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Importance of Education and Discipline

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1.शिक्षा एवं अनुशासन की महत्ता (Importance of Education and Discipline),शिक्षा और अनुशासन (Education and Discipline):

  • शिक्षा एवं अनुशासन की महत्ता (Importance of Education and Discipline) हमारे जीवन में बहुत अधिक है।शिक्षा प्राप्त करके अनुशासन ना आए तो ऐसी शिक्षा भौतिक शिक्षा अर्जित करना ही हुआ या केवल उपाधिकारी (Qualified) ही हुआ।अतः वही शिक्षा सार्थक है जो हमारे जीवन को अनुशासित करती हो,हमें उचित मार्ग का दिग्दर्शन कराती हो।
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2.वर्तमान शिक्षा से अनुशासनहीनता (Indiscipline from current education):

  • “विद्या ददाति विनियम् विनियम् ददाति पात्रताम्”-यह श्लोक भारतीय चिंतन परंपरा में शिक्षा के पर्याय विद्या के महत्त्व को ही इंगित नहीं करता,वरन यह भी स्थापित करता है कि शिक्षा सामाजिक नैतिकता बनाए रखने का आधार भी है।वस्तुतः शिक्षा का मूल अर्थ ही होता है- व्यक्ति की संपूर्ण संभावनाओं को उजागर करना।यह भी सर्वविदित है कि व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास समाज में रहकर कर सकता है।इसके लिए यह जरूरी हो जाता है कि शिक्षा में अनुशासन पर बल दिया जाए।भारतीय परंपरा में शिक्षा का जो मूल अर्थ ग्रहण किया जाता रहा है,वह इसी उद्देश्य से प्रेरित रहा है।गुरुकुल की परंपरा न केवल शास्त्रों की शिक्षा देती थी,वरन् छात्र  द्वारा अपने से बड़ों और छोटों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाए,इसका भी निर्देश देती थी।
  • लेकिन जब मैकाले की शिक्षा पद्धति भारत में अपनायी जाने लगी,शैक्षिक संस्थान सिर्फ क्लर्क तैयार करने वाले संस्थान बन गए।ये अब ज्ञान के केंद्र नहीं रह गए हैं।इसका परिणाम यह हुआ है कि शिक्षा का जो मूल अर्थ भारतीय परंपरा में रहा है और होना चाहिए,वह लुप्त-सा हो गया है।हर जगह अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर हो रही है।विश्वविद्यालय अब राजनीतिक नारेबाजी और उद्दंडता के केंद्र बन गए हैं।
  • अनुशासन में रहना,जो कि किसी भी छात्र का प्रमुख गुण होता है,विस्मृत-सा हो गया है।आये दिन हम कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के परिसरों में बमबाजी,मारपीट,तोड़फोड़,शिक्षकों पर प्रहार आदि की घटनाएं देख रहे हैं।ये सभी न केवल गिरते शैक्षिक स्तर की परिचायक हैं,वरन यह भी प्रमाणित करती हैं कि विद्यालय अब उद्दण्डता और अनुशासनहीनता का केंद्र बनते जा रहे हैं।यह अनुशासनहीनता न केवल समाज के लिए,बल्कि राष्ट्र के लिए भी हानिकारक है।कहा गया है-“अनुशासन ही देश को महान बनाता है।”अब प्रश्न यह उठता है कि आज के इस अराजक दौर और शिक्षा के नाम पर सामाजिक अभिशाप फैलाने के लिए कौन जिम्मेदार है? इसका उत्तर आधुनिक समाज की मानसिकता में ही मिलता है।वस्तुतः इस भौतिकवादी युग में अपने सुखोपभोग के लिए हर तरह के उपाय करना प्रत्येक व्यक्ति का एक मात्र लक्ष्य बनता जा रहा है,भले इसके लिए कितनों को ही कष्ट क्यों न हो।दूसरे शब्दों में कहें तो समाज में व्यक्ति केंद्रित भावना और स्वार्थपरता बढ़ती जा रही है।
  • पिछले समय शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में वंदे मातरम संबंधी जो विवाद उठा,वह न केवल हमारी समेकित संस्कृति के आदर्श ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के विरुद्ध है,बल्कि शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा बनाने का प्रयास भी है।शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति के स्थान पर (जिससे कि अनुशासन और सहिष्णुता की वृद्धि होती है) केवल रोजगार प्राप्ति हो गया है।आज शिक्षा सिर्फ एक व्यवसाय बनकर रह गई है।आज शिक्षक भी इसलिए पढ़ाते हैं क्योंकि इससे उनकी जीविका चलती है।छात्र इसलिए पढ़ रहे हैं क्योंकि इससे उनका भविष्य बन सकता है।इन सबका सम्मिलित परिणाम यह हुआ है कि छात्र यह नहीं सीख पाता कि किसके साथ कैसा व्यवहार किया जाए? समाज की उन्नति कैसे हो सकती है? अनुशासन क्या होता है? इसके परिणामस्वरूप समाज में घृणा,द्वेष आदि बढ़ता जा रहा है,जो कि अनुशासनहीनता और स्वार्थपरता की भावना का परिचायक है।

3.आज बुनियादी शिक्षा की आवश्यकता (Need for basic education today):

  • हालांकि जरूरी है कि शिक्षा रोजगारोन्मुख होनी चाहिए,किंतु साथ ही इसे सामाजिक आदर्शों से भी ओतप्रोत रहना चाहिए।गांधीजी ने जिस ‘बुनियादी शिक्षा’ की बात की है,वह इन्हीं उद्देश्यों पर आधारित थी।इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि शिक्षा को सामाजिक आदर्शों पर खरा उतरने के लिए इसमें निम्न दूरगामी सुधार किया जाएं:
  • (1.)कम से कम माध्यमिक स्तर तक नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाया दिया जाए।इससे छात्रों को सामाजिक व्यवहारों व आदर्शों में निःसंदेह रुचि उत्पन्न होगी।इसके परिणामस्वरूप अनुशासन सुदृढ़ होगा।
  • (2.)विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में राजनीति की जो ‘विष बेल’ फैल रही है,उसे जड़ से ही उखाड़ देना चाहिए।दूसरे शब्दों में,विश्वविद्यालय परिसरों को राजनीतिज्ञों का अखाड़ा नहीं बनने देना चाहिए।
  • (3.)शिक्षकों को शिक्षा प्रदान करने के दायित्व को व्यवसाय के साथ ही मिशन भावना के रूप में भी ग्रहण करना चाहिए।उनमें कर्त्तव्य और दायित्व की भावना भी रहनी चाहिए।
  • (4.)छात्रों द्वारा शिक्षा को सिर्फ रोजगार प्राप्ति का साधन न समझकर बौद्धिक विकास के साधन के रूप में भी ग्रहण करना चाहिए।उनमें शिक्षकों के प्रति आदर-भाव और श्रद्धा की भावना रहनी चाहिए।
  • (5.)अभिभावकों को अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना भी आवश्यक है।उन्हें केवल अपने पुत्रों से यही अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए कि वे शिक्षा ग्रहण कर सरकारी नौकरी ही प्राप्त करें।अभिभावकों में ऐसी भावना रहने पर ही छात्र तनावरहित होकर शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं और समाज में प्रगतिशील भूमिका निभा सकते हैं।
  • (6.)गांधीजी द्वारा प्रतिपादित ‘बुनियादी शिक्षा’ को अमलीजामा पहनाना चाहिए।इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि शिक्षा रोजगारोन्मुख होने के साथ-साथ अनुशासन को बढ़ावा देने में भी सहायक होगी।
  • शिक्षा में उपर्युक्त सुधारों से निःसंदेह अनुशासन,राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सद्भाव में वृद्धि होगी।निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि आज शिक्षा अपने मूल अर्थों के साथ ही अपने पथ से भी भटक गई है।भौतिकवादी जीवन पद्धति इतनी हावी हो गई है कि इसमें दिनोदिन सामाजिक दायित्व की भावना का लोप होता जा रहा है।फलतः इसमें उपर्युक्त सुधार करने की जरूरत है।इसके परिणामस्वरूप ही सामाजिक विद्वेष,घृणा तथा अनुशासनहीनता को मिटाया जा सकता है और शिक्षा ग्रहण करने की सार्थकता सिद्ध की जा सकती है।

4.शिक्षा और अनुशासन एक-दूसरे के पूरक (Education and discipline complement each other):

  • मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो इस जगत में,इस समाज में अपने सभी क्रियाकलापों का निर्वहन करता है।समस्त क्रियाकलापों के सुचारू रूप से संपादन में शिक्षा और अनुशासन एक दूसरे के पूरक हैं।किसी एक से परे रहकर किसी भी कार्य,कोई भी व्यवस्था या नियमों को हम पूर्णतया संपादित नहीं कर सकते,क्योंकि शिक्षा के बिना अनुशासन को कायम रखना तथा अनुशासन के बिना शिक्षा को ग्रहण कर पाना असंभव प्रतीत होता है।समाज में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इनका सह-अस्तित्व है।
  • व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है।विकास की प्रक्रिया और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में शिक्षा निर्णायक शक्ति है।व्यक्ति की अभिव्यक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि शिक्षा के आविर्भाव के कारण ही होता है।शिक्षा द्वारा ज्ञान अर्जित किया जाता है।ज्ञान को मानव की शक्ति के रूप में एक प्रतीकात्मक स्रोत माना जाता है।शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को अपने अधिकारों,समाज के प्रति अपने दायित्वों,कर्त्तव्यों आदि का बोध होता है,जिसका अनुसरण करके वह उन्नति के उचित मार्ग का अनुसरण करता है और एक प्रगतिशील समाज एवं राष्ट्र का रेखाचित्र खींचता है।
  • प्राचीन काल में शिक्षा को प्राप्त करने की एक सुसंगठित व्यवस्था देखने को मिलती है,जिसका पालन करके छात्रों ने एक सुदृढ़ परंपरा का शुभारंभ किया था।इसके अनुसार बालक 7 वर्ष तक घर में,8 से 16 वर्ष तक आश्रम या गुरुकुल में और तत्पश्चात विश्वविद्यालयों या विद्यापीठों में शिक्षा प्राप्त करने जाते थे।शिक्षा की प्रकृति समाज के विभिन्न वर्गों के अनुरूप भिन्न-भिन्न होती थी।लेकिन इस परंपरा का संचालन बहुत अधिक समय तक नहीं किया जा सका।
  • विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण तथा धर्म में आयी कुरीतियों के कारण शिक्षा एक वर्ग विशेष तक ही सीमित होकर रह गई।परिणामस्वरूप लोग अशिक्षा से ग्रसित होते चले गए और समाज में विभिन्न प्रकार की अव्यवस्थाएं अस्तित्व में आयीं।शिक्षा व्यक्ति के बौद्धिक विकास में सहायक होती है।बौद्धिक विकास होने के कारण व्यक्ति के मनोभाव में स्वायत्तता,आत्मनिर्भरता तथा कर्त्तव्यों और अधिकारों के प्रति भावना उत्पन्न होती है,जिससे व्यक्ति के अंदर आत्म-संतोष एवं आत्मिक ऊर्जा का विकास होता है और वह समाज में संतोषपूर्ण सद्भावपूर्ण जीवन व्यतीत करता है।
  • ब्राजील के शिक्षाविद् पाउलो फ्रेरे का मानना है कि,”शिक्षा आदमी की आजादी के लिए किया गया सांस्कृतिक कर्म है।शिक्षा के द्वारा जनसामान्य की क्षमताओं को साकार करने की एक प्रक्रिया का जन्म होता है,जिसके अंतर्गत वह अपनी संपूर्ण प्रतिभा,क्षमता,योग्यता आदि संभावनाओं की तलाश करता है तथा उस पर अमल करके पारस्परिक सद्भाव तथा सहनशीलता जैसे गुणों को स्वीकार करके एक सुंदर समाज का सृजन करता है।”
  • अनुशासन को बनाए रखने हेतु शिक्षा का होना अत्यंत आवश्यक है।शिक्षा की महत्ता को स्वीकार करते हुए भारतीय संविधान के 45वें अनुच्छेद में 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयुवर्ग के सभी बालकों को निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई है।शिक्षा आज समवर्ती सूची का विषय है।73वें और 74वें संविधान संशोधन के फलस्वरूप गैर-सरकारी क्षेत्रों की शिक्षा में भागीदारी बढ़ती जा रही है।तमाम सुविधाओं के उपलब्ध रहने पर भी देश की 25 फीसदी जनसंख्या अशिक्षा से बंधी हुई है।कोई भी राष्ट्र हो,यदि वहां की जनसंख्या अशिक्षित रहेगी तो वहां पर अनुशासन की आकांक्षा करना आकाश कुसुम को देखने के समान है।प्रश्न उठता है कि इतनी सुविधा के बावजूद ऐसी अशिक्षा क्यों व्याप्त है? कहीं इसके पीछे अनुशासन के नियमों के उल्लंघन का प्रभाव तो नहीं है?

5.शिक्षा और अनुशासन का निष्कर्ष (Conclusion to Education and Discipline):

  • यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करें तो यह प्रतीत होता है कि निश्चय ही अशिक्षा एक बड़ा कारण है,समाज में व्याप्त अनुशासनहीनता अर्थात् अनुशासन का ना होना।अनुशासन राष्ट्र के हर क्षेत्र में विद्यमान होता है और इसकी उपेक्षा करना ही एक अनुचित प्रक्रिया को आरम्भ करना है।यहां पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि सामान्यतया कुछ अशिक्षित लोग अनुशासन बनाए रखते हैं,जबकि कुछ शिक्षित लोग इसके विपरीत जाते दिखाई पड़ते हैं।ऐसा क्यों? यह बात सत्यता को समाहित किए हुए है,लेकिन यह अनुशासन का संकुचित रूप हमारे सामने प्रस्तुत करती है,जबकि इसका क्षेत्र विस्तृत है।समाजशास्त्री इस बात पर विशेष रूप से बल देते हैं कि शिक्षा और अनुशासन किसी समुदाय के आमूल परिवर्तन के कारण होते हैं,जिससे सृजन की एक नवीन प्रणाली की यात्रा का शुभारंभ होता है,जो राष्ट्र की उन्नति के पथ पर निर्बाध गति से अग्रसर रखती है तथा जो अशिक्षा और अनुशासनहीनता से व्याप्त दुर्व्यवस्थाओं को पतनोन्मुख करती जाती है।
  • अनुशासन शिक्षा का एक आधार स्तंभ है।ध्यातव्य है कि राष्ट्र में जो अनुशासन के नियमों का उल्लंघन हो रहा है,उसका प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा पर भी पड़ रहा है,जिसके फलस्वरूप जनसामान्य शिक्षित होते हुए भी अशिक्षित है।तात्पर्य यह है कि केवल शिक्षा का प्रमाण-पत्र या नौकरी प्राप्त कर लेना ही शिक्षा का यथार्थ प्रमाण नहीं हो सकता।राष्ट्र में जिन माध्यमों से,स्रोतों से शिक्षा के प्रमाण पत्रों का वितरण होता है अथवा नौकरियों का वितरण होता है,क्या वे शिक्षित होने का प्रमाण हो सकती है,क्या वे देश हित में हो सकती हैं? शिक्षित होने से हमारा तात्पर्य प्रमाण-पत्र पाना या नौकरी पाना नहीं है,बल्कि उसके महत्त्व को समझकर एक नयी व्यवस्था को आरंभ करना है,जिस पर चलकर देश को चहुँमुखी विकास की ओर अग्रसर करना तथा सामाजिक विनम्रता एवं अनुशासनहीनता का नाश करना संभव हो सकता है।
  • निष्कर्षतः कह सकते हैं कि शिक्षा और अनुशासन का सह-अस्तित्व है।एक ओर जहां शिक्षा के लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है,वहीं दूसरी ओर अनुशासन को कायम रखने के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है।इन दोनों के अभाव में हम एक सुंदर समाज की कल्पना तक नहीं कर सकते,उसको अस्तित्व में लाना तो दूर की बात है।शिक्षा और अनुशासन के सहयोग से इस जगत में,एक नवीन परंपरा का आविर्भाव होता है और देश तथा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया अस्तित्व में आती है,जिससे एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होती है।
  • वस्तुतः आज शिक्षा पाकर छात्र-छात्राएं (अधिकांश) साक्षर,डिग्रीधारी (Qualified) ही तैयार हो रहे हैं और बेरोजगारी की भीड़ को दिनोदिन बढ़ाते जा रहे हैं।फलस्वरूप उनमें अनुशासन बिल्कुल देखने को नहीं मिल रहा है।ये बेरोजगार युवा अनुशासनहीन होकर अपराध जगत की ओर अग्रसर होते हैं।साइबर क्राइम,लूटपाट,आतंक,तोड़-फोड़,मारपीट,हत्या,डकैती,एटीएम को उखाड़ना,अय्याशी,अपहरण आदि को अंजाम दे रहे हैं।आज शिक्षा केवल मात्र व्यवसाय बन गई है।किसी भी प्रकार यथा B.Ed,M.Ed,बीटेक,बीए,बीएससी,बीकॉम,एमए,एमएससी,एमकॉम आदि की डिग्रियां बेची जा रही है।अतः शिक्षा में नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा का समावेश होना आवश्यक है ताकि छात्र-छात्राओं के चारित्रिक अनुशासन और सामाजिक अनुशासन के गुणों का विकास हो सके।शिक्षा में बदलाव के बिना केवल कोर्ट,कचहरी,पुलिस आदि के द्वारा तथा दंडित करके युवाओं को सही मार्ग पर लाना एक सीमा तक ही संभव है।पूर्णतया कायाकल्प शिक्षा और अनुशासन के द्वारा ही संभव है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में शिक्षा एवं अनुशासन की महत्ता (Importance of Education and Discipline),शिक्षा और अनुशासन (Education and Discipline) के बारे में बताया गया है।

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6.गणित का हैजा (हास्य-व्यंग्य) (Cholera of Mathematics) (Humour-Satire):

  • एक छात्र की पूर्णतया जांच करने के बाद गणित शिक्षक ने सुझाव दिया।सुबह प्रातः काल आधा घंटा नैतिक शिक्षा,दोपहर में आधा घंटा आध्यात्मिक शिक्षा,शाम को आधा घंटा व्यावहारिक शिक्षा,रात को सोने से पहले ध्यान-योग शिक्षा की पुस्तकें पढ़ा करो।
  • छात्र ने घबराकर पूछा:मुझे क्या हुआ है?
  • गणित शिक्षक:कुछ नहीं,तुम्हें गणित का हैजा हो गया है।

7.शिक्षा एवं अनुशासन की महत्ता (Frequently Asked Questions Related to Importance of Education and Discipline),शिक्षा और अनुशासन (Education and Discipline) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.आधुनिक शिक्षा के मुख्य दोष क्या है? (What are the main drawbacks of modern education?):

उत्तर:(1.)आधुनिक शिक्षा में नैतिक,आध्यात्मिक शिक्षा व धार्मिक शिक्षा का समावेश नहीं है।
(2.)आज की शिक्षा में समाज और देश के कल्याण-चिन्ता के तत्त्व शामिल नहीं है।
(3.)आज की शिक्षा में पद (नौकरी) को ऊंचा स्थान प्राप्त है जबकि परिश्रम को नीचा स्थान दिए जाने की भावना है।
(4.)आज की शिक्षा छल,पाखंड,अहंकारी,क्रोधी,प्रपंच आदि सारे ऐब को करना सिखाती है।
(5.)आज की शिक्षा निर्बलों को सताने,भोग-विलास में डूबाना,दूसरों को ठगना सिखाती है।

प्रश्न:2.सच्ची शिक्षा में कौन-से गुण होते हैं? (What qualities are there in true teaching?):

उत्तर:(1.)विद्या विनय को देती है,नम्रता से योग्यता मिलती है,योग्यता से धन,धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
(2.)सच्ची शिक्षा से आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है,ज्ञान से दूसरों का भला करता है,निर्बलों की रक्षा करता है।

प्रश्न:3.अनुशासन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो। (Write a short note on discipline?):

उत्तर:अनुशासन से तात्पर्य होना चाहिए आत्म अनुशासन से।बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ने के लिए पहले बड़े-बुजुर्गों को अनुशासन का पालन करना चाहिए।अनुशासन थोपा नहीं जाता है,सहर्ष अपनाया जाता है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा शिक्षा एवं अनुशासन की महत्ता (Importance of Education and Discipline),शिक्षा और अनुशासन (Education and Discipline) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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