Orphan Student and Mathematician
1.अनाथ विद्यार्थी और गणितज्ञ (Orphan Student and Mathematician),गणितज्ञ ने अनाथ विद्यार्थी की पीड़ा समझी (Mathematician Understood Orphan Student’s Pain):
- अनाथ विद्यार्थी और गणितज्ञ (Orphan Student and Mathematician) के इस लेख में भटकते अनाथ विद्यार्थी को गणितज्ञ ने सही दिशा दी और उसे सहारा दिया,संबल प्रदान किया,प्रेरित किया।अनाथ विद्यार्थी के जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल गई।
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2.रोजगार की तलाश में भटकता विद्यार्थी (Student wandering in search of employment):
- वह आज उगलती दोपहर में बहुत भटका।बहुत से कार्यालयों,कंपनियों तथा संस्थाओं के द्वार खटखटाए।अनेक समाचार पत्रों और दूसरे कार्यालयों में पहुंचा,ऑनलाइन आवेदन भी किया परंतु या तो जवाब ही नहीं या टका-सा जवाब देकर उसको टरका दिया जाता।न जाने कितने दिनों से चल रहा है यह क्रम;कौन गिनने बैठा है इसे? विश्वविद्यालय से एमएससी करके अपने साथ अनेक प्रशंसापत्र लिए भटक रहा है वह।काम नहीं है उसके लिए! एक एमएससी के लिए क्या विश्व में कोई काम नहीं है? वह अकेला है,घर पर और कोई नहीं।घर ही नहीं है उसके तो;पर पेट तो है ना।अकेले को भी तो भूख लगा करती है।
- दो-तीन दिन पहले वह एक कबाड़ी के हाथ वह अपनी बची हुई पुस्तकें मिट्टी के मोल बेच चुका और अब तो मुट्ठी भर चने लेने में आज उसकी अंतिम पूंजी भी समाप्त हो गई।उसकी सभी एप्लीकेशन का जो इधर-उधर भेजी थी एक ही उत्तर है-काम नहीं।वह जहां जाता है उसे द्वार पर लिखा मिल जाता है-नो वैकेंसी।इतने बड़े संसार में उसके लिए काम नहीं और कल के लिए कोड़ी भी पास नहीं है।काम नहीं-इस ग्रीष्म में,इस तवे से तपते हुए पथ पर भटकता रहा और अब उसे लगने लगा है कि सचमुच संसार में उसका अब कोई काम नहीं है।
- रूखे-बिखरे बाल,तमतमाया फीका मुख,पसीने से लथपथ देह और भाल पर चिपकी हुई कुछ अलकें-शरीर कहां तक साथ दे किसी का।अब चक्कर आने लगा।पार्क दूर है और कुछ देर विश्राम करना चाहिए।इधर-उधर देखकर वह एक परिसर में घुस गया।शीतल छाया-सुगंधित वायु जैसे प्राणों को अद्भुत तृप्ति मिली हो।वहीं पास में ‘धम’ से एक खंभे के सहारे टिककर बैठ गया।रिसर्च सेंटर की चिकनी शीतल संगमरमर भूमि बड़ी सुखद लगी।परिसर किसी ऋषि के आश्रम जैसा लगता था।नजर घुमाकर ऊपर देखा तो बोर्ड पर लिखा हुआ था ‘गणित शोध संस्थान’।परंतु उसके पट बंद नजर आ रहे थे।वैसे भी आजकल ग्रीष्म की दोपहरी में यदा-कदा ही कुछ श्रद्धालु आते होंगे।दोपहर के समय शायद शोध संस्थान के कर्मचारी और अधिकारी आराम कर रहे होंगे।मिलने-जुलने वाले तथा दर्शनार्थी कोई भी तो नजर नहीं आ रहा था।
- वह बिल्कुल थक चुका था।वह तो बहुत एकाकी,थका,खिन्न-सा अनुभव कर रहा था।उसे भला शोध संस्थान,उसके संचालक व कर्मचारियों से क्या काम क्योंकि काम तो मिलनेवाला है नहीं।हां,इस समय उसे बड़ी शीतलता,बड़ी सुगंधी,बड़ी शांति मिल रही थी।वह विश्राम करने की मनःस्थिति में था।प्यास लगी थी; पर कोई बात नहीं अभी तो उठा नहीं जा सकता,परिसर के गेट पर प्याऊ तो वह देख ही आया है।
- पिता अच्छे सीए (चार्टर्ड अकाउंटेंट) थे।परिमार्जित सुधारक विचारक थे उनके।सीए का काम अच्छा चलता था।लेकिन मित्रों का संग और वाहवाही पाने का लोभ,ऐसे में रुपए क्या कभी जेब में टिका करते हैं?पैतृक संपत्ति तो वैसे ही नहीं थी।कहीं दूर किसी गांव में घर है।पर उसने तो चर्चा ही सुनी थी,कभी देखा नहीं उसे।उसके माता-पिता नगर में रहते थे।वहीं उसने जन्म लिया एक सुंदर बंगले में।बड़े स्नेह से पालन हुआ उसका और बड़े उत्साह से शिक्षा प्रारंभ हुई।अंतत माता-पिता की एक ही तो संतान था वह।
3.माता-पिता का बिछोह (Parental Parting):
- कॉलेज और विश्वविद्यालय का जीवन-जेब में कोई अभाव नहीं,प्रतिभा भी संपत्ति के समान प्रचुर ही हुई और तब स्वस्थ,सबल वह सहपाठियों में अग्रणी तो रहेगा ही।धर्म की मूर्खतापूर्ण धारणा और भगवान की भूल-भुलैया से तो उसके पिताजी ने ही पिंड छुड़ा लिया था।माताजी में कुछ बातें थी,पर उनमें ऐसा कुछ नहीं।फिर वह तो छात्रों में अग्रणी रहा है।नियम,संयम,धर्म सदाचार,भगवान इन सबका उपहास करके इनकी दासता से मुक्ति पा जाना ही तो गौरव है मनुष्य के लिए।आधुनिकता के माहौल में उसने यही सीखा और पाया था।
- सहसा पिताजी का हार्ट फेल हो गया।इतने बड़े सीए,पर पसलियां के नीचे धुकपुक करता तो छोटा-सा हृदय है,वह तो किसी की अपेक्षा नहीं करता।ऑफिस में खड़े थे और वहीं….. हां,तो उसके पश्चात संवेदना,शोक प्रकाश,समाचार पत्रों में संवाद-यह बड़ा दम्भी समाज है।सबने इतना तो ढोंग रचा और जब सहायता की बात आयी,किसी की जेब ऐसी नहीं जो खाली ना हो।कुछ नहीं तो रूखा उत्तर दे दिया।अब तो ये सब पहचानते तक नहीं।
- किसे पता था कि पिताजी इतना कर्ज कर गए हैं।वह सामान-फर्नीचर तक नीलाम,वह बंगले से निर्वासित! माता मर गई इन सब आघातों से और वह स्वयं बेचारा भटक रहा है।भटक ही तो रहा है,यह सब भोगते हुए।कहां एमएससी पास करने के पश्चात वे पार्टियाँ,वे उत्साह और कहां….. ।पिताजी योजना बनाते ही रहे अपने होनहार पुत्र के सम्बन्ध में और उसी समय मरना था उन्हें।
पता नहीं कितनी बातें स्मरण आयीं।एकाकी रोने और हिचकने का यह पहला दिन तो नहीं है।शरीर के वस्त्र तक बिक चुके।जो लोग बड़े आदर से मिलते थे,अब पहचानते तक नहीं।आज उसकी प्रिय पुस्तकों (संपत्ति) को बेचे भी दो दिन हो चुके।फुटपाथ पर या पार्क के कोने में सो लिया जा सकता है और अब तो यह अभ्यस्त बात हो गयी।पर भूख,पेट तो नहीं मानता।काम नहीं!सब एक ही बात कहते हैं;सब कहीं एक ही उत्तर मिलता है और सचमुच संसार में क्या काम है उसका। - भगवान छिः।यह तो मूर्खों की कल्पना है।एमएससी में प्रथम श्रेणी आने वाला वह भला इसे माने? पर पता नहीं क्यों यह भगवान आज भी विचित्र अद्भुत रूप से मन में उठ रहा है।जैसे प्राण पुकारते हों-भगवान!तभी लगा कि कंठ सूख रहा है।देर से प्यास लगी है।दोनों हाथ भूमि पर लगाकर वृद्ध की भाँति थका-सा उठा वह और गेट पर प्याऊ पर आ गया।
- वापस आने पर उसके कानों में शब्द पड़े-श्रीमन् मेरे बच्चे की नौकरी लग जानी चाहिए।मैं भलीभांति पूजा करूंगा आपकी।इन सेठ जी को तो वह भलीभांति पहचानता है।ये तो व्यापारियों में अच्छे प्रतिष्ठित हैं।ये भला गणित शोध संस्थान के संचालक के सामने इस प्रकार हाथ जोड़ रहे हैं? महाराज मेरा बच्चा पास हो जाना चाहिए।उसे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करा दो-भेंट पूजा चढ़ा दूंगा।ये वकील साहब-ये पढ़े-लिखे,सुसभ्य-बेचारे की बुद्धि व्यवस्थित नहीं है,इस समय।आज पहली बार गणित शोध संस्थान में आया था।अब दरवाजा खुल गया था।लोग मिलने-जुलने वाले और दर्शनार्थी आ रहे थे।हरा-थका वह जल पीकर वापस लौट आया था।कहीं जाने का उत्साह नहीं था उसमें।इतने लोग आ गए हैं,इतने लोग खड़े हैं अब एक ओर बैठने का अवकाश तो है नहीं,वह भी पीछे एक ओर खड़ा हो गया।कुतूहलपूर्वक देखने लगा।एक ऋषि तुल्य व्यक्ति के लोग दर्शन कर रहे थे और प्रणाम कर रहे थे।वह तो देख रहा था यहां का कौतुक।
- उसे बड़ा आश्चर्य हुआ लोग उसे भगवान की तरह मानकर कुछ ना कुछ मिन्नतें कर रहे थे।पर वे शान्तचित्त भाव से सबको आशीर्वाद और शुभाशीष दे रहे थे।कोई कह रहा था मेरे बच्चे का वह काम कर दो,यह काम कर दो।इंसानों की अक्ल पर तरस आ रहा था कि वह उन्हें प्रलोभन दे रहे थे,घूस,लालच दे रहे थे।कोई अपनी भूल पर पश्चाताप कर रहा था और कोई कह रहा था अब सावधान रहूंगा।बड़ा बुरा लगा,बड़ा क्रोध आया उसे,पर वह चुप रहा।मेरा यह काम कर दो।मैं तुम्हें लड्डू दूंगा,माला दूंगा,पूजा करूंगा।और कुछ भी तो यह भी नहीं करना चाहते।वे तो केवल कहते हैं-मेरा अमुक काम कर दो।सब आज्ञा देने आते हैं।सब ठगने आते हैं।
- वह भी पूजा पाठ,भेंट चढ़ावा,फीस तब देगा जब उसका काम हो जाएगा।उसके मन में लोगों की स्वार्थपरता के प्रति विद्रोह जगने लगा और तब पता नहीं कहां से उसे उन ऋषि तुल्य व्यक्ति के प्रति सहानुभूति हो गई।वे इस भोले ऋषि को किस प्रकार ठगना चाहते हैं।
4.अनाथ विद्यार्थी में परिवर्तन (Changes in Orphan Student):
- छात्र-छात्राएँ,लोग झूठे,पाखंडी बाबाओ के चक्कर लगाते रहते हैं और पूजा-पाठ,चढ़ावा,प्रसाद,दान-दक्षिणा के द्वारा अपना कार्य सिद्ध करने जाते हैं।परन्तु यह ऋषि कोई भेंट-पूजा,चढ़ावा,दान-दक्षिणा स्वीकार नहीं कर रहे थे,वे मना कर रहे थे फिर भी अपनी आदतों से बाज नहीं आते हैं।
- अपनेपन के भाव में इसके मन में आया कि यह अनोखा गणित शोध संस्थान है जिसके निदेशक ऋषि तुल्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं।कोई अहंकार नहीं,कोई लोभ-लालच नहीं,कोई दिखावा,पाखंड नहीं,साफतौर पर लोगों को मना कर रहे थे कि मुझे कुछ नहीं चाहिए भगवान का दिया हुआ सब कुछ है मेरे पास।
- वह विद्यार्थी नहीं समझ सका कि वह उस महान गणितज्ञ (शिवानंद) को अपनी ओर से क्या भेंट चढ़ाये,वो भी बिना किसी काम के।मैं अवश्य और प्रयत्न करूंगा और तुम्हें अपनी ओर से कुछ भेंट चढ़ाऊंगा।वह नहीं समझ सका कि वह अपने उद्गार उनके सामने कैसे व्यक्त करें? अपनी भूख के कारण उसमें स्वाभाविक रोष और उत्तेजना थी।उसने अनुभव किया कि अब और यहां ठहरने पर वह अपने को रोके नहीं रह सकता।अपनी धुन में सोचता हुआ वह उस दिव्य परिसर से बाहर आया।
- बाहर आते ही उसे लगा कि किसी ने आवाज दी।घूमकर देखा तो एक सेठ जी कह रहे थे-भैया तनिक इस कागज (अंक तालिका) को पढ़ दो।उसने ध्यान से देखा यही सेठ जी तो हैं जो अन्दर गणितज्ञ शिवानंद जी से विनती कर रहे थे और कुछ भेंट-पूजा चढ़ाने का वादा कर रहे थे।हाथ में कागज लिए पुकार रहे हैं-ये आपको कष्ट तो होगा।सेठ जी ने बड़ी विनम्रता से कहा।
- मैं बेगार नहीं करता।उसे बहुत रोष है सेठ जी पर।ये स्वयं तो बच्चे को पास कराके इतना बड़ा काम करवाना चाहते हैं और शिवानंद जी को पूजा-पाठ में टकराना चाहते हैं तथा वह उनका कागज पढ़ दे? पर वह अनुदार तो नहीं,वह तो दूसरों की सेवा,उनके काम के लिए सदा प्रस्तुत रहा है।कुछ सोचकर कागज (अंक तालिका) को पढ़ दिया।
- लेकिन तब उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब सेठ जी ने चमकता एक रुपए का सिक्का निकाला और उसके हाथ में थमा दिया।क्योंकि सेठ जी का बच्चा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया जिसका मजमून सुनते ही वह उछल पड़े थे और शीघ्रता से यह कहते हुए आगे बढ़ गए कि घर पहुंच कर खुशखबरी देनी है।इस समय उन्हें किसी चीज की चिंता नहीं थी।
- पर वह अपने हाथ पर रखे एक रुपए के सिक्के को बड़े विस्फारित नेत्रों से देख रहा था।₹1 का सिक्का-इतनी शीघ्र इतनी सरलता से यह सिक्का मिला है।सिक्के का मूल्य आज उसकी दृष्टि में जो है,वह दूसरा कैसे समझ सकता।वह 50 पैसे शिवानंद जी को भेंट करेगा।सब उन्हें ठगने को ही पहुंचते हैं।वह चाहे जितना कंगाल हो गया हो,उसका हृदय कभी विश्वासघाती नहीं होगा।वह बेइमानी नहीं करेगा।50 पैसे शिवानंद जी को देगा।उसके लिए तो 50 पैसे आज पेट की भूख मिटाने भर को हैं ही।वह गणित शोध संस्थान की ओर मुड़ा।
- परंतु यह क्या गणित शोध संस्थान का द्वार बंद हो चुका था।शिवानंद जी ने द्वार बंद कर दिए।अब तो यह कल खुलेगा।क्या चिंता,कल सही।मैं कल पचास पैसे यहाँ शिवानन्द जी को दे जाऊँगा।अभी तो भूख लगी है।
- लेकिन तभी विचार श्रृंखला परिवर्तित हुई,अरे! इसमें 50 पैसे दूसरे के हैं,मैं उसका भाग दिए बिना अपना भाग ले लूं।बेईमानी तो नहीं होगी? मैं अपना भाग ही तो ले रहा हूं।बँटवारा तो हुआ ही नहीं,अपना भाग कहां से आया!50 पैसे के चने तो लिए जा सकते हैं।बेचारा वह चने की दुकान के सामने देर तक खड़ा रहकर लौट आया।परिसर के गेट पर पानी पीकर,उसके अहाते में भूखा लेट गया वह भूमि पर।आज न सही कल तो चने मिल ही जाएंगे।रुपया अपने पास तो है ही।
5.गणितज्ञ ने विद्यार्थी को सही दिशा दिखाई (The mathematician showed the student the right direction):
- वह सोच रहा था,मैंने 50 पैसे देने को कहा है।वह मानव ही सही,पर मैंने उसी को तो देने का संकल्प किया है,उन्होंने तो मांगा नहीं।मैंने कहा है न।उसने सोच लिया कि वह 50 पैसे तो गणितज्ञ शिवानंद जी को देगा ही।इसी सोच-विचार में कब पलके बंद हुई,कब सो गया,यह पता ही नहीं चला।
- सुबह आंख खुली,तो फिर से गणित शोध संस्थान में लोगों की भीड़ लग चुकी थी।कोई कह रहा था आपने मेरी विनय पर ध्यान नहीं दिया।आप तो सक्षम हैं।सेठ जी रिसर्च सेंटर में रोजाना आते हैं।द्वार पर उसे देखते पहचान लिया उन्होंने।उसने भी आज ओम नमः शिवाय से नम्रतापूर्वक उत्तर दिया।सेठ जी का बच्चा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ है,जिसके अच्छे अंकों से पास होने की आशा छोड़ चुके थे।उनके हाथ में फूलों की माला और पूजा का सामान था।हालांकि जितने परसेंटेज अंकों की मिन्नत की थी,उतनी परसेंटेज तो नहीं बनी थी।
- वकील साहब के बच्चे का प्रतियोगिता परीक्षा में पेपर अच्छा हुआ है,परंतु प्रतियोगिता परीक्षा में चयन हो तभी बात बने।किसी को बताएं स्थान पर लाभ नहीं हुआ,किसी और स्थान में हुआ तो उसे वह क्यों गिने? कोई आया है याद दिलाने के लिए कि उसका काम भूल न जाए और कुछ लोग केवल तुलसीदल और एक-आध फूल लेकर आए हैं।श्रीमान इस बार मेरा बेटा जेईई-मेन की परीक्षा दे रहा है,बहुत बड़ा कंपटीशन है।प्रवेश परीक्षा में पास हो जाने पर वह अब आर्थिक संकट अनुभव करने लगे हैं।आगे कभी दूसरा काम पड़ेगा तब यह कमी पूरा कर देना चाहते हैं वे।
- श्रीमान मेरा काम हो जाना चाहिए।इतने लोग आते हैं,इनका काम होता है-मूर्ख तो नहीं है ये सब।अभी ₹1 तो जेब में है उसी की।कितनी अकल्पित रीति से मिला ये ₹1।उसने शिवानंद की ओर देखा और एकटक देखता ही रह गया।
- पर बड़े भोले हैं शिवानंद जी।लोग ठगते ही रहते हैं।सब आते हैं,आज्ञा देते हैं और चाहते हैं कि उनका बताया कार्य उन्हीं की बताई रीति से और उन्हीं के बताए समय पर पूरा हो जाए।इतने पर भी कम-से-कम पारिश्रमिक देना चाहते हैं।काम हो जाने पर बहानेबाजी और…. ।उसे बहुत बुरा लग रहा था दम्भ लोगों का।
- क्या यही आस्तिकता है? क्या यही इनका धर्म है? जैसे प्रश्न उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंध उठे।वह सोचने लगा मैं नास्तिक ही भला।कम से कम मैं किसी को ठगने का इरादा तो नहीं रखता,शिवानंद जी को भी नहीं।उसके विचारों का चक्रवात कुछ देर और उथल-पुथल मचता रहा,तभी पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा।स्पर्श में अपनापन था,स्नेह की कोमल भावनाएं थीं,जो अनजाने में ही उसे अंदर तक छू गयीं।उसने पीछे मुड़कर देखा,तो पाया स्वयं गणितज्ञ शिवानंद जी खड़े थे।
- परस्पर दृष्टि विनिमय होने पर वह कहने लगे-ये भगवान तो सबमें विराजमान है।उन्हीं की शक्ति से हम सभी जीवित हैं।पदार्थों का क्या प्रयोजन है,उस परमात्मा को।परंतु इन बातों से उसकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई।उसके प्रश्न यथावत रहे,जिसे गणितज्ञ ऋषि शिवानंद जी की गहन अंतर्दृष्टि ने ताड़ लिया।वे कह रहे थे-मैंने स्वयं ही भेंट-पूजा,दान-दक्षिणा लेना वर्जित कर रखा है।मुझे गणित शोध संस्थान से इतनी आय हो जाती है कि मुझे और अधिक की आवश्यकता ही नहीं है।मेरा धर्म है आनेवालों की संवेदना को महसूस करना,उनके कष्टों को दूर करना,आर्तजनों की भावाकुलता है और आस्तिकता भगवान से प्रेम है।उनसे गहरा अपनत्व है।
- तब क्या वह स्वयं भी? आगे कुछ और सोचता है,इसके पहले ही वे शिवानंद महाराज बोल पड़े,हां,तुम्हारे अंदर सच्ची आस्तिकता ने जन्म लिया है।भगवान तुम्हें अपने लगने लगे हैं और तुम भी उनके अपने हो।शिवानंद जी ने उस विद्यार्थी को पहले भोजन कराया।उसे कहा केवल भौतिक शिक्षा अर्जित करके आज के अधिकांश विद्यार्थी भटक जाते हैं।भौतिक शिक्षा से जीवन सुधरना तो दूर की बात है आज रोजगार भी नसीब नहीं होता है।शिवानंद जी ने उसे धर्म और आस्तिकता का मर्म समझाया और अपने शोध संस्थान में रखकर उसे आत्मनिर्भर बनाया।उस अनाथ विद्यार्थी का जीवन धन्य हो गया और दर-दर की ठोकरे खाने से बच गया।
- उपर्युक्त आर्टिकल में अनाथ विद्यार्थी और गणितज्ञ (Orphan Student and Mathematician),गणितज्ञ ने अनाथ विद्यार्थी की पीड़ा समझी (Mathematician Understood Orphan Student’s Pain) के बारे में बताया गया है।
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6.टीचर द्वारा बच्चे का टेस्ट (हास्य-व्यंग्य) (Test of Child by Teacher) (Humour-Satire):
- एक टीचर छोटे बच्चों को कुछ पूछ रहा था।बच्चा डर के मारे थर-थर काँप रहा था और चीख उठा।
- उसकी मां अंदर आई और बोली क्या हुआ,टीचर ने तुम्हें पीटा तो नहीं?
- बच्चे ने भोलेपन से जवाब दिया:नहीं,अभी तो मेरा टेस्ट ही ले रहे हैं।
7.अनाथ विद्यार्थी और गणितज्ञ (Frequently Asked Questions Related to Orphan Student and Mathematician),गणितज्ञ ने अनाथ विद्यार्थी की पीड़ा समझी (Mathematician Understood Orphan Student’s Pain) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.अनाथ विद्यार्थी और गणितज्ञ का निष्कर्ष क्या है? (What is the conclusion of the orphan student and the mathematician?):
उत्तर:यह स्टोरी आज बढ़ रही बेरोजगारी और उससे उत्पन्न समस्याओं की तरफ इशारा करती है।आज युवक-युवतियाँ डिग्रियों पर डिग्री लेते जा रहे हैं परंतु आत्म-निर्भर नहीं बन पा रहे हैं।उन्हें जीवन को सही दिशा और आत्मनिर्भर होने की शिक्षा नहीं दी जा रही है।ना माता-पिता द्वारा,न सरकार द्वारा और न ही कोई अन्य वैकल्पिक व्यवस्था है।फलतः ये पढ़े-लिखे युवक भटक रहे हैं।
प्रश्न:2.क्या आधुनिक युग में एक गणितज्ञ ऋषि हो सकता है? (Can a mathematician be a sage in the modern era?):
उत्तर:बिल्कुल संभव है और एक नही बहुत से उदाहरण हैं जो गणितज्ञ भी हैं और ऋषि भी।गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त,आर्यभट प्रथम,महावीराचार्य आदि जितने भी गणितज्ञ हुए हैं उन्होंने ऋषि तुल्य जीवन जीकर ही उदाहरण प्रस्तुत किया है।आज भी ऐसे कई गणितज्ञ हैं जो मानव जीवन को सुखद बनाने के लिए अपना शोध कार्य करते हैं,अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखते हैं और किसी लोभ-लालच में नहीं फँसते है।
प्रश्न:3.ऋषि किसे कहते हैं? (Who is called a sage?):
उत्तर:जिसने अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध कर लिया हो,जो अच्छे-बुरे,सुख-दुःख,हानि-लाभ,जय-पराजय,पाप-पुण्य आदि द्वैतभाव से ऊपर उठ चुका हो जो स्थिरचित्त हो गया हो और सबके प्रति समभाव रखकर सब कुछ साक्षी भाव से देखता हुआ अनासक्त होकर निष्काम कर्म करता हो और मुक्त भाव में स्थित हो वह ऋषि है और जो ऐसी स्थिति को उपलब्ध होने की साधना कर रहा हो वह साधक (साधु) है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा अनाथ विद्यार्थी और गणितज्ञ (Orphan Student and Mathematician),गणितज्ञ ने अनाथ विद्यार्थी की पीड़ा समझी (Mathematician Understood Orphan Student’s Pain) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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