Knowledge as a Means of Salvation
1.ज्ञानयोग (Knowledge as a Means of Salvation),श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानयोग का संदेश क्या है? (What is Message of Liberation of Soul in Srimad Bhagavad Gita?):
- ज्ञानयोग (Knowledge as a Means of Salvation) को शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने निवृत्ति मूलक माना हैं।वस्तुतः गीता में कर्म का त्याग का संदेश नहीं है बल्कि कर्मफल में आसक्ति के त्याग का संदेश देती है।गीता में दो प्रकार के ज्ञान की चर्चा है।
- वे हैं तार्किक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान।तार्किक ज्ञान वस्तुओं के बाह्य रूप को देखकर उनके स्वरूप की चर्चा बुद्धि के द्वारा करती है।आध्यात्मिक ज्ञान वस्तुओं के आभास में व्याप्त सत्यता का निरूपण का प्रयास करती है।बौद्धिक तथा तार्किक ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहा जाता है जबकि आध्यात्मिक ज्ञान को ‘ज्ञान’ कहा जाता है।तार्किक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत रहता है परंतु आध्यात्मिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत नष्ट हो जाता है।ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन से होने वाला आत्मा का ज्ञान है।
- (1.)जो व्यक्ति चाहता है कि उसे शरीर,मन और इन्द्रियों को शुद्ध रखना (Purification) नितान्त आवश्यक है।इन्द्रियाँ और मन स्वभावतः चंचल होते हैं जिसके फलस्वरूप वे विषयों के प्रति आसक्त हो जाते हैं।इसका परिणाम यह होता है कि मन दूषित हो जाता है,कर्मों के कारण अशुद्ध हो जाता है।यदि मन और इन्द्रियों को शुद्ध नहीं किया जाए तो साधक भगवान से मिलने में वंचित हो जा सकता है क्योंकि भगवान अशुद्ध वस्तुओं को स्वीकार नहीं करता।
- (2.)मन और इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर भगवान पर केंद्रीतभूत कर देना भी आवश्यक माना जाता है।इस क्रिया का फल यह होता है कि मन की चंचलता नष्ट हो जाती है और वह भगवान के अनुशीलन में व्यस्त हो जाता है।
- (3.)जब साधक को ज्ञान हो जाता है तब आत्मा और भगवान में तादात्म्य का संबंध हो जाता है।वह समझने लगता है कि आत्मा भगवान का अंश है।इस प्रकार की तादात्म्यता का ज्ञान इस प्रणाली का तीसरा अंग है।
- गीता में ज्ञान को पुष्ट करने के लिए योगाभ्यास का आदेश दिया गया है फिर भी वह योग के भयानक परिणामों के प्रति जागरूक रहती है।ज्ञान को अपनाने के लिए इन्द्रियों के उन्मूलन का आदेश दिया गया है।
- आपको यह जानकारी रोचक व ज्ञानवर्धक लगे तो अपने मित्रों के साथ इस गणित के आर्टिकल को शेयर करें।यदि आप इस वेबसाइट पर पहली बार आए हैं तो वेबसाइट को फॉलो करें और ईमेल सब्सक्रिप्शन को भी फॉलो करें।जिससे नए आर्टिकल का नोटिफिकेशन आपको मिल सके । यदि आर्टिकल पसन्द आए तो अपने मित्रों के साथ शेयर और लाईक करें जिससे वे भी लाभ उठाए । आपकी कोई समस्या हो या कोई सुझाव देना चाहते हैं तो कमेंट करके बताएं।इस आर्टिकल को पूरा पढ़ें।
Also Read This Article:Anything Done for Its Own Sake Without Concern for the Result
2.गीता में ज्ञानयोग (Liberation of Soul in Gita):
- ज्ञानयोग भगवान से सम्बन्ध स्थापित करने का आध्यात्मिक मार्ग है।ज्ञानमार्ग के द्वारा भी जीव और शिव का,आत्मा और परमात्मा का संबंध हो सकता है।यह सम्बन्ध परमात्मा से तादात्म्य या एकीकरण है।ज्ञानयोगी आत्मरूप को परमात्मा का स्वरूप समझता है,वह परमात्मा से भिन्न नहीं वरन् अभिन्न है।यही तादात्म्य भाव है।ज्ञानयोगी के लिए सृष्टि भगवद्मय है,भगवान ही है।सृष्टि और सृष्टा में कोई भेद नहीं है।जगत परमात्मा का ही स्वरूप है।परमात्मा से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं।भेद मिथ्या दृष्टि है,अभेद यथार्थ दृष्टि है।भेद देखने वाला अज्ञानी है और अभेद देखने वाला ही ज्ञानी है।ज्ञानयोग की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
- (1.)यह संपूर्ण दृश्यमान जगत परमात्मा का स्वरुप है,परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है।
- (2.)दृश्यमान जगत् मिथ्या है।यह कार्य है,विकार है।इसका कारण ब्रह्म ही सत् है।
- (3.)इस मिथ्या जगत में ज्ञानी के लिए कोई कार्य नहीं है।ब्रह्मज्ञान में सभी कार्यों का अंत है।ब्रह्मज्ञानी को कुछ पाना नहीं रहता है,अतः वह कोई कर्म नहीं करता।
- (4.)ज्ञानी की दृष्टि में समता होती है।वह सबको ब्रह्मरूप,एकरूप समझता है।प्राणीमात्र से वह अभेद दर्शन करता है।
ज्ञान योग की सबसे बड़ी विशेषता समत्व योग है।भगवान कृष्ण ने इस समत्व योग को बार-बार दुहराया है।समत्व योग के तीन स्वरूपों का वर्णन गीता में किया गया है:आत्मगत समत्व,वस्तुगत समत्व और गुणातीत समत्व।
3.गीता में समत्व योग (Samatva Yoga in Gita):
- (1.)आत्मगत समत्व:इसे गीता में स्थितप्रज्ञ भी कहा गया है।स्थितप्रज्ञ गीता का अपना शब्द है।यह वेद,उपनिषद आदि में नहीं पाया जाता।यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शब्द है।इस स्थितप्रज्ञ का अर्थ है कि जिसकी बुद्धि स्थिर हो गयी हो।स्थितप्रज्ञ के अग्रलिखित तीन लक्षण गीता में बतलाए गए हैं।
- (i)वह मन में रही हुई सभी कामनाओं और वासनाओं को सब प्रकार से छोड़ देता है।
- (ii)वह परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है।
- (iii)वह दुःख से उद्विग्न (परेशान) नहीं होता तथा सुख की सर्वथा लालसा नहीं करता।
यह तीसरा लक्षण स्थितप्रज्ञ का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण है।दुःख में व्याकुल न होना और सुख की मन में लालसा न रखना साधारण मनुष्य के लिए यह सम्भव नहीं।जिसकी बुद्धि स्थिर हो गई है,वही दुःख में व्याकुल नहीं होता और सुख की लालसा नहीं करता।उसके मन में राग,भय,क्रोध आदि नहीं रहते।वह किसी से घृणा नहीं करता,किसी के प्रति अपने मन में द्वेष नहीं रखता।यह तभी संभव है जब मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाय अर्थात् उसे समत्व योग प्राप्त हो जाय। - (2.)वस्तुगत समत्व:अच्छे-बुरे,मित्र-शत्रु में समभाव रखना ही वस्तुगत समत्व है।जिसकी दृष्टि में समता है उसका कोई शत्रु नहीं है।संपूर्ण संसार को ही वह अपना परिवार समझता है।वह तृष्णा,क्रोध,भय से मुक्त होता है।
- (3.)गुणातीत समत्व:यह सुख-दुःख के परे की अवस्था है।भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि जो सुख और दुःख को एक-सा मानता है वही धीर है।शीत और उष्ण जिसे विचलित नहीं करते वही अमरत्व का अधिकारी है।इसी आशय से भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सुख-दुःख,लाभ-हानि को समान समझकर युद्ध करने का आदेश दिया।सच्चे योगी को सुख से प्रसन्न तथा दुःख से दुःखी नहीं होना चाहिए।वह उपलब्धि और अनुपलब्धि में समभाव से रहता है।उसके लिए मिट्टी और सोने (स्वर्ण),अनुकूल और प्रतिकूल,निंदा और स्तुति,मान और अपमान,शत्रु और मित्र समान होते हैं।यही गुणातीत समत्व है।
4.ज्ञानयोग का स्वरूप (Nature of Liberation of Soul):
- संसार को असार तथा आत्मा को परमात्मा का स्वरूप समझना ही ज्ञानयोग का स्वरूप है।ज्ञानी के लिए जो भी दृश्य है वह माया है,मृगतृष्णा है,स्वप्न की सृष्टि है।यथार्थ में सच्चिदानन्द ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं,जो कुछ है वह ब्रह्म ही है।ब्रह्म एक है,शुद्ध ज्ञान स्वरूप है।संसार का नानात्व मिथ्या है,एकत्व ही सत् है।ब्रह्म ही आत्मा है या आत्मा ही ब्रह्म है।संसार में सब कुछ आत्मरूप है,ब्रह्म स्वरुप है।यह एकत्व-दर्शन ज्ञानयोग का स्वरूप है।इस स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उपनिषद में कहा गया है कि तू स्त्री है,पुरुष है,तू ही कुमार या कुमारी है,तू ही वृद्ध होकर दण्ड के सहारे चलता है तथा तू ही (प्रपंच रूप में) उत्पन्न होने पर अनेक रूप हो जाता है।
- इसी एकात्म दृष्टि का प्रतिपादन गीता के ज्ञानयोग में किया गया है।ज्ञानी आत्मा को ही सब भूतों में स्थित देखता है तथा सब भूतों को आत्मा में स्थित देखता है।एक अद्वितीय,सच्चिदानन्दघन,परब्रह्म परमात्मा ही सत् तत्त्व है,परमात्मा से भिन्न संपूर्ण जगत मिथ्या है।इस अभिन्न भाव से स्थित हो संपूर्ण आत्मा में एक अद्वितीय आत्मा (ब्रह्म) को ही देखता है तथा समस्त चराचर जगत को आत्मा में स्थित देखता है।ऐसे ब्रह्मभूत योगी को ही ‘योगयुक्तात्मा’ या ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ कहा गया है।ब्रह्मभूत होने के कारण उसे हमारी सृष्टि ब्रह्ममय दिखलाई देती है,वासुदेव की सत्ता ही सारी वसुधा में व्याप्त है।
- भगवान कहते हैं कि जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मस्वरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है,उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह भी मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।तात्पर्य है कि जैसे बादल में आकाश और आकाश में बादल है,वैसे ही संपूर्ण भूतों में भगवान वासुदेव हैं और वासुदेव में संपूर्ण भूत हैं।जैसे आकाश बादलों के सभी अंशों से परिपूर्ण है अर्थात् व्याप्त है,वैसे ही परमेश्वर समस्त चराचर जगत् में व्याप्त है।अर्थात् मुझ अव्यक्त मूर्ति परमात्मा से यह सारा जगत व्याप्त है।
5.गीता में ज्ञानयोगी (Well Informed Person in Gita):
- गीता में ज्ञानयोगी को समदर्शी कहा गया है।ज्ञान के कारण वह संपूर्ण चराचर प्राणी को समभाव से देखता है।उसमें कभी विषमभाव नहीं उत्पन्न होता है।गीता में कहा गया कि ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में,गौ में,हाथी में,कुत्ते में और चांडाल में समदर्शी होते हैं।
- तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञानी का विषमभाव सर्वथा नष्ट हो जाता है।उसकी दृष्टि में एक सच्चिदानंदघन परमात्मा की सत्ता है,अतः उसकी दृष्टि में सर्वत्र समभाव हो जाता है।उदाहरणार्थःज्ञानी के लिए मनुष्यों में,उत्तम से उत्तम ब्राह्मण,नीच से नीच चाण्डाल,पशुओं में उत्तम गौ,मध्यम हाथी और नीच से नीच कुत्ते में कोई भेद नहीं क्योंकि तत्त्वज्ञानी सबको ब्रह्म स्वरूप या आत्मस्वरूप मानता है।ब्राह्मण और चांडाल में व्यावहारिक दृष्टि से भेद है परंतु पारमार्थिक दृष्टि (आत्म दृष्टि) से अभेद है।इसी दृष्टि से भगवान कहते हैं कि जिस क्षण पुरुष भूतों में पृथक भावों की एक परमात्मा में ही स्थिति तथा उस परमात्मा से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है,उसी क्षण वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।संक्षेप में गीता में ज्ञानयोग के मुख्य तीन स्वरूप बताए गए हैं:
- (1.)सारी सृष्टि ब्रह्ममय है,चराचर जगत का प्रत्येक पदार्थ परमात्मा स्वरूप है।समस्त चराचर भूतों के बाहर-भीतर एक मात्र परमात्मा ही है।
- (2.)जो दृश्यमान है,वह माया है,क्षणिक है,विनाशी है।यथार्थ में केवल एकमात्र ब्रह्म की ही सत्ता है।इस प्रकार के भाव से परमात्मा में तद्रूप हो जाना ही एकीभाव की स्थिति है।
- (3.)प्रतीयमान विश्व ब्रह्म है।ब्रह्म ही आत्मा है,अतः संपूर्ण विश्व आत्मरूप है।चर-अचर सब ब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं हूँ,इसीलिए सब मेरा ही स्वरूप है।इस भाव के उदय होने से मनुष्य आत्म दृष्टा हो जाता है।
6.ज्ञानचक्षु से यथार्थ ज्ञान का दृष्टान्त (An Illustration of the Wisdom of the Truth from the Inner Perception):
- एक शिष्य ने गुरु से जिज्ञासा प्रकट की।हे गुरुदेव! मनुष्य स्वर्ग और नर्क में कैसे जाता है? गुरु ने कहा कि मनुष्य स्वर्ग और नरक इसी पृथ्वी पर भोगता है।परन्तु शिष्य का समाधान नहीं हुआ।अतः गुरुजी शिष्य को लेकर नगर भ्रमण के लिए निकल पड़े।एक व्यक्ति भौतिक सुख-साधनों का भोग करता था,कामासक्त था।परंतु भौतिक सुख-साधनों का भोग करके,कामुक प्रवृत्ति का होने के कारण असंतुष्ट,बेचैन और दुःखी था।इस दुःख व तनाव को दूर करने के लिए वह शराब पीता था परंतु फिर भी सुखी नहीं था।
- गुरुजी आगे बढ़े तो लोभी व्यक्ति मिला।लोभी व्यक्ति अपने-पराए में फर्क नहीं करता है।अतः उस व्यक्ति के घर-परिवार,मित्र व स्वजन धिक्कार रहे थे,निंदा कर रहे थे परंतु फिर भी वह धन बटोरने में लगा हुआ था।
- गुरु-शिष्य आगे बढ़े तो एक व्यक्ति ऐसा मिला जो दुःखी-पीड़ितों की सहायता-सहयोग कर रहा था।उसे सहायता-सहयोग व दूसरों के कष्टों को दूर करने में असीम आनन्द की प्राप्ति हो रही थी।
- तब गुरु बोले पहले दो व्यक्ति नर्कमय जीवन भुगत रहे हैं और यह तीसरा व्यक्ति स्वर्गमय जीवन व्यतीत कर रहा है।शिष्य के ज्ञान चक्षु खुल गए।
- कुछ लोग साक्षात् नरक यहीं भोगते हैं,सब कुछ होते हुए भी दुःखी रहते हैं।न स्वयं सुख से रहते हैं और न दूसरों को सुख से रहने देते हैं।जबकि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों के कष्टों,पीड़ाओं का निवारण करते हैं।स्वयं भी संतुष्ट रहते हैं और दूसरों का भी भला करते रहते हैं।
- शिष्य प्रत्यक्ष नेत्रों से तीनों दृश्य देखकर समझ गया,उसके अज्ञान का पर्दा हट गया।उसने गुरुजी से मुक्ति का उपाय पूछा और उस रास्ते पर चल पड़ा।
- उपर्युक्त आर्टिकल में ज्ञानयोग (Knowledge as a Means of Salvation),श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानयोग का संदेश क्या है? (What is Message of Liberation of Soul in Srimad Bhagavad Gita?) के बारे में बताया गया है।
Also Read This Article:What is Karma Yoga in Bhagavad Gita?
7.ज्यामिति के घन का निर्माण (हास्य-व्यंग्य) (Creation of a Cube of Geometry) (Humour-Satire):
- मिंकी:माँ,मैंने स्कूल में कमरा (ज्यामिति के घन का निर्माण) बनाया।
- माँ (मजाक में):अच्छा,कमरे की दीवारें तो नहीं गिरी।
- मिंकी:नहीं क्योंकि मैंने दीवारों का निर्माण तो किया ही नहीं था।
8.ज्ञानयोग (Frequently Asked Questions Related to Knowledge as a Means of Salvation),श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानयोग का संदेश क्या है? (What is Message of Liberation of Soul in Srimad Bhagavad Gita?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.ज्ञान के कितने स्तर होते हैं? (How Many Levels of Wisdom are There?:
उत्तर:ज्ञान के तीन तीन स्तर हैं:दृष्टि,तर्क और प्रज्ञा।दृष्टि साधारण कामचलाऊ ज्ञान है।इसे व्यावहारिक ज्ञान भी कहा जा सकता है।हमारे दिन-प्रतिदिन का कार्य या व्यवहार दृष्टि से ही चलता है।तर्क दार्शनिक या वैज्ञानिक ज्ञान है।इसके द्वारा हम शास्त्र चिन्तन,विचार या विमर्श करते हैं।यह साधारण स्तर से ऊपर का ज्ञान है।इसे सविकल्प ज्ञान भी कहा जाता है क्योंकि हमारी तार्किक बुद्धि सदा विकल्पों में विचार करती है।प्रज्ञा पूर्ण ज्ञान है।अनुभव व बोध के साथ कोई जानकारी प्राप्त होती है तो वह प्रज्ञा होती है।इसे निर्विकल्प ज्ञान भी कहते हैं।इसके द्वारा हमें तत्त्व का बोध होता है।तत्त्व के यथार्थ बोध के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं।तर्क तो बौद्धिक प्रपंच है,तत्त्व सभी प्रपंचों के परे है।यही बोधि या प्रज्ञा है।
प्रश्न:2.क्या ज्ञान से पूर्णता आ सकती है? (Can Wisdom Lead to Perfection?):
उत्तर:सांख्यशास्त्र में कहा गया है कि ‘ऋते ज्ञानान्न मुक्ति’ अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती है। ज्ञान के बिना मुक्ति मिलना तो बहुत दूर की बात है ज्ञान के बिना तो हम ठीक से सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन भी नहीं कर सकते हैं।परंतु ज्ञान के साथ कर्म और भक्ति होती है तभी व्यक्ति में पूर्णता आती है। कर्म से तात्पर्य है श्रमशीलता,ज्ञान अर्थात् सही-गलत का ज्ञान (विवेक),भक्ति अर्थात् भाव (प्रेम) का उदय होने से व्यक्ति में पूर्णता आती है।
प्रश्न:3.भगवत प्राप्ति कैसे संभव है? (How Can One Attain God?):
उत्तर:जो व्यक्ति कर्म के द्वारा भगवद प्राप्ति करना चाहते हैं उनके लिए शुभ है।जो भगवान को ज्ञान के द्वारा अपनाना चाहते हैं उसके लिए प्रकाश है।जो भावना से अपनाना चाहते हैं उनके लिए प्रेम है।इस प्रकार तीन मार्गों से लक्ष्य भगवान से मिलन को अपनाया जा सकता है।जिस प्रकार विभिन्न रास्तों से एक लक्ष्य पर पहुंचा जा सकता है उसी प्रकार विभिन्न मार्गों से भगवान की प्राप्ति संभव है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा ज्ञानयोग (Knowledge as a Means of Salvation),श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानयोग का संदेश क्या है? (What is Message of Liberation of Soul in Srimad Bhagavad Gita?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
No. | Social Media | Url |
---|---|---|
1. | click here | |
2. | you tube | click here |
3. | click here | |
4. | click here | |
5. | Facebook Page | click here |
6. | click here |
Related Posts
About Author
Satyam
About my self I am owner of Mathematics Satyam website.I am satya narain kumawat from manoharpur district-jaipur (Rajasthan) India pin code-303104.My qualification -B.SC. B.ed. I have read about m.sc. books,psychology,philosophy,spiritual, vedic,religious,yoga,health and different many knowledgeable books.I have about 15 years teaching experience upto M.sc. ,M.com.,English and science.