Importance of Sacrifice for Students
1.छात्र-छात्राओं के लिए त्याग का महत्त्व (Importance of Sacrifice for Students),वास्तविक त्याग का क्या महत्त्व है? (What is Significance of Real Sacrifice?):
- छात्र-छात्राओं के लिए त्याग का महत्त्व (Importance of Sacrifice for Students) है।इस संसार में कोई भी वस्तु बिना त्याग के प्राप्त नहीं होती है।चाहे आप विद्या का अर्जन करें,पुस्तकें खरीदें,ट्यूशन करें,कोचिंग में पढ़ने जाएं।यदि आप फ्री में कुछ हासिल करते हैं तो किसी न किसी रूप में,कहीं ना कहीं,कभी ना कभी उसका भुगतान करना पड़ता है।
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2.त्याग का अर्थ व महत्त्व (Meaning and Importance of Renunciation):
- गांधी जी ने कहा था कि त्याग को किसी प्रकार का प्रदर्शन या महत्त्व प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि त्याग सहज भाव से होता है।इसका संबंध हृदय की पवित्र भावनाओं से होता है।इसके स्वरूप को वाद्य यंत्र बजाकर,प्रदर्शन करके अथवा कोई प्रशंसा हेतु आयोजन द्वारा प्रकट नहीं किया जाता।इसका जन्म तो हृदय में अदृश्य रूप से स्वतः ही होता है।मन में इसका विकास कब,क्यों हुआ इसका ज्ञान उस व्यक्ति को भी नहीं होता।
- तात्पर्य यह है कि इसका उदय मन के पवित्र भावों से संबंधित होता है।यही त्याग संसार में दूसरों के द्वारा महान् और पूजनीय माना जाता है।उस त्याग की अमरता धरती पर रहती है।वह एक स्थायी रूप ग्रहण करता है तथा ऐसा त्याग किसी के लिए व्यर्थ नहीं होता,बल्कि वह तो संसर्ग के द्वारा छूत रोग के समान विकसित होता है।यह तो दूसरे के हृदय में त्याग का जागरण करता है और स्फूर्ति प्रदान करता है।वही त्याग सच्चा त्याग है।
- जीवन में त्याग का महत्त्व अत्यधिक है।त्याग की भावना का एक विशेष स्थान है।किसी विशेष उद्देश्य की सफलता हेतु परिश्रम करना आवश्यक है।कर्मशील जीवन ही सफलता प्रदान करता है,परंतु जीवन में ऐसे अवसर आते हैं-उस समय त्याग करना आवश्यक हो जाता है।जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य समाज से व संसार के लोगों से अपनी आवश्यकता हेतु कुछ ना कुछ प्राप्त करता है।उचित ही है कि हम सभी आवश्यकताओं की पूर्ति इस जगत में करते हैं।इसका अर्थ है कि दूसरों ने हमारे लिए त्याग किया।तब हमारा भी कर्त्तव्य हो जाता है कि इस बदले में हम भी उनके प्रति त्याग करें।लेन-देन पर संसार चल रहा है।परस्पर सहयोग सेवा उसका आधार है।तब हमको भी स्वार्थी भाव न रखकर उसी समाज व संसार के हित में अपने स्वार्थों का बलिदान व त्याग करना चाहिए।
- संसार में जीवन का निर्वाह अनेक उतार-चढ़ाव को लेकर चलता है।लेन-देन संसार का नियम है किंतु वह त्याग नहीं।त्याग का अर्थ अपने स्वार्थ को छोड़कर परहित में लालच व मोह के वशीभूत न होकर तथा न प्रतिफल पाने की आशा में किया गया कार्य है।परोपकार की पावन भावना से निःस्वार्थ व लोभ को छोड़कर जो त्याग कार्य किया जाता है वही त्याग की कोटि में आता है।
त्याग जितना बड़ा आप करेंगे उसका महत्त्व उतना ही अधिक होगा।छोटे-से-छोटे रूप में देखें तो व्यक्ति परिवार के लिए जो त्याग करता है तथा किसी मनुष्य विशेष के प्रति वह त्याग करता है-तो उस त्याग की महानता छोटी ही होगी,क्योंकि उसका क्षेत्र व रूप भी तो छोटा है।इसके उपरांत कहीं मनुष्य समाज तदन्तर देश के लिए त्याग करते हैं-तो ये बड़े कार्य होने से इनकी महानता बड़ी गिनी जाएगी।सामान्य लोगों की अपेक्षा समाज व राष्ट्र के हितार्थ त्याग करने वाले व कष्ट उठाने वालों का अधिक सम्मान होगा।इनका त्याग बड़ा त्याग कहलाएगा।त्याग की भावना व्यक्ति,परिवार और समाज के प्रति ना हो तो बहुत से कार्य रुक जाएंगे।प्रगति बंद हो जाएगी।अतएव बड़े से बड़े और दैनिक जीवन के कार्यों में भी त्याग की भावना को स्थान मिलता है और ये कार्य चलते हैं।
3.झूठा त्याग (False renunciation):
- जब कोई मनुष्य किसी के लिए कुछ त्याग करता है तो उसके मन में संतोष होता है वह अनुभव करता है कि उसने कुछ उचित कार्य किया है-यही मन की शांति है। परंतु शांति तथा जीवन व संसार से विरक्ति लेना आदि बातें त्याग से संबंधित नहीं की जा सकती हैं,क्योंकि ऐसे लोगों का जीवन निष्क्रिय हो जाता है।शांत रहकर जीवन बिताना,कर्म कम करना आदि बातें निष्क्रिय जीवन में प्रमुख रहती है।सच्चा त्याग तो इससे पृथक होता है।त्याग से उत्पन्न संतोष में व निष्क्रिय जीवन के द्वारा उत्पन्न शांति में अंतर है।अंतर यही कि क्रियाशीलता जीवन में दृष्टिगोचर होती है और वह त्याग से संबंधित होती है।उसके द्वारा प्राप्त संतोष शांति प्रदान कर आत्म-संतोष देता है।इसका संबंध आत्मा के आनंद से है।दूसरों के हित में कष्ट भोगना,परोपकार के लिए त्याग करना-क्रियाशीलता के परिचय के साथ आत्मिक आनंद भी प्रदान करता है।आत्मा का आनंद ही अलौकिक आनंद है।
- जीवन में त्याग की भावना उत्पन्न होना अच्छी बात है।परंतु त्याग तभी कहा जाएगा जब कोई वस्तु अपने पास है।जब वस्तु नहीं है और फिर कहा जाए कि उसका परित्याग कर दिया तो यह त्याग नहीं होगा।जीवन भर यह सामर्थ्य नहीं हो सकी कि संसार के सुख-वैभव प्राप्त कर सकें।आलस्यमय जीवन रहा,निष्क्रियता रही-फिर कोई इस संसार को त्याग कर बैरागी बन जाए और प्रदर्शित करे कि यह भौतिक व लौकिक सुखों का परित्याग बहुत बड़ा त्याग है।वास्तव में यह त्याग नहीं-यह तो निष्क्रियता का प्रभाव है।वैभव के सुख भोग प्राप्त ही नहीं किये-तो त्याग कैसा? इसे काम न करने के कारण या वैराग्य भाव के कारण उत्पन्न संतोष ही कहा जाएगा।त्याग की महानता इस संतोष में नहीं दिखाई देती।त्याग की परंपरा सदैव से महान रही है।इस कोटि में इसकी गणना नहीं हो सकती-क्योंकि इसका परिणाम असमर्थता के कारण है।
- संसार में प्रायः लोगों को वैराग्य और विरक्ति लेते देखते हैं।वे यह कहते हैं कि हमने संसार का त्याग कर दिया।अपनी भौतिक आवश्यकताओं पर विजय प्राप्त कर ली है।जीवन के सुख व सुविधाओं से दूर हटकर वह अब भगवान की आराधना में कष्टमय जीवन बिताने के लिए तत्पर हो गया है।पर यथार्थ में यह वैराग्य और सच्ची विरक्ति नहीं कही जाएगी।क्योंकि जब आपने संसार में रहकर अपनी क्रियाशीलता का परिचय दिया ही नहीं,संसार में वैभव व यश प्राप्त किया ही नहीं-तो यह आपके आलसी जीवन का प्रतीक है-वैराग्य का नहीं।संसार का ठीक प्रकार से उपयोग करने में असमर्थ रहे,उतनी शक्ति नहीं-तो सन्यास ग्रहण कर लिया।यह सम्मान के योग्य वस्तु नहीं है।इसे त्याग नहीं कहा जाएगा।जीवन का आनंद,सुख-सुविधा उठाने की योग्यता नहीं,परिश्रम करने की शक्ति नहीं-उसे जी चुराते थे-अब विरक्ति हो गई।यह विरक्ति त्याग के आधार पर नहीं-अपनी मजबूरी के कारण है।कुछ न कर पाने की दशा में सम्मान पाने के लिए एक अच्छा ढोंग है।इसे त्यागी कह सम्मानित नहीं किया जा सकता।
4.लक्ष्य की प्राप्ति कैसे हो? (How to achieve the goal?):
- मनुष्य वही सफलता प्राप्त करता है जिसके सामने कोई निश्चित लक्ष्य होता है।उस निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करना सरल नहीं है।उसके लिए जीवन में जो परिश्रम होगा,सतत सक्रिय रहकर साधना कर सकेगा-वही अपने लक्ष्य को पा सकेगा।आनंद को पास प्राप्त करना जीवन का चरम लक्ष्य है-परंतु यह जीवन से वैराग्य लेने से नहीं मिलेगा।इसका मूल है कर्मशील जीवन।क्रियाशीलता ही सांसारिक वैभव प्रदान करती है तथा जीवन का वास्तविक आनंद भी उसके द्वारा मिलता है।सक्रियता का अर्थ है जीवन में,कार्य में व्यस्तता एवं आगे बढ़ने की भावना का होना।जब मनुष्य अपनी प्रगति और उद्देश्य की पूर्ति हेतु अपनी इंद्रियों को सक्रिय रखता है,प्रवृत्तियों को सजग रखता है,सुअवसर को पकड़ने का प्रयास करता है,बुद्धि में तत्पर होता है-तो उसे कहा जाएगा कि उसमें जीवन है और वही चेतन है।
5.विद्यार्थी द्वारा त्याग (Sacrifice by the student):
- विद्यार्थी को भी त्याग और तपस्या से ही विद्या अर्जित हो सकती है।यदि विद्यार्थी सुख-सुविधाओं का भोग करेगा तो विद्या प्राप्ति संभव नहीं है।जिसे सुख-सुविधाओं का भोग करने की इच्छा हो उसे विद्या-प्राप्ति की आशा छोड़ देनी चाहिए और जिसे विद्या-प्राप्ति की इच्छा हो उसे सुख पाने की इच्छा छोड़ देनी चाहिए क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या प्राप्ति नहीं हो सकती।
- विद्या और सुख का मेल ऐसे ही असंभव है जैसे प्रकाश और अंधकार का मेल संभव नहीं है।विद्या प्राप्त करना एक कठोर तपस्या है और तपस्या में सुख-सुविधा प्राप्त होने की कोई गुंजाइश नहीं होती।जो सुख-सुविधा पसंद करते हैं और इनका भोग करते हैं उन्हें विद्या प्राप्त नहीं हो सकती।इन दोनों में से किसी एक को ही प्राप्त किया जा सकता है,एक को ही चुना जा सकता है,अब जो जिसे चुनेगा वह उसी को प्राप्त कर सकेगा।
- सुख का त्याग किए बिना विद्या की प्राप्ति संभव नहीं है।इसका अर्थ यह नहीं कि आप सुखों का भोग नहीं कर रहे हैं तो विद्या की प्राप्ति हो ही जाएगी,आपको उसके साथ कर्मशील भी होना पड़ेगा।क्योंकि कई विद्यार्थी ऐसे भी होते हैं कि विद्या की प्राप्ति के लिए सुख का त्याग करते हैं तो उसका अहंकार मन में बना रहता है।मैंने यह त्याग कर दिया,वो त्याग कर दिया,फला त्याग कर दिया।इस प्रकार का अहंकार रखने वाला विद्यार्थी विद्या प्राप्त नहीं कर सकता।दरअसल ऐसा विद्यार्थी सुख का त्याग नहीं करता बल्कि ढोंग करता है।
- सुख का वास्तव में त्याग करने वाले विद्यार्थी के पास अहंकार पास में फटक ही नहीं सकता है।क्योंकि दुखों,तकलीफों और कष्टों को सहन करने से उसमें भी विनम्रता आती है।जैसे आप जल्दी उठने का प्रयास करते हैं और पढ़ते हैं तो आपको सर्दी भी सहन करनी पड़ेगी,आरामतलबी जीवन त्याग भी करना पड़ेगा,नींद के फलस्वरूप जो सुख मिलता है उसका त्याग करना पड़ेगा।
- अपने जीवन से आलस्य का त्याग करना पड़ेगा।समय का मूल्य समझकर इसके प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना पड़ेगा।यानी यार-दोस्तों के साथ मटरगश्ती,सैर-सपाटा,गाॅसिप करते हैं तो उनका त्याग करना पड़ेगा।कठोर परिश्रम करना होगा।केवल परीक्षा उत्तीर्ण करने के दृष्टिकोण से ही अध्ययन नहीं करना होगा बल्कि जीवन निर्माण के उद्देश्य से अध्ययन करना होगा।इस प्रकार दुखों,कष्टों व तकलीफों को सहन करने से आपके मन पर जड़ जमाए हुए विकार नष्ट होंगे और आप विद्या प्राप्ति में अधिक सक्षम होते जाएंगे।
- एक बार जब आप विद्या प्राप्त कर लेने के अभ्यस्त हो जाएंगे तो उन कष्टों में ही आनंद और सुख का अनुभव होने लगेगा।आप सुबह जल्दी उठने के अभ्यस्त नहीं है और जल्दी उठने का प्रयास कर रहे हैं तो शुरू-शुरू में आपको कष्ट अनुभव होगा क्योंकि मन व शरीर जल्दी उठने का अभ्यस्त नहीं है।परंतु एक बार आपने सुबह जल्दी उठकर अध्ययन का क्रम बना लिया तो उसके बाद अभ्यस्त तथा अनुकूल होने पर सुबह जल्दी उठना ही आपको सुखप्रद महसूस होगा।केवल जल्दी उठना ही पर्याप्त नहीं है,बल्कि सुबह उठकर उसका उपयोग अध्ययन-अध्ययन-मनन चिंतन में करना होगा।
- यों सुबह जल्दी तो दूधवाले और अखबार देने वाले भी उठते हैं परंतु उनके जीवन में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता है।वे केवल अपना व्यवसाय को चलाने और मजबूरीवश प्रातः काल उठते हैं अर्थात् उन्हें उठना पड़ता है।
- परंतु आप विद्या प्राप्ति के उद्देश्य से उठते हैं,विद्या प्राप्ति का प्रयास करते हैं,अध्ययन के साथ चिंतन-मनन और कठोर परिश्रम करते हैं,तो आपके जीवन में बदलाव शुरू हो जाएगा।आपको अपने जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलेगा।जो दिनचर्या आपने अपनायी हुई थी उसको व्यवस्थित करने में शुरू-शुरू में दुखों और कष्टों का अनुभव होगा परंतु फिर धीरे-धीरे आप उसके अभ्यस्त हो जाएंगे।आप प्रसन्न मन से विद्या प्राप्ति के लिए इच्छुक होते हैं।
- आपको अपने जीवन को रूपांतरित करने के लिए ध्यान-योग,व्यायाम आदि को अपने जीवन में अपनाना पड़ेगा।यदि आपने अपना रखा है तो बहुत अच्छी बात है,तब तो आप इसके लाभों से परिचित होंगे ही।परंतु यदि आपने नहीं अपना रखा है,तो धीरे-धीरे इन्हें अपने जीवन में शामिल करते जाएंगे और आपको एक दिन विद्या प्राप्ति से सुख मिलना महसूस होने लगेगा तो आपको वही बातें अच्छी,सुखप्रद लगने लगेगी जो किसी समय कष्टप्रद,दुःख महसूस होती थी।
- विद्या प्राप्ति को शुरू में त्याग समझ कर कर रहे थे वही परिपक्व अवस्था में विद्या प्राप्ति आपके लिए तपस्या और अनासक्त कर्म योग बन जाएगी।तपस्या का अर्थ है द्वन्द्वों को सहज भाव से स्वीकार करना।सुख-दुःख,जय-पराजय,सफलता-असफलता,गर्मी-सर्दी आदि के प्रति समभाव रखने लगेंगे।अर्थात् सुख मिल रहा है तो भी प्रसन्न,दुःख मिल रहा है तो भी प्रसन्न हैं और यही आनंद की अवस्था है।
- ऐसे विद्यार्थी सुख-दुःख की परवाह न करने से शोक और निराशा से बचे रहते हैं क्योंकि सुख (सफलता) उन्हें अति हर्षित नहीं करता और दुःख (असफलता) उन्हें दुखी नहीं कर पाता है।जो सुख-दुःख दोनों को समदृष्टि से देखता है,वही पंडित है।जो सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता,वही तपस्वी है।तपस्वी द्वारा किए गए तप का सबसे बड़ा फायदा यह है कि पूरा जीवन आनंद के साथ गुजारकर,जीवन का अंत होने पर आगे की उत्तम यात्रा पर चल देता है।
- आपको विद्या प्राप्ति के प्रति मन में इतनी तड़प हो जाएगी कि आपका जीवन-लक्ष्य केवल परीक्षा उत्तीर्ण करना,जाॅब प्राप्त करना,स्वर्ण पदक प्राप्त करना,पारितोषिक प्राप्त करना ही नहीं बल्कि समाज,देश और लोगों के लिए भी आप योगदान करना अपना कर्त्तव्य समझेंगे।आप पर परिवार,समाज,देश को फक्र होगा।सच्चा विद्यार्थी वही है जिसको विद्योपार्जन की सच्ची भूख लगी हो,जिसमें विद्या प्राप्ति की लगन हो,तड़प हो,जो विद्या प्राप्ति की कठिनाइयों को देखकर आनंदित होता है,जो विद्या को केंद्र बनाकर अन्य सब बातों को भूल जाता है।
- उपर्युक्त आर्टिकल में छात्र-छात्राओं के लिए त्याग का महत्त्व (Importance of Sacrifice for Students),वास्तविक त्याग का क्या महत्त्व है? (What is Significance of Real Sacrifice?) के बारे में बताया गया है।
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6.डरपोक गणित शिक्षक (हास्य-व्यंग्य) (Sneaky Math Teacher) (Humour-Satire):
- जगन (गणित शिक्षक से):सर आप डरपोक हैं।
- गणित शिक्षक:नहीं तो,पर तुम क्यों पूछ रहे हो?
- जगन:क्योंकि आप डंडा लेकर आते हो,हमेशा डंडे को घूमाते रहते हो,डंडे को हमेशा साथ रखते हो।
7.छात्र-छात्राओं के लिए त्याग का महत्त्व (Frequently Asked Questions Related to Importance of Sacrifice for Students),वास्तविक त्याग का क्या महत्त्व है? (What is Significance of Real Sacrifice?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.आधुनिक विद्यार्थी क्या त्याग करता है? (What does the modern student sacrifice?):
उत्तर:यदि बाजार से पुस्तकें व नोटबुक आदि खरीदता है तो मुद्रा का त्याग करना पड़ता है।किसी विद्यालय,कॉलेज में पढ़ता है तो फीस चुकाता है।यदि बिना त्याग के कुछ पाना चाहते हैं तो अन्याय या चोरी करना चाहते हैं या लूटना चाहते हैं।देना व लेना उचित व्यवहार को संतुलित बनाए रखने वाली नीति है।इस दृष्टि से कुछ पाने के लिए त्याग त्यागना पड़ता है।
प्रश्न:2.शुद्ध त्याग की परिभाषा क्या है? (What is the definition of pure renunciation?):
उत्तर:देना और लेना शुद्ध त्याग नहीं है बल्कि व्यवसाय और विनिमय का ही एक हिस्सा होता है।यदि हम कुछ पाने के लिए त्याग कर रहे हैं तो त्याग नहीं कर रहे हैं बल्कि कुछ पाने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं ऐसा माना जाएगा।शुद्ध त्याग तो वही माना जाएगा जो बिना किसी प्राप्ति की इच्छा से किया गया हो,त्याग तो किया जाए पर बदले में कोई मांग ना हो,कोई शर्त ना हो और कोई कामना ना हो तो ही उसे वास्तविक त्याग कहा जाएगा।
प्रश्न:3.त्यागी से क्या आशय है? (What do you mean by sacrificing person?):
उत्तर:जिसने इच्छा का त्याग किया किया है,उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में भी रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहाँ रहे वहीं वन और वहीं भवन-कंदरा है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा छात्र-छात्राओं के लिए त्याग का महत्त्व (Importance of Sacrifice for Students),वास्तविक त्याग का क्या महत्त्व है? (What is Significance of Real Sacrifice?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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