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Make Effort Along with Self Study

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1.स्वाध्याय के साथ पुरुषार्थ भी करें (Make Effort Along with Self Study),अध्ययन के साथ कर्म भी करें (Do Deeds Along with Study):

  • स्वाध्याय के साथ पुरुषार्थ भी करें (Make Effort Along with Self Study) क्योंकि केवल स्वाध्याय,अध्ययन करने से संगत के साथ रंगत नहीं आती,जीवन जीना नहीं आता।जब तक पढ़ा हुआ,स्वाध्याय किया हुआ अनुभव से नहीं गुजरता तब तक वह जीवन का अंग नहीं बनता।
  • जब कोई बात,पढ़ी हुई,अध्ययन की हुई,पढ़ाया हुआ,रटा हुआ हमारे जीवन में नहीं उतरता,जीवन का अंग नहीं बनता तब तक जीवन को कुशलतापूर्वक नहीं जिया जा सकता है।
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2.सिद्धांत के साथ व्यवहार (Dealing with Theory):

  • अपवादों को यदि छोड़ दें,तो व्यक्ति में रूपांतरण की जो घटना घटती है,उसके दो ही प्रमुख माध्यम हो सकते हैं: स्वाध्याय और सत्संग।स्वाध्याय से सत्प्रेरणा मिलती है और सत्संग से सद्भावना पुष्ट होती है।जब ये आचरण में उतरती है,तो परिवर्तन सामने आता है,एक ऐसा परिवर्तन,जो सतत प्रवहमान रहे,जो मानव को महामानव और समाज को स्वर्ग बना देता है।
  • यह बात सांसारिक जीवन,भौतिक और आध्यात्मिक सभी विषयों पर लागू होती है।सिद्धांत और व्यवहार दो भिन्न बातें हैं।सिद्धांत संभावना प्रकट करता है और उसे साकार करने की विधि प्रक्रिया (व्यवहार) है।प्रथम यदि द्वितीय में परिवर्तित न हो सके,तो थ्योरी सही होते हुए भी अभीष्ट की उपलब्धि न हो सकेगी।पुस्तक और प्रवचन हमें रास्ता दिखाते हैं और संभावना व्यक्त करते हैं कि यदि व्यक्ति को अच्छा वातावरण मिले,तो वह उत्कृष्ट बन सकता है।यह सिद्धांत मात्र है।इसे क्रिया रूप में बदले बिना परिवर्तन शक्य नहीं।क्रिया की प्रतिक्रिया होती है,तो रूपांतरण घटित होता है,फलस्वरूप व्यक्ति एवं समाज का नया रूप सामने आता है।
  • श्रवण और अध्ययन आनंददायक तो होते हैं,पर परिवर्तन में इनकी भूमिका गणितीय सवालों को हल करने वाले सूत्रों जितनी ही होती है।सूत्र केवल संकेत मात्र होते हैं।विद्यार्थियों को इनके आधार पर अपनी अक्ल लगानी पड़ती है,तभी प्रश्न का सही उत्तर मिल पाता है।ऐसे ही स्वाध्याय और सान्निध्य परिवर्तन की अनुकूलता तो उपलब्ध कराते हैं,पर इतना ही पर्याप्त नहीं है।अंतस की हलचल और उथल-पुथल भी अभीष्ट आवश्यक है।जहां इस प्रकार की क्रियाएं नहीं होतीं,वहाँ परिवर्तन की प्रतिक्रिया भी दृष्टिगोचर नहीं होती।
  • एक उदाहरण लेते हैं कि जब एक छात्र-छात्रा से रोजाना,अनेक बार कहा जाए कि तुम्हें गणित में कुछ नहीं आता,तुम गणित के सवाल हल करने में असमर्थ हो,तुम गणित में फिसड्डी हो,तुम्हें कितना ही समझाया जाए परंतु तुम गणित में कामयाब नहीं हो सकते,तुम बुद्धू हो,तुम गए गुजरे हो,गणित में होशियार नहीं हो अतः जिंदगी में कुछ नहीं कर सकते हो।धीरे-धीरे छात्र-छात्रा में गणित के सवालों को हल करने की सामर्थ्य है वह भी नेगेटिव सजेशन देने से समाप्त हो जाती है और एक न एक दिन वह गणित में बिल्कुल ठस बुद्धि का हो जाता है।क्योंकि नेगेटिव सजेशन उसके अवचेतन में अपनी क्रिया प्रारंभ कर देते हैं और उसकी बुद्धि काम करना बंद कर देती है।
  • स्वाध्याय और सत्संग की वे अच्छी बातें अप्रभावी सिर्फ इसलिए सिद्ध होती हैं कि वे अंतराल की गहराई में उतरकर उस बिंदु को नहीं छु पातीं,जो बदलाव उत्पन्न करता है।यदि इस संबंध में अध्येता और श्रोता गंभीर बने रहें और पढ़े अथवा सुने हुए प्रसंग के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न कर सकें कि वे अंदर चलकर सीधे मर्म में आघात करें,तो रूपांतरण तत्क्षण घटित होना आरंभ हो जाएगा।

3.सिद्धांत के साथ व्यवहार की प्रक्रिया (The process of dealing with theory):

  • सिद्धांत व्यवहार का अंग बने इसकी प्रक्रिया दो प्रकार से होती है-एक तो संदेश के प्रति इतना आकर्षण उत्पन्न किया जाए कि वह अंतस्तल में धँसकर बदलाव पैदा कर दें।इसके दूसरे प्रकार में खिंचाव तो होता है,पर उसका चुंबकत्व उतना प्रबल नहीं होता कि वह अवचेतन में आविर्भूत हो सके।
  • ऐसी स्थिति में व्यक्ति को चेतन स्तर पर स्वयं प्रयास आरंभ करना पड़ता है।अपनी वासना और तृष्णा को बलपूर्वक दबाना और जो श्रेष्ठ तथा सुन्दर है,उसे विकसित करना पड़ता है।इतना कर लेने मात्र से ही व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है,उसका भीतरी दैत्य मर जाता है और उसकी जगह देव पैदा होता है।यही क्रांति है।इसे संपादित कर लेने वाला व्यक्ति महान और समाज गुणवान बन जाता है।
  • युवको,तुम महान बनना चाहते हो,तो महानता को अपने भीतर घटित होने दो,श्रेष्ठता को अंतःकरण में प्रवेश पाने दो,हृदय-कपाट को अनावृत्त रखो,ताकि इस संसार में जो कुछ उदात्त और उच्चस्तरीय है,वह तुममें आत्मसात हो सके।याद रखो,मात्र शब्दों को श्रवण तंत्र से सुनभर लेने से विशेष कुछ ना होगा,जो होगा,वह इतना ही कि तुम कष्ट-कठिनाइओं को भूलकर थोड़े समय के लिए शांति के समुद्र में डूब जाओगे,पर स्वयं शाश्वत शांति का सागर न बन सकोगे।वह गहराई और गंभीरता पैदा ना हो सकेगी,जो ये महासागर अपने में संजाए हैं।यह मत भूलो कि आने वाली पीढियों के तुम भाग्य विधाता हो,भविष्य निर्माता हो।उज्जवल भविष्य का निर्माण वही कर सकता है,जो आत्मनिर्माण कर चुका हो।अतः इस व्याख्यान को अपने में उतर जाने दो,सिर्फ शब्दों से नहीं,वाक्यों से नहीं,वरन भावों और क्रियाओं से।
  • सचमुच शब्द और संदेश जब तक कार्य रूप में न परिणत ना हो जाएँ,कर्त्ता के लिए निरर्थक और निरुद्देश्य हैं।सार्थक वे तभी बनते हैं,जब आचरण में उतरें और दूसरों को अनुकरणीय प्रेरणा दें,अन्यथा बुद्धि-विलास मात्र बनकर रह जाएंगे।किसी ने कहीं कोई अच्छी बात सुनी या पढ़ी,तो उसे वह बुद्धि में,मस्तिष्क में कैद कर लेता है और दूसरों को सुनाता रहता है।फिर वह क्रिया न बनाकर ज्ञान का,अध्ययन का,श्रवण का,स्मरण का विषय बन जाता है।इसका ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग यही हो सकता है कि उसे हम वाणी बना लेते हैं,जबकि जीवन बनाना चाहिए और अच्छाई यदि जीवन न बनी,तो अच्छी बातें पढ़ने-सुनने का कोई अर्थ और उद्देश्य नहीं रह जाता।
  • अतः उत्तम बातों के प्रति रुचि जगाओ,उत्कंठा बढ़ाओ,उन्हें सुनो और सुनाओ,पर यहीं मत रुक जाओ।इतना पर्याप्त नहीं है।यह विचार मात्र है।इससे आगे का चरण अनुभव है।विचार से अनुभव की ओर यात्रा करके ही जानकारी को जीवन बनाया जा सकता है,उसे जिया जा सकता है।जहां जानकारी जीवन बन जाती है,वहीं श्रेष्ठता घटित होती है और रूपांतरण का प्रवर्तन होता है।इन दिनों चूँकि चिंतन से अनुभूति की ओर का प्रयाण मनुष्य में रुका हुआ है,इसलिए प्रत्यक्ष में स्वाध्याय और सत्संग की नियमित दिनचर्या दिखलाई पड़ने पर भी उनकी वह परिणति सामने नहीं आती,जो आनी चाहिए।

4.ग्रहणशील हृदय का अभाव (Lack of receptive heart):

  • दुनिया में अच्छी बातों और विचारों का अभाव है,सो बात नहीं।अभाव है,तो मात्र ग्रहणशील हृदय का।सुग्राहक मन यदि आदमी के पास हो,तो बुराई में भी अच्छाई ढूंढी और आत्मसात की जा सकती है,किंतु जहां हृदयगंम करने वाली गहराई ही ना हो,वहां लाख प्रवचन सुनने और पारायण करने की प्रवृत्ति मनोरंजन जितना उथला प्रयोजन ही पूरा करती है।ऐसी दशा में साधारणजन अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए अनेक प्रकार के बहाने गढ़ते और तर्क देते हैं।कहते हैं कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के अभाव में ही सर्वसाधारण पर उसका प्रभाव नहीं पड़ सका।यह सच है कि उत्कृष्ट व्यक्तित्व का अपना पृथक प्रभाव होता है,पर बात यदि श्रेष्ठ है,तो वह कोई भी कहे,उसे अपनाने में अनख क्यों?
  • इससे क्या फर्क पड़ता है कि कहने वाला निपट निरक्षर है या कोई ज्ञानी-विद्वान।अच्छाई कहीं से भी मिले,वह ग्रहण योग्य है,पर ऐसा होता नहीं है और इसका संपूर्ण दोष अपनी मनस्विता को न देकर वक्ता की ओर उछाल दिया जाता है।यह कैसी विडंबना है? यह तो ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ वाली लोकोक्ति जैसी बात हुई।सच्चाई तो यह है कि मनस्वी व्यक्ति ही स्वयं को बदल पाने और महानता की ओर ले जाने में सफल होते हैं।शेष अमनस्वी समुदाय के लिए सान्निध्य-श्रवण सुनने और भूलने से बढ़कर और कुछ भी नहीं है।इस प्रकार लंबे समय का उनका ज्ञान-ग्रहण बेकार चला जाता है।
  • इससे स्पष्ट है कि ग्रहण करने की अभीप्सा की अनुपस्थिति और ग्राह्य के प्रति उपेक्षा भाव ही वे कारण हैं,जो ज्ञान को व्यवहार में नहीं उतरने देते।जब पशु-पक्षियों से शिक्षा ग्रहण कर दत्तात्रेय अनुपलब्ध की उपलब्धि कर सकते हैं,तो मनुष्य द्वारा बतलाई गई उत्तम बात को धारण करने में किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? यह समझ से परे हैं।
  • विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि यदि लोहे को सोना और सीसे को चांदी बनाना हो,तो एक ही कार्य करना पड़ेगा,उनकी परमाणु-संख्या को परिवर्तित करना पड़ेगा।किसी प्रकार लोहे और सीसे को क्रमशः सोने और चांदी वाली परमाणु संख्या प्रदान की जा सके,तो उनका रूपांतरण संभव है,पर यह सब कैसे किया जाए? इसकी प्रक्रिया उनके हाथ भी नहीं लगी है।
  • उनने मात्र अभी सिद्धांत दिया है,किंतु केवल सिद्धांत से बदलाव संभव नहीं।इसके लिए प्रक्रिया का होना नितांत आवश्यक है।व्यक्तित्व निर्माण में पुस्तकों और प्रवचनों की ऐसी भूमिका है।वे मार्गदर्शन भर करते हैं।उनके आधार पर पुरुषार्थ स्वयं करना पड़ता है।यह प्रक्रिया है।प्रक्रिया यदि अप्रतिहत चल पड़े,तो साधारण से असाधारण बन जाना कठिन नहीं।फिर समाज को स्वर्ग बनते देर न लगेगी।

5.गणित के छात्र-छात्राओं के लिए (For Mathematics Students):

  • गणित विषय को पढ़ते समय भी अधिकतर छात्र-छात्राएं और अध्यापक यही भूल करते हैं।गणित की थ्योरी,सूत्रों,प्रमेयों आदि का अध्ययन करेंगे,अधिक से अधिक अध्ययन करेंगे परंतु उसका व्यावहारिक अभ्यास नहीं करते हैं।कई छात्र-छात्राएं तो पिछले वर्षों के सॉल्वड पेपर्स से सवालों के हल रट लेंगे।इस आधार पर वे उत्तीर्ण भी हो जाते हैं।परंतु केवल डिग्री मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है।जब उनसे छोटी कक्षाओं के सवालों के हल पूछा जाता है तो वे बगले झांकने लगते हैं।कारण थ्योरी पढ़कर सवालों को हल करने का अभ्यास नहीं किया।
  • नोट्स अध्यापक जी लिखा देते हैं,सवाल अध्यापक जी हल करवा देते हैं।यदि उनसे पूछा जाए कि तुमने स्वयं क्या किया? तो टका-सा जवाब होता है कि इसमें मुझे क्या करने की जरूरत है।सब कुछ अध्यापक जी ने करवा दिया,सब कुछ पासबुक और मॉडल पेपर्स,सॉल्वड पेपर्स में है तो मुझे कुछ भी करने की कहां जरूरत रह गई है।
  • उपर्युक्त माध्यमों से (पुस्तकों,साॅल्वड पेपर्स व अध्यापक आदि) गणित का सैद्धांतिक ज्ञान ही प्राप्त होता है।परंतु जब तक छात्र-छात्रा स्वयं सवालों और समस्याओं को हल नहीं करेगा,जटिल समस्याओं को हल करने के लिए नई जूझेगा तब तक गणित में पारंगत होना संभव नहीं है।जो छात्र-छात्रा इस रहस्य को जानता है वे अधिक से अधिक गणित की प्रॉब्लम्स स्वयं हल करने का प्रयास करते हैं,उनको हल करते हैं,हल नहीं होते हैं तो उनसे जूझते हैं,बार-बार अभ्यास करते हैं।शिक्षकों,पुस्तकों,सॉल्वड पेपर्स का सहारा तभी लेते हैं जब बहुत प्रयास करने पर भी सवाल एवं समस्याएँ हल नहीं होती हैं।
  • कई गणित के छात्र-छात्राओं की आदत होती है कि वे कठिन और जटिल लगने वाले सवालों और समस्याओं को हल नहीं होती है तो छोड़ देते हैं।उनका एक ही मंत्र होता है कि गणित में उत्तीर्ण ही तो होना है।यह उत्तीर्ण होने की मानसिकता ही उन्हें कमजोर बना देती है।जीवन के हर क्षेत्र में फिर वे इसी मंत्र का सहारा लेते हैं कि जिंदगी को किसी तरह काटना,गुजारना ही तो है।कोई भी समस्या खड़ी होती है तो उससे जूझते नहीं,उसे हल नहीं करते हैं।वे सिद्धांत और व्यवहार का गणित ही नहीं समझते।ऐसी स्थिति में जीवन उनके लिए भारस्वरूप बन जाता है।जिंदगी में या गणित विषय में कठिनाइयां,समस्याएं हमारी कमजोरियों को दूर करने के लिए आती हैं,यदि हम उनसे दूर भागते हैं,उन्हें हल करने की कोशिश नहीं करते हैं तो हमारा व्यक्तित्व निखरता नहीं है,हमारा व्यक्तित्व लुंज-पुंज और भोंथरा हो जाता है।संसाधनों,साधनों से सहायता लेना तभी सार्थक होता है जब हम जुझारू हों,संघर्षशील हों।अन्यथा संसाधन व साधन-सुविधाएँ हमारी कोई मदद नहीं कर सकते हैं,जब तक उनका सदुपयोग करने की कला अपने अंदर विकसित नहीं करते हैं।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में स्वाध्याय के साथ पुरुषार्थ भी करें (Make Effort Along with Self Study),अध्ययन के साथ कर्म भी करें (Do Deeds Along with Study) के बारे में बताया गया है।

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6.छात्राओं के कक्ष में छात्र का प्रवेश (हास्य-व्यंग्य) (Student Enter in Girls Room) (Humour-Satire):

  • एक बार एक छात्र को पढ़ना था और वह किताबें लेकर गर्ल्स स्कूल में चला गया तो अंदर खड़ी गणित शिक्षिका ने कहा क्यों दिखाई नहीं दे रहा है क्या,गर्ल्स की कक्षा है।
  • छात्र:अरे माफ कीजिए,हमने सोचा (ड्रेस देखकर) कि आप मर्द हैं।

7.स्वाध्याय के साथ पुरुषार्थ भी करें (Frequently Asked Questions Related to Make Effort Along with Self Study),अध्ययन के साथ कर्म भी करें (Do Deeds Along with Study) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.सिद्धांत और व्यवहार में किसे प्राथमिकता दें? (Who should be preferred in theory and practice?):

उत्तर:सिद्धांत और व्यवहार में,विचारों और क्रियाओं में संतुलन होना आवश्यक है।जब यह संतुलन बिगड़ जाता है तब मनुष्य का मानसिक संतुलन भी सुरक्षित नहीं रह पाता।ऐसा व्यक्ति या विद्यार्थी अपनी कमजोरियों का दोष दूसरों पर मढ़कर मन ही मन एक द्वेष उत्पन्न कर लेता है।दूसरों का तो कोई दोष होता नहीं।अस्तु उससे खुलकर न कह पाने के कारण मन ही मन जलता,भुनता और कुढ़ता रहता है।इस प्रकार की कुंठापूर्ण जिंदगी उसके लिए एक दुःखद समस्या बन जाती है।अपने सपने को पूरा नहीं कर पाता,यथार्थता से लड़ने की ताकत नहीं रहती और दूसरों का कुछ बिगाड़ नहीं पाता ऐसी स्थिति में जीवन का बोझा ढोने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं रहता।

प्रश्न:2.संतुलित विचारधारा का क्या लाभ है? (What is the use of balanced thinking?):

उत्तर:भावना,विचारों और कर्म में समन्वय रखने वाले जीवन को सार्थक बनाकर सराहनीय श्रेय प्राप्त करते हैं।जीवन में कर्म को प्रधानता देने वाले व्यक्ति योजनाएं कम बनाते हैं और काम अधिक किया करते हैं।इन्हें व्यर्थ-विचारधारा को विस्तृत करने का अवकाश ही नहीं होता।एक विचार के पुष्ट होते ही,वे उसे एक लक्ष्य की तरह स्थापित करके क्रियाशील हो उठते हैं और जब तक उसकी प्राप्ति नहीं कर लेते,किसी दूसरे विचार को स्थान नहीं देते।

प्रश्न:3.जीवन जीने की कला से क्या आशय है? (What do you mean by the art of living?):

उत्तर:जीवन को बाहरी साधनों से सज्जित करना कला नहीं है।यह तो ऐसी मानसिक वृत्ति है जिसके आधार पर साधनों की कमी में भी जिंदगी को खूबसूरती के साथ जिया जा सकता है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा स्वाध्याय के साथ पुरुषार्थ भी करें (Make Effort Along with Self Study),अध्ययन के साथ कर्म भी करें (Do Deeds Along with Study) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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