Menu

Mathematics in India by 15th Century

Contents hide

1.15वीं सदी तक भारत में गणित (Mathematics in India by 15th Century),15वीं सदी तक भारत में गणित और विज्ञान का विकास (Development of Mathematics and Science in India by 15th Century):

  • 15वीं सदी तक भारत में गणित (Mathematics in India by 15th Century) और विज्ञान का विकास पाश्चात्य देशों से किसी भी मायने में कम नहीं था जबकि भारत आध्यात्मिक और धार्मिक प्रधान देश है।
  • आपको यह जानकारी रोचक व ज्ञानवर्धक लगे तो अपने मित्रों के साथ इस गणित के आर्टिकल को शेयर करें।यदि आप इस वेबसाइट पर पहली बार आए हैं तो वेबसाइट को फॉलो करें और ईमेल सब्सक्रिप्शन को भी फॉलो करें।जिससे नए आर्टिकल का नोटिफिकेशन आपको मिल सके।यदि आर्टिकल पसन्द आए तो अपने मित्रों के साथ शेयर और लाईक करें जिससे वे भी लाभ उठाए।आपकी कोई समस्या हो या कोई सुझाव देना चाहते हैं तो कमेंट करके बताएं।इस आर्टिकल को पूरा पढ़ें।

Also Read This Article:Development of Modern Mathematics

2.प्राचीन भारत में गणित का विकास (The Development of Mathematics in Ancient India):

  • धर्म और आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत होने के बावजूद,विज्ञान और प्रौद्योगिकी (science and Technology) के क्षेत्र में भारत की प्रचुर सांस्कृतिक विरासत है।4000 ईसा पूर्व के लगभग ही भारत में पहली ‘तकनीकी’ (Technical) या ‘औद्योगिक’ (Industrial) क्रांति का जन्म हुआ और इसका पहला चरण लगभग 3000 ईसा पूर्व तक पूरा हो गया।लगभग 1000 वर्षों के समय काल में प्रसारित इस क्रांति के मुख्य तकनीकी आविष्कार थे:आग (Fire) की खोज,कृषि और सिंचाई की तकनीकों का विकास,बाढ़ का नियंत्रण,हल और चक्के का विकास आदि।हाल की खोजों से यह स्पष्ट हो गया है कि इस युग में भी सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में भारतवासियों ने पर्याप्त समुन्नत प्रौद्योगिकी विकसित कर ली थी।
  • वैदिक काल में विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के विकास के पर्याप्त संकेत मिलते हैं।इस संदर्भ में यजुर्वेद विशेष महत्त्वपूर्ण है जिसमें स्थान-स्थान पर नक्षत्रों की चर्चा की गई है।चिकित्सकीय दृष्टि से भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है।रुद्र,जिसे वैदिक साहित्य में शक्ति का प्रतिनिधि माना गया है,को यजुर्वेद में पहला दैवीय चिकित्सक माना गया है।(प्रथमो दैवो भिषज) जहां तक व्याधियों का संबंध है,यजुर्वेद में 100 से अधिक प्रकार के यक्ष्मा (T. B.) राजयक्ष्मा सहित,की चर्चा की गई है।
  • वैदिक जनों की गणित की जानकारी उच्चस्तरीय थी।उन्हें गणित की मूल अवधारणाओं तथा प्रारंभिक भिन्न (Elementary Fraction) की पर्याप्त जानकारी थी।इसका अनुमान ऋग्वेद में ‘अर्ध’ (\frac{1}{2}), ‘त्रिपद’ (\frac{3}{4}) जैसे शब्दों के प्रयोग से सहज ही लगाया जा सकता है।वैदिक संहिताओं में 3^{2}+4^{2}=5^{2},5^{2}+12^{2}=13^{2} जैसे गणितीय सूत्रों का प्रयोग यह भी प्रमाणित करता है कि संभवतः यूनानी गणितज्ञ भी अपने गणितीय ज्ञान के लिए कुछ सीमा तक वैदिक गणितज्ञों के ऋणी थे।
  • मुक्त वायुमंडल में यज्ञ वेदी निर्माण करने की आवश्यकता से भारतीयों ने अतिपूर्व ज्यामिति के एक सरल सिद्धांत का विकास कर लिया था।भारतीय गणित की सफलता का मुख्य कारण,पदार्थों अथवा स्थानीय विस्तारों के संख्यात्मक परिणाम से स्पष्ट भिन्न,अमूर्त संख्याओं के विषय में भारतीय विचार की सुबोधता थी।जहाँ यूनानी गणित विज्ञान प्रधान रूप से भू-माप एवं ज्यामिति पर आधारित था,भारतीयों ने इन अवधारणाओं में बहुत पहले ही श्रेष्ठता प्राप्त कर ली थी और साधारण संख्याकन पद्धति की सहायता से प्राथमिक बीजगणित का विकास किया जिसमें यूनानी गणित की अपेक्षा अधिक जटिल घटनाओं की संभावना समाविष्ट थी तथा जिससे उनके निमित्त अंक के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
  • ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में आकर गणित,खगोल विद्या और आयुर्विज्ञान-तीनों का विकास पृथक-पृथक प्रारंभ हुआ।गणित के क्षेत्र में आर्यभट प्रथम,भास्कराचार्य द्वितीय,ब्रह्मगुप्त,महावीर,आर्यभट्ट द्वितीय,श्रीपत,मुंजल,श्रीधर तथा भास्कर द्वितीय का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
  • गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों ने तीन विशिष्ट योगदान किये-अंकन पद्धति,दाशमिक पद्धति और शून्य का प्रयोग।दाशमिक पद्धति के प्रयोग का सबसे पुराना उदाहरण ईसा की पांचवी सदी के प्रारंभ का है।

3.प्राचीन भारतीय गणित का प्रसार (Spread of Ancient Indian Mathematics):

  • भारतीय अंकन पद्धति को अरबों ने अपनाया और इसको पश्चिमी दुनिया में फैलाया।अंग्रेजी में भारतीय अंकों को अरबी अंक (Arabic Numerals) कहते हैं,किंतु अरब लोग स्वयं इसे ‘हिन्दसा’ कहते हैं।पश्चिम में इस अंकमाला का प्रचार होने से सदियों पहले से भारत में इसका प्रयोग हुआ।इसका प्रयोग अशोक के अभिलेखों में पाया जाता है जो ईसा पूर्व तीसरी सदी में लिखे गए।
  • इस विषय में पश्चिमी जगत भारत का चिर ऋणी है।जिन आविष्कारों एवं नवानुसंधानों पर पश्चिमी जगत इतना गर्व करता है,उनमें से अधिकांश गणित के किसी विकसित सिद्धांत के अभाव में असंभव थे और यदि यूरोप रोमन संख्याओं के असंगत सिद्धांत से बँध जाता तो यह भी संभव न होता।यह अज्ञात व्यक्ति जो इस नवीन सिद्धांत का जन्मदाता था,संसार के विचारानुसार महात्मा बुद्ध के पश्चात हुआ था और वह भारत माँ का सबसे महत्त्वपूर्ण पुत्र था।उसकी यह महान सफलता,यद्यपि सरलता के साथ सर्वमान्य हो गई,प्रथम श्रेणी के विश्लेषणात्मक मस्तिष्क की उत्पत्ति थी और जितना समादर उसे आज तक प्राप्त हुआ है,उससे कहीं अधिक का वह अधिकारी था।
  • दाशमिक पद्धति (Decimal system) का प्रयोग सबसे पहले भारतीय गणितज्ञों ने किया।प्रख्यात गणितज्ञ आर्यभट (376-500 ईस्वी) इससे परिचित थे।चीनियों ने यह पद्धति बौद्ध धर्म प्रचारकों से सीखी और अरबों के माध्यम से पश्चिमी जगत को ज्ञात हुई।शून्य (zero) का आविष्कार भारतीयों ने ईसा-पूर्व दूसरी सदी में किया।अरब देशों में शून्य का प्रयोग सबसे पहले 873 ईस्वी में पाया जाता है।अरबों ने इसे भारत से सीखा और यूरोप में फैलाया।ब्रह्मगुप्त (सातवीं शताब्दी),महावीर (9वीं शताब्दी) तथा भास्कर (12वीं शताब्दी) जैसे गणितज्ञों ने कई ऐसी खोजें की जो यूरोप के पुनर्स्थापना काल अथवा उसके बाद तक भी विदित नहीं थी।धनात्मक एवं ऋणात्मक परिणामों के अभिप्राय से वे परिचित थे।उन्होंने वर्गमूल (Square-Root) और घनमूल (Cube-Root) निकालने की ठोस प्रणाली को जन्म दिया और वे वर्ग-समीकरण (Square-Equation) तथा अन्य प्रकार के अनिश्चित समीकरणों का उत्तर निकाल सकते थे।
  • आर्यभट ने (पाई) का वही मूल्य (3.416) दिया जो आधुनिकतम शुद्ध मूल्य है और उसे \frac{63832}{20000}भिन्न में प्रकट किया है।प्रारंभिक गणितज्ञों का विश्वास था \frac{x}{0}=x किंतु भास्कर ने यह सिद्ध किया कि यह असंख्यता है।भारतीय वेदांत ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व जो यह अनुभव किया था कि असंख्य (शून्य) का कितना ही विभाजन किया जाए वह असंख्य (शून्य) ही रहता है,इसे भास्कर ने गणित द्वारा सिद्ध कर दिया और \frac{00}{00}=00... समीकरण द्वारा उसका रूपांकन किया।
  • हड़प्पा में बनी ईंट की इमारतों से प्रकट होता है कि पश्चिमोत्तर भारत में लोगों को मापन और ज्यामिति का अच्छा ज्ञान था।बाद में वैदिक लोगों ने इस ज्ञान से लाभ उठाया होगा,जो ईसा-पूर्व की पांचवी सदी के आस-पास के शूल्व सूत्रों में दिखाई पड़ता है।शूल्व सूत्र कर्मकांडीय ज्यामिति (Ritual Geometry) के सूचक हैं।इनका प्रयोग वैदियों के निर्माण में किया जाता है।इसमें समकोणों वर्गों तथा आयतों की रचना की जाती है और पाइथागोरस का यह सिद्धांत भी कि समकोण त्रिभुज के कर्ण का वर्ग शेष दोनों भुजाओं के वर्ग (Square) के योग के बराबर होता है।आर्यभट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल जानने का नियम निकाला जिसके फलस्वरूप त्रिकोणमिति (Trigonometry) का जन्म हुआ।उत्तरकालीन गणितज्ञों ने ज्या-फलक (sine-table) का अविष्कार करके त्रिकोणमिति में आगे प्रगति की।

4.प्राचीन भारत में विज्ञान का विकास (Development of Science in Ancient India):

  • ज्योतिष (खगोल विज्ञान) वैदिक साहित्य के वेदांगों में से एक था।इस प्राचीन प्रकार की ज्योतिविद्या का मुख्य प्रयोजन समय-समय पर यज्ञों के दिनांक तथा काल का निश्चय करना था।एतद् विषयक विद्यमान साहित्य अपेक्षाकृत बाद का है।वैज्ञानिक ढंग की ज्योतिष विषयक रचनाएं 300 ईस्वी के आसपास लिखी जानी शुरू हुई।ज्योतिष सिद्धांत विषयक मूल-ग्रन्थों में अब केवल एक ‘सूर्य सिद्धांत’ ही प्राप्त होता है।ज्योतिष/खगोल विज्ञान के क्षेत्र में आर्यभट और वराहमिहिर दो उद्भट विद्वान थे।आर्यभट पांचवी सदी में हुए और वराहमिहिर छठी शताब्दी में।आर्यभट को भारतीय खगोल विज्ञान का संस्थापक माना जाता है जिसने सबसे पहले यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि पृथ्वी अपनी अक्ष (धुरी) पर घूमती है।’आर्यभट’ नामक अपने ग्रंथ में आर्यभट ने अनुमान के आधार पर पृथ्वी की परिधि का मान निकला जो आज भी शुद्ध माना जाता है।उन्होंने चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के कारण का भी पता लगाया।
  • आर्यभट के परवर्ती खगोल-शास्त्री वराहमिहिर ने अपने सुविख्यात ग्रंथ ‘वृहत संहिता’ में प्रतिपादित किया कि चंद्रमा पृथ्वी का चक्कर लगाता है और पृथ्वी सूर्य का।ब्रह्मगुप्त (सातवीं शताब्दी) ने अपना ब्रह्मस्फुटिक सिद्धांत लिखा।खगोलशास्त्रियों की इस परंपरा में अंतिम सुविख्यात नाम था भास्कराचार्य (12वीं सदी) का जिसने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ की रचना की।
    समस्त प्राचीन ज्योतिष की भांति भारतीय ज्योतिष भी दूरवीक्षण यंत्र (Telescope) का ज्ञान न होने के कारण सीमित था,परन्तु निरीक्षण की अत्यंत शुद्ध मास सापेक्ष विधियाँ पूर्ण शुद्ध कर ली गई थीं और संख्याओं के दशमलव सिद्धांत के द्वारा गणनाओं को बड़ी सहायता प्रदान की गई थी।
  • जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि औषधीय एवं शारीरिक रचना विज्ञान का अत्यन्त प्रारंभिक स्तर वेदों में दिखाई पड़ता है,परंतु वैज्ञानिक धरातल पर आयुर्विज्ञान का विकास दूसरी शताब्दी ईस्वी में चरक की ‘चरक संहिता’ और सुश्रुत की सुश्रुत संहिता में परिलक्षित होता है।’चरक संहिता’ भारतीय चिकित्साशास्त्र का विश्वकोष है।इसमें ज्वर,कुष्ठ,मिर्गी और यक्ष्मा के अनेक प्रकारों का वर्णन मिलता है।यही नहीं चरक संहिता में भारी संख्या में उन पेड़-पौधों का भी वर्णन है जिनका प्रयोग दवा के रूप में होता था।चरक और सुश्रुत के पश्चात औषधिशास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण लेखक वाग्भट्ट (छठी सदी) हुआ जिसने ‘अष्टांग हृदय’ की रचना की।
  • प्राचीन चिकित्सा शास्त्र के अनुसार बीमारियां,जन्मजात कारकों (congenital Factors),मौसम से बदलाव और शरीर के सूक्ष्म अवयवों में आई विकृतियों का परिणाम होती है।भारतीय चिकित्साशास्त्र का मूल भाव ‘दोष’ की अवधारणा थी।यह माना जाता था कि वात (wind),पित्त (Gall) तथा कफ (Mucus) तीन मूल द्रव्य दोषों के समुचित संतुलन द्वारा स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा जा सकता है।इन दोषों में कतिपय चिकित्साशास्त्रियों ने ‘रक्त’ का एक चौथा दोष भी सम्मिलित कर दिया।तीन प्रारंभिक दोष त्रिगुण व्यवस्था से जुड़े थे और सदाचार वासना तथा जाड्य से उनका संबंध था।
  • ऐसा माना जाता था की शारीरिक क्रियाओं की व्यवस्था ‘पंचवायु’ (Five winds) द्वारा होती है:उदान-इसका जन्म कंठ से होता है और वह वाक् शक्ति को जन्म देती है,प्राण-इसका स्थान हृदय में है।श्वास क्रिया तथा भोजन ग्रहण करना इसका कार्य है; समान-यह पेट की अग्नि को तीव्र करती है।इससे भोजन पचता है और पचनीय एवं अपचनीय भागों में इसका विभाजन होता है; अपान-इसका निवास उदर में होता है और यह मल-स्खलन एवं सृजन का कारण है; तथा वयान-यह एक विच्छिन्न वायु है जो रक्त एवं सारे शरीर को गति प्रदान करती है।प्राचीन भारतीय चिकित्सकों को मस्तिष्क की क्रियाविधि का स्पष्ट ज्ञान नहीं था और अधिकांश प्राचीन जातियों की भाँति उनका विश्वास था कि हृदय बुद्धि का निवास स्थान है,परंतु मेरुदंड (spinal cord) की महत्ता से वे परिचित थे और तंत्रिका तंत्र (Nervous System) के अस्तित्व को समझते थे,यद्यपि इसे वे समुचित रूप से समझ ना पाए थे।शरीर शास्त्र का अपूर्ण ज्ञान होते हुए भी,प्राचीन भारत ने एक प्रयोग सिद्ध शल्य शास्त्र को जन्म दिया और विकसित किया।

5.मध्यकाल में विज्ञान का विकास (Development of Science in Medieval Period):

  • शरीर शास्त्र का अपूर्ण ज्ञान होते हुए भी,जो प्राचीनतम जातियों में ज्ञान की तुलना में किसी प्रकार भी न्यून नहीं था,भारत ने एक प्रयोग सिद्ध शल्य शास्त्र को जन्म दिया और विकसित किया।
  • मध्यकाल (12वीं से 18वीं शताब्दी) में भारत में विज्ञान का विकास दो समानांतर धाराओं के माध्यम से हुआ।पहली धारा के माध्यम से प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक परंपरा आगे बढ़ी,जबकि दूसरी धारा इस्लामी और बाद में यूरोपीय प्रभाव को ग्रहण करते हुए विकसित हुई।खास बात यह रही कि इस युग में कतिपय महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक कृतियों,विशेषतः खगोल शास्त्र तथा औषधि शास्त्र से संबंधित,का संस्कृत से अरबी-फारसी में अथवा अरबी-फारसी से संस्कृत में अनुवाद किया गया।
  • मध्यकाल में खगोल विद्या के अध्ययन को काफी प्रोत्साहित किया जाता था,क्योंकि समय निर्धारित करने,जन्म-कुंडली बनाने और महत्त्वपूर्ण अवसरों पर शुभ घड़ी निश्चित करने में इसकी आवश्यकता पड़ती थी।पूर्व-मध्यकाल में ‘द लाइल-ए-फिरोज’ नाम से खगोल शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया।फिरोज तुगलक के काल में महेंद्र सूरी ने ‘यंत्रज’ की रचना की जिसमें खगोल शास्त्र से संबंधित यंत्रों का वर्णन किया गया।मुल्ला फरीद मनाजम शाहजहाँ के समय के विख्यात खगोलशास्त्रियों में से एक था।उसने नक्षत्रों की एक तालिका बनाई जिसका नाम उसने ‘जिज-ए-शाहजहानी’ रखा।यहां राजा सवाई जयसिंह का नाम भी उल्लेखनीय है।उन्होंने दिल्ली,जयपुर,मथुरा,उज्जैन और वाराणसी में वेधशालाओं (observatories) का निर्माण करवाया।यही नहीं,उन्होंने खगोल विद्या संबंधी मौलिक सिद्धांतों पर ‘जिज-ए-जदीद-ए-मुहम्मद शाही’ नामक ग्रंथ की रचना की।

6.मध्यकाल में गणित का विकास (Development of Mathematics in the Middle Ages):

  • जहाँ तक गणित का प्रश्न है,इस काल के दो गणितज्ञों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:श्रीधर (11वीं सदी) तथा भास्कर (12वीं सदी)।श्रीधर ने ‘गणितसार’ नामक ग्रंथ की रचना की,’गणित सार’ में गुणा,भाग,वर्गमूल (Square Root),भिन्न (Fraction),घन (cube),शून्य (zero),प्राकृतिक संख्याओं (natural numbers),साझेदारी (partnership) तथा ठोस-ज्यामिति का विस्तार से वर्णन है।भास्कर ने ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’ और ‘सिद्धांत शिरोमणि’ की रचना की।’लीलावती’ में अंकन पद्धति (Notation),भिन्न (fraction),व्यावसायिक नियम (commercial Rules),पूर्णांक (Integers),ब्याज (interest),क्रम-परिवर्तन (permutation) आदि से संबंधित विवरण मिलता है।’बीजगणित’ में निर्देशित अंकों (Directed Numbers),नकारात्मक परिणामों (Negative Quantities) तथा सरल एवं युगपत समीकरणों (complex Equations) से संबंधित विवरण मिलता है।’सिद्धांत शिरोमणि’ में गोले या वृत्त (circle) से जुड़े गणितीय मुद्दों पर विचार किया गया है।आगे चलकर ‘लीलावती’ का अनुवाद फैजी द्वारा और ‘बीजगणित’ का अनुवाद अताउल्ला द्वारा फारसी में किया गया।
  • नारायण पंडित की ‘गणित पाली कौमुदी’ (1356 ईस्वी) तथा नयनसखा की ‘उकारभ्य ग्रंथ’ (1731 ईस्वी) भी उल्लेखनीय है।इन दोनों कृतियों की रचना संस्कृत भाषा में की गई।मध्यकाल के अन्य प्रमुख गणितज्ञ थे अर्राक (11वीं सदी),अल्कासी (15वीं सदी),बहाउद्दीन अमूली (16वीं-17वीं शताब्दी)।अनेक प्राचीन ग्रंथों का फारसी में अनुवाद भी किया गया।महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गणित के क्षेत्र में इस काल में कोई नया विकास नहीं हुआ।पहले से ही विद्यमान तकनीकों या अंकन पद्धति का किंचित समुन्नयन ही सम्भव हो सका।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में 15वीं सदी तक भारत में गणित (Mathematics in India by 15th Century),15वीं सदी तक भारत में गणित और विज्ञान का विकास (Development of Mathematics and Science in India by 15th Century) के बारे में बताया गया है।

Also Read This Article:Introduction to Development of Modern Mathematics

7.नए विद्यार्थी की झिझक कैसे दूर हो? (हास्य-व्यंग्य) (How to Overcome Hesitation of New Student?) (Humour-Satire):

  • एक नए विद्यार्थी का विद्यालय में प्रवेश हुआ।वह सवालों को पूछने में झिझक रहा था,कुछ पूछ नहीं रहा था।
  • गणित शिक्षक ने उसकी झिझक दूर करने के लिए कहा कि अपने सहपाठी की नोटबुक से नकल कर लो,शर्म न करो।लेकिन जल्दबाजी में उनके मुंह से निकल पड़ा हां,हां नकल कर लो,नकल कर लो शर्म तो है नहीं।

8.15वीं सदी तक भारत में गणित (Frequently Asked Questions Related to Mathematics in India by 15th Century),15वीं सदी तक भारत में गणित और विज्ञान का विकास (Development of Mathematics and Science in India by 15th Century) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.प्राचीन भारत के प्रमुख गणितज्ञों का उल्लेख करो। (Mention the mathematicians of ancient India):

उत्तर:प्राचीन भारत के प्रमुख गणितज्ञ आर्यभट (प्रथम),ब्रह्मगुप्त,बोधायन,वराहमिहिर,श्रीधर,भास्कराचार्य द्वितीय,महावीराचार्य आदि।

प्रश्न:2.गणित की प्रमुख शाखाएं कौन सी है? (What are the main branches of mathematics?):

उत्तर:गणित की प्रमुख चार शाखाएं हैं:ज्यामिति (ज्योमेट्री),बीजगणित (अलजेब्रा),गणितीय विश्लेषण (मैथमेटिकल एनालिसिस) तथा संख्या सिद्धांत (नंबर थ्योरी)।इसके अतिरिक्त इसे और भी कई छोटी-छोटी शाखाओं में बांटा जा चुका है।विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अतिरिक्त आज इसका उपयोग अर्थशास्त्र,राजनीति शास्त्र,समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान आदि में भी किया जाता है।

प्रश्न:3.गणित का क्या अर्थ है? (What does mathematics mean?):

उत्तर:गणित शब्द बहुत प्राचीन है।इसका शाब्दिक अर्थ है:वह शास्त्र जिसमें गणना की प्रधानता है।मान्यताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि गणित अंक,आधार,चिन्ह आदि संक्षिप्त संकेतों का वह विधान है जिसकी सहायता से परिणाम,दिशा तथा स्थान का बोध होता है।गणित विषय का प्रारंभ गिनती से ही हुआ और संख्या पद्धति इसका विशेष क्षेत्र है जिसकी सहायता से गणित की अन्य शाखाओं का विकास हुआ है।वेदांग शास्त्रों में गणित का स्थान सर्वोच्च है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा 15वीं सदी तक भारत में गणित (Mathematics in India by 15th Century),15वीं सदी तक भारत में गणित और विज्ञान का विकास (Development of Mathematics and Science in India by 15th Century) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
No. Social Media Url
1. Facebook click here
2. you tube click here
3. Instagram click here
4. Linkedin click here
5. Facebook Page click here
6. Twitter click here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *