य-नियमित अभ्यास।प्रत्येक दुर्बल यदि सबल बनना चाहे तो उसे व्यायामशाला में निरंतर निर्धारित कसरत-व्यायाम करने पड़ते हैं।सर्वविदित है कि अखाड़े की उठा-पटक,गुरु का कठोर अनुशासन कितना कष्टकारी होता है,पर इसके बिना कोई चारा नहीं।आग का ताप सहन कर सामान्य-सा पानी ऐसी सशक्त भाप में परिवर्तित होता है,जो भारी-भरकम दैत्याकार रेलगाड़ी को मिट्टी के खिलौनों के सदृश कान पकड़े तूफानी वेग से घुमाए फिरती है।मिट्टी की कच्ची ईंटें भट्टे में लगने के बाद लोहे जैसी पुख्ता और सुंदर दिखाई देती है।यह वह दुस्साहस है,जो प्रगति-पथ पर अग्रसर होने के लिए अपनाना पड़ता है।इस रीति-नीति को अपनाकर महामानव बनते रहे हैं।इसके लिए आत्मानुशासन,त्याग-बलिदान का मार्ग अपनाना पड़ता है और लोक-कल्याण के लिए परमार्थपरायण बनकर अनेकानेक कष्ट-कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।इस परीक्षा में गुजरे बिना किसी की प्रमाणिकता एवं विशिष्टता परखी भी तो नहीं जा सकती।
  • आदर्शों के लिए कष्ट साध्य जीवन बिताने वाले तपस्वी ही सम्मान पाते हैं।महत्त्वपूर्ण कार्यों का दायित्व उन्हीं को सौंपा जाता है।कष्टों से बचने,मात्र बातों के छप्पर तानकर वरिष्ठता,श्रेष्ठता झटकने की इच्छा करने वाले प्रायः निराश या हताश ही देखे जाते हैं।परखे बिना सिक्के को भी कोई स्वीकार नहीं करता।खोटा दस नए पैसे का सिक्का देने वाले के सिर पर मार दिया जाता है।आदर्शों की बकवास करने वाले,दुनियाभर का भाषण झाड़ने वालों का कोई महत्त्व नहीं है।उनके प्रति जिसकी निष्ठा है,उसकी जांच-पड़ताल का एक ही आधार है कि उच्चस्तरीय उद्देश्य के निमित्त कौन कितनी कठिनाई सहन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक तैयार हुआ है।तप-साधना का सिद्धांत यही है।उसमें प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए आदर्शवादी त्याग-बलिदान की मांग पूरी करनी पड़ती है।जीवनचर्या को सिद्धांतों,आदर्शों के सहारे अधिकाधिक पवित्र,प्रखर,परिष्कृत करने का न केवल संकल्प करना पड़ता है,वरन् उसे निष्ठापूर्वक निभाना भी पड़ता है।
  • सद्गुणों का संवर्द्धन तभी बन पड़ता है,जब दुर्गुणों का उन्मूलन हो।बबूल जैसे कांटेदार वृक्षों के जंगल के बीच आम जैसे फलदार पेड़ तभी उगाए जा सकते हैं,जब बबूल का जंगल काटा जाए।उन्नति और विकास के लिए तपस्या के द्विविध पहलू अनिवार्य ही नहीं,आवश्यक भी हैं।गीता में भी मन को सुगढ़,उर्ध्वगामी बनाने का एक ही उपाय सुझाया है,निरंतर अभ्यास और वैराग्य से ही मन उर्ध्वगामी बनता है।अभ्यास यानी अच्छे कार्यों को करना और बुरे कार्यों से विरक्त भाव रखना।इसी प्रकार योग दर्शन के सूत्रकार महर्षि पतंजलि ने कहा है,अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध: वैराग्य का तात्पर्य उखड़ना और अभ्यास का तात्पर्य है रोपना।यही वे दो कदम हैं जिन्हें उठाने से हमारा जीवन सुरम्य उपवन की तरह ऐसा सुगंधित बन सकता है,जिसकी महक से अन्य भी शांति-शीतलता प्राप्त कर सकें।
  • मन को अभ्यास में लगाना (अच्छे कार्य करने में) और वैराग्य (बुरे कार्य से विरक्ति) धारण करना है तो कठिन कार्य परंतु धीरे-धीरे सतत प्रयास करने पर कठिन से कठिन कार्य भी साध्य हो जाता है।मन ही हमें ऊपर उठाने वाला है और मन ही हमें नीचे की ओर गिराने वाला है।मन ही इंद्रियों को आदेश देता है और इन्द्रियाँ मन के आदेश के अनुसार कार्य करती है।मन पर सतत निगरानी रखने और वश में करने के उपाय करके हर कार्य को संभव किया जा सकता है।

5.छात्र-छात्राएं प्रारंभ से सतर्क रहें (Students should be cautious from the beginning):

  • उपर्युक्त विवरण से यह तो समझ में आ ही गया होगा कि मन को नियम-संयम तथा अनुशासन और नित्य-नियमित अभ्यास का अभ्यस्त करना कितना जरूरी है।विद्यार्थियों को शुरू से ही नियम-संयम और अनुशासन का पालन करते रहना चाहिए।जो विद्यार्थी अपने शुभचिंतक होते हैं,अपने हित-अहित का ज्ञान रखते हैं वे जब तक बुढ़ापा नहीं सताता,तब तक इन्द्रियाँ शक्तिहीन और असमर्थ नहीं हो जाती तब तक यथाशक्ति अपने कर्त्तव्यों (अध्ययन,मनन,चिंतन आदि) का पालन करते रहते हैं क्योंकि विद्यार्थी काल के बाद,आदतें और संस्कार मजबूत हो जाते हैं,बुढ़ापे में शरीर कमजोर हो जाता है और इन्द्रियाँ शिथिल हो जाने पर शुभ कर्म व अच्छे कार्य करना संभव नहीं होता है।
  • अधिकांश विद्यार्थियों का विचार रहता है कि अभी तो कोर्स की पुस्तकें पढ़ने,कमाई करने,जाॅब प्राप्त करने आदि दुनियादारी की इतनी झंझटें हैं,जिम्मेदारियां हैं,उलझने और समस्याएं हैं।इनसे जरा फुरसत मिलेगी तब मन को वश में करने के उपाय,नियम-संयम और अनुशासन का पालन करने के उपाय,सत्कर्म,धर्म और आत्म-कल्याण के बारे में सोच लेंगे।बुढ़ापे में और करेंगे भी क्या? ऐसा सोचना ठीक नहीं है।समय रहते ही कार्य सिद्ध किया जा सकता है क्योंकि आग लगने पर कुआं खोदने से क्या लाभ?
  • व्यक्ति और विद्यार्थी कर्म करने में तो स्वतंत्र रहता है पर कर्म का फल भोगने में परतंत्र होता है जैसे कोई स्वेच्छा से वृक्ष पर चढ़ तो सकता है किंतु असावधानीवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है।
  • इसलिए विद्यार्थियों को अपने आपको अनुशासित रखने का अभ्यास करना चाहिए।अपने पर अनुशासन रखना कठिन होता है लेकिन जो आत्म-विजेता और आत्मानुशासित होता है अर्थात् आत्मा के द्वारा निर्देशित कर्मों को करता है,मन,बुद्धि व इंद्रियों के वशीभूत होकर नहीं,वही इस जीवन का सही आनंद भोग सकता है।
  • अपने आपको अनुशासित करने के लिए फौलाद जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प की आवश्यकता है।विद्यार्थी काल में इंद्रियां,शरीर शक्तिशाली होते हैं और पूर्व जन्म के बुरे व अच्छे संस्कार सुप्त अवस्था में रहते हैं।अतः विद्यार्थी काल में जैसे कर्मों को करने के लिए अपने को अभ्यस्त किया जाएगा,नियम-संयम में रहेंगे,अनुशासन का पालन करेंगे तो पूरे जीवन की नींव सुदृढ़ हो जाएगी।आगे जीवन में आने वाली झंझटों,मुसीबतों,समस्याओं को आप हंसते-खेलते हल कर लेंगे।ज्ञान,ध्यान,तप (द्वन्द्वों को सहन करना) से इंद्रियों और मन को वश में किया जा सकता है जैसे घोड़े की लगाम से घोड़ों को नियंत्रित किया जा सकता है।
    अपने मन को इस तरह समझाकर नहीं बैठ जाना चाहिए कि अभी तो कोर्स की पुस्तकें पढ़ लेते हैं और ये सब बातें (ज्ञान-ध्यान आदि) को बाद में देख लेंगे।विद्यार्थी काल में जो आदतें मजबूत हो चुकी होती है उनको बदल पाना बहुत ही कठिन है।अतः विद्यार्थी काल में व्रत,तप,संयम,नियम,अनुशासन और शील का पालन करना अकारथ नहीं है परंतु इन सबका पालन पवित्र और शुद्ध मन से किया जा सकता है।यदि मन ही वश में नहीं तब इन सब चीजों का पालन करना असंभव है।जैसे मैले दर्पण में मुख दिखाई नहीं देता,उसी प्रकार से गलत आदतों से मजबूर,राग-द्वेष से ग्रसित,रंगे हुए मन में ज्ञान,ध्यान,मुक्ति,सत्कर्म,नियम-संयम और अनुशासन की बातों को खूँसट बातें समझी जाती है।यानी विकारग्रस मन से अच्छी बातें भी बुरी और अनावश्यक लगती हैं,तो पालन करना तो बहुत दूर की बात है।शुरू में भले ही इन बातों का पालन करना कष्टकारक लग सकता है लेकिन एक बार मन इन बातों का अभ्यस्त हो गया और इन बातों का महत्त्व समझ में आ गया तो स्वतः ही नियम-अनुशासन आदि बातों में रुचि हो जाती है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline),जीवन जीने के लिए नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline for Living Life) के बारे में बताया गया है।

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6.कोई कितना बुद्धिमान होगा? (हास्य-व्यंग्य) (How Intelligent Someone Would Be?) (Humour-Satire):

  • टीचर:बताओ,अगर किसी ने दस वर्ष पूर्व अध्ययन-मनन-चिंतन करना प्रारंभ किया हो तो अब वह कितना बुद्धिमान होगा?
  • छात्र:यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि अध्ययन-मनन-चिंतन करने वाला पुरुष था या स्त्री।

7.नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Frequently Asked Questions Related to Rule-Keeping and Strick Discipline),जीवन जीने के लिए नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline for Living Life) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.नियमों का पालन न करने से क्या गति होती है? (What condition does not follow the rules cause?):

उत्तर:सत्कर्मों,अच्छी बातों,शील-सदाचार का पालन न करने वालों की दुर्गति ही होती है।वह जीवन में कष्टों,विपत्तियों से घिर जाने पर उनका हल नहीं ढूंढ पाता है,उसके चारों ओर अनर्थ फैल जाता है।

प्रश्न:2.विद्यार्थी के लिए संयम का क्या महत्व है? (What is the importance of self-control for the student?):

उत्तर:विद्यार्थी अवस्था में संयम की महान विद्या सीख लेनी चाहिए।जब आप संयम की शक्ति का संग्रह कर लेंगे तो एकाग्रता भी,जो जीवन की एक महान शक्ति है, पा लेंगे।

प्रश्न:3.अनुशासन को स्पष्ट करें। (Clarify Discipline):

उत्तर:विद्यार्थी के लिए आत्म-अनुशासन अति प्रभावशाली युक्ति है।अनुशासन किसी पर ऊपर से थोपा नहीं जाता,अपितु आत्म-अनुशासन लाया जाता है।हम दाब-दबाव से अनुशासन नहीं सीख सकते हैं।अतः बच्चों को अनुशासित करने के लिए बड़ों को अनुशासन में रहना चाहिए।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline),जीवन जीने के लिए नियमबद्धता और कठोर अनुशासन (Rule-Keeping and Strick Discipline for Living Life) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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