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How to Follow Pratyahara Part of Yoga?

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1.योग के अंग प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Pratyahara Part of Yoga?),प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Retreating?):

  • योग के अंग प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Pratyahara Part of Yoga?) प्रत्याहार और मन की साधना के बिना किसी क्षेत्र में प्रगति,विकास और उन्नति करना संभव नहीं है।महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,ध्यान,धारणा,समाधि का पांचवा अंग प्रत्याहार है।
  • जब इंद्रियों का अपने विषयों से संयोग या संपर्क नहीं होता है (अर्थात् वे उनसे पृथक कर ली जाती है या लौटा ली जाती है,क्योंकि मन का निरोध हो चुका है) और इस प्रकार वे स्वयं चित्त (मन) के अनुरूप हो उठती है,तब प्रत्याहार होता है।
    भावना यह है कि इंद्रियाँ विषयों से चित्त के साथ ही विषयों (अर्थात् पदार्थों) का ज्ञान नहीं करती।प्रत्याहार चित्त की बाह्य क्रियाओं (बहिर्गामी गतियों) का निरोध (control) है और इंद्रियों के दासत्व से इसे स्वतंत्र करना है।
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2.महर्षि पतंजलि के अनुसार प्रत्याहार (Pratyahara According to Maharishi Patanjali):

  • महर्षि पतंजलि प्रत्याहार की विशद विवेचना इस सूत्र के माध्यम से करते हैं।वे कहते हैं कि इंद्रियों का अपने विषयों के साथ संबंध न होने पर चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना,उनके साथ तदाकार हो जाना ही प्रत्याहार है।प्रति+आहार=प्रत्याहार; अर्थात् इंद्रियों का जो अपना विषय है,वही उनका मूल आधार है।आहार इंद्रियों के संबंध में प्रयुक्त होता है।इस आहार को उनसे हटा देना या उन्हें ग्रहण करने ना देना ही प्रत्याहार है।इस प्रकार कहा जा सकता है कि इंद्रियों को अपने-अपने विषयों से निवृत्त करना या हटाना ही प्रत्याहार है।
  • महर्षि पतंजलि अध्यात्मवेत्ताओं की दुनिया के आइंस्टीन हैं।उनकी अभिवृत्ति और दृष्टि वही है,जो एकदम विशुद्ध वैज्ञानिक मत की होती है।महर्षि पतंजलि बुनियादी तौर पर वैज्ञानिक हैं,जो नियमों की भाषा में सोचते विचारते हैं और अपने निष्कर्षों को रहस्यमय संकेतों के स्वर में नहीं,वैज्ञानिक सूत्रों के रूप में प्रकट करते हैं।इन्हीं के कारण प्रत्याहार के संबंध में उनके सूत्र अद्भुत हैं।वे कहते हैं कि प्रत्याहार है इंद्रियों का राग-द्वेष से विमुक्त हो जाना।राग-द्वेष का थम जाना एक बड़ी घटना है।योगी ही किसी बड़ी घटना को संपादित करता है और इस घटना को संपादित करने से पहले उसे सर्वप्रथम संसार और उसके परे जिस किसी से वह अनुरक्त होता है या विरक्त होता है,उन चीजों से उसे बाहर निकलना होता है।उसे अपनी इंद्रियों को इन विषयों से विमुक्त करना होता है।
  • प्रत्याहार सहज नहीं है और यह योगाभ्यासी साधक के लिए अत्यंत आवश्यक घटक भी है।योगी का संसार अपने इस संसार से भिन्न एवं जुदा होता है।उसके नीति-नियम हमारे नीति-नियमों से अलग होते हैं।उस संसार में राग-द्वेष आदि विषयों का किंचिन्मात्र स्थान नहीं है।ये सब बातें यहां चल सकती हैं,बल्कि यहां इन्हीं का जमघट है।इंद्रियों की भोगलिप्सा से सराबोर यह जगत योगाभ्यासी साधक को गुड़ में भिन्नभिनाती मक्खियों के समान प्रतीत होता है।उसे अपनी इंद्रियों के इन विषयों को दूर,बहुत दूर ले जाकर चित्त के महासागर में छोड़ देना पड़ता है।वह अपनी इंद्रियों को विषयों से इतना विमुक्त कर देता है कि फिर इन्द्रियाँ उन विषयों की ओर उन्मुक्त नहीं होती; क्योंकि उन्हें एक नए जगत की मनोहारी झांकियां मिल जाती हैं।इंद्रियों को उच्च स्तरीय विषय मिल जाता है तब वे निम्नस्तरीय विषय में विचरना एवं चिपकाना छोड़ देती है।
  • इन्द्रियाँ अपने विषय में विचरना छोड़ देती हैं तो प्रत्याहार घट जाता है।जैसे जिव्हा का विषय है स्वाद।जिव्हा का स्वादरहित हो जाना प्रत्याहार है; अर्थात् जब हमें जो मिल जाए रुखा-सूखा या फिर मेवा-मलाई,कोई शिकवा-शिकायत नहीं।प्रत्याहार सध जाए तो वह स्वाद के लिए नहीं भटकेगी।वह यह नहीं तलाशेगी कि जिस भोजन में उसे स्वाद मिलता है,वही मिले।जीवन की आधी से अधिक ऊर्जा तो इसी में व्यय हो जाती है कि क्या खाना है और कब खाना है,कितना खाना है और क्यों खाना है,इसकी कहां चिंता है,परंतु जब जिव्हा का प्रत्याहार सध जाता है तो स्वाद गौण हो जाता है और स्वास्थ्य प्रमुख।बात उलट जाती है,इसीलिए तो इसे प्रति आहार (प्रत्याहार) कहते हैं,मतलब की ठीक उल्टी चाल।

3.प्रत्याहार साधने के लिए महापुरुषों से सीख लें (Learn from Great Men to Practice Pratyahara):

  • प्रत्याहार आसक्ति से रहित होना है।आसक्ति हमें बाँधती है और यह जितना बाँधती है,उतना ही सताती भी है।आसक्ति हट जाए तो इंद्रियाँ स्थिर होने लगती हैं,फिर मन भी शांत होने लगता है।आसक्ति के मोहपाश ने राजा भर्तृहरी को गहरा बाँध रखा था।
  • विवेकवान,मेधावान भ्राता विक्रमादित्य के तमाम यत्नों के बावजूद राजा भर्तृहरी पिंगला के रूप-लावण्य में इस कदर खो गए थे कि उन्हें परम सुंदरी पिंगला के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था।उनकी इंद्रियाँ अपने विषयों में सघन रूप से ओतप्रोत थीं।काम-वासना के इस नशे में उनकी इंद्रियों को उन्मत्त बना दिया था और इंद्रियाँ भला कभी अपने विषयों से तृप्त हुई हैं।यह तो ऐसी आग है,जो सतत भड़कती रहती है।राजा भर्तृहरी इंद्रियों की इसी आग में झुलस रहे थे।
  • महारानी पिंगला के चंचल मन के एक चारित्रिक दोष ने राजा भर्तृहरी को इतना क्षुब्ध किया कि उनका मन अपने विषय से विमुख हो गया।वे गोरखनाथ के शिष्य बन गए,परंतु गोरखनाथ ने उन्हें प्रत्याहार सधने से पूर्व शिष्य स्वीकार नहीं किया।उन्होंने राजा को पिंगला से माता मानकर भीख मांगने को कहा।राजा का प्रत्याहार नहीं सधा था।वे अनुराग से विमुख हुए थे,द्वेष से नहीं।उन्हें दोनों से मुक्त होना था,पर इस साधना में वे पागल-सा उन्मत्त होकर जंगलों में भटकते थे।पिंगला को माँ नहीं मान पा रहे थे,उनका प्रत्याहार नहीं सध रहा था,परंतु गुरु गोरखनाथ की कृपा से राजा भर्तृहरी योगी भर्तृहरी बने।उनका प्रत्याहार सधा और उन्होंने पिंगला में माता का रूप देख लिया।
  • इसी प्रकार राजा ययाति ने काम-वासना की पूर्ति के लिए जीवनभर प्रयास किया,कर्मेंद्रियों पर उनका नियंत्रण नहीं सधा।राजा थे,किसी प्रकार की कमी न थी; परंतु यौवन समाप्त हो गया,वासना शांत नहीं हुई।साधन तो बहुतेरे थे; पर उन्हें भोगे कौन? वासना में अंधा होकर उसने अपने बेटों से जवानी मांगी।बेटों ने दे भी दी;पर अपनी जवानी से वासना का पेट नहीं भरा,तो बेटों की जवानी भी क्या करती? ऋषियों ने,सत्पुरुषों ने उसे धिक्कारा,कहा:”विश्व की सारी जवानियाँ भोग लें,तो भी तुझे शांति नहीं मिलेगी और लोक-तिरस्कार के साथ शाप भी भोगना पड़ा।

4.प्रत्याहार को कैसे साधे? (How to Practice Pratyahara?):

  • इंद्रियों पर नियंत्रण निग्रह करने से पूर्व गीता के निम्न श्लोक के अर्थ पर गौर करें:इंद्रियाँ अति बलवान हैं।विषयाभिमुख हुए पुरुष को क्षुब्ध कर देती हैं और मन को बलात हरण करके अपने अनुकूल कर लेती हैं,मन को भी साथ लगा लेती हैं।अतः बुद्धिमान मनुष्य को इन्हें वश में रखना चाहिए।जिसकी इंद्रियाँ वश में हो जाती हैं उसकी बुद्धि स्थिर अथवा प्रतिष्ठित हो जाती है।
  • स्व-स्व विषयों में बिषयों में विचरने वाली इंद्रियों में से जिसके साथ लगकर मन विचरने लगता है,तब उस इंद्रिय के विषय को ग्रहण करने में संलग्न मन उस योगी की बुद्धि-ज्ञान को हर लेता है; जैसे झील अथवा समुद्र में चलती नौका पथभ्रष्ट करके,झंझावात का प्रबल झोंका,नाविक सहित डुबो देता है-निश्चित स्थान पर लगने नहीं देता।इसी प्रकार विषयानुसारिणी एक इंद्रिय का अनुकरण करता हुआ यह मन,बुद्धि को भी विचलित करके पथ-भ्रष्ट बना देता है।-श्रीमद्भगवत गीता (अध्याय-2)
    जिस मूढ़मति का मन बुद्धि के वश में नहीं है,उसकी इंद्रियाँ भी वश में नहीं रहती; जैसे बलवान किंतु चपल घोड़े बिगड़कर दुर्बल सारथी के वश में नहीं आते,इतस्ततः खड्डे-खाई में जा फेंकते हैं।परंतु जो बुद्धिमान व्यक्ति बलशाली होता है,जिसका मन उसके वश में है,उसकी इंद्रियाँ वश में रहकर,सधे घोड़े के समान,बुद्धि-सारथी के आदेशानुसार चलती हैं।जिसका बुद्धिरूपी सारथी सावधान है,मनरूपी लगाम उसके हाथ में अधिकारपूर्वक आया है,इन्द्रिय-रूप घोड़े भी उसके वश में ही रहते हैं।-कठोपनिषद
    इंद्रियों में दो अतिबलवती हैं,पांच ज्ञानेंद्रियों में रसनेंद्रिय (रसना,स्वादेंद्रिय) और कर्मेन्द्रियों में उपस्थ (जननेंद्रिय,कार्मेंद्रिय);यथासंभव इन पर सर्वप्रथम विजय प्राप्त करनी चाहिए।इनके विजित हो जाने पर दूसरी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना सरल हो जाता है।
  • अतः प्रत्याहार की साधना आसान नहीं है।पतंजलि ने इसकी तकनीक दी है कि कैसे प्रत्याहार को साधा जाए।वे कहते हैं कि वितर्कवाद में प्रतिपक्ष की भावना अर्थात् इंद्रियाँ विषयों में आसक्त हों तो उनकी धैर्यपूर्वक काउंसलिंग करना चाहिए।विधेयात्मक तर्क,सुविचार एवं श्रेष्ठ चिंतन से उस आसक्ति को क्रमशः दूर करने का प्रयास करना चाहिए।इसी को साइकोलॉजी में ‘कॉग्निटिव थेरेपी’ के नाम से जाना जाता है।इसमें नकारात्मक चिंतन का सकारात्मक तर्कों द्वारा उन्मूलन किया जाता है।प्रत्याहार में भी आसक्ति को दूर करने के लिए इंद्रियों को श्रेष्ठ विषयों के प्रति उन्मुख किया जाता है और जब यह सध जाता है तो आसक्ति स्वत: समाप्त हो जाती है।
  • संसार में विषय के आकर्षण प्रबल हैं।ये इंद्रियों को ललचाते हैं।विषयासक्त इंद्रियाँ मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं; जबकि मन इंद्रियों का राजा है।उसका तो इंद्रियों पर अधिकार होना चाहिए,पर इंद्रियों के दबाव में जब मन आ जाता है तो सारा खेल उलट जाता है।ऐसी अवस्था में श्रेष्ठ विचारों से इस उल्टे क्रम को उलटकर सीधा करने का प्रयास करना चाहिए।यह प्रक्रिया लंबी अवश्य है,परंतु योगाभ्यासी साधक के लिए इसके अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है।मन को साधने की पहली साधना प्रत्याहार है।विषयों में आसक्त मन चेतना के महासागर में छलाँग कैसे लगा सकता है,इसलिए राजयोग के महायोगी स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि विषय को नहीं,विषय की आसक्ति को छोड़ना है।आसक्ति छूट जाए तो प्रत्याहार सध जाता है।
  • भगवान बुद्ध पहले ऐसे महायोगी थे,जिनके भिक्षुओं में राजकुमारों एवं राजाओं की संख्या बहुलता से थी।उन्होंने इन सबको पार्थिव ऐश्वर्य (भौतिक सुख-सुविधाएँ) से एक बड़े ऐश्वर्य (आध्यात्मिक उन्नति) के दर्शन कराए थे।बड़ी चीज मिल जाने पर छोटी चीज छूट जाती है।यही है प्रत्याहार।इंद्रियों एवं मन को अपने विषय से हटाकर एक महत् विषय में लगा देना ही प्रत्याहार है।प्रत्याहार में संबंध बना रहता है,परंतु यह संबंध उच्चस्तरीय हो जाता है।इसके लिए लघुता से विभुता की ओर चलना होगा।
  • सतत सत्संग एवं स्वाध्याय से विषय को परिवर्तित किया जा सकता है।धैर्य एवं सतत प्रयास से मन एवं इंद्रिय स्थिर हो जाती हैं।प्रत्याहार सधने के पश्चात ही ध्यान के सागर में गहरे गोते लगाना संभव होता है।अतः प्रत्याहार योग-साधना का प्रथम सोपान है।इसे तो पार करना ही पड़ेगा।

5.प्रत्याहार-सिद्धि के अन्य उपाय (Other Remedies for Pratyahara Siddhi):

  • इंद्रियाँ विषयों (भोगों) में आसक्ति रखती है और मन भी इन विषयों में फँस जाता है तथा मन,बुद्धि को अपने अनुसार चलाता है तथा बुद्धि चित्त को और चित्त आत्मा को अपने अनुसार चलाना चाहता है।इस क्रम को उलटकर करना है आत्मा के द्वारा बुद्धि निर्देशित होकर कार्य करे,बुद्धि,मन को नियंत्रण में रखें और मन का नियंत्रण इंद्रियों पर हो तो प्रत्याहार सध जाता है।
  • मन को बलपूर्वक नियंत्रण न करके उसे अच्छे कार्यों में लगाए रखना चाहिए।जैसे छात्र-छात्राएं अपने आपको पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ने,अध्ययन करने,अच्छा साहित्य,पुस्तकें पढ़ने आदि में लगाए।हमेशा अच्छे लोगों से सत्संग करें,स्वाध्याय,मनन-चिंतन करें।दूसरा उपाय यह है कि प्रातः काल नित्यकर्मों से निवृत्त होकर ध्यान और योग करें।ध्यान और योग करने पर शुरू-शुरू में मन भटकता है परंतु धैर्यपूर्वक तथा निरंतर ध्यान व योग करने पर मन एकाग्र होने लगता है।
  • कोर्स या विषय की पुस्तकें पढ़ रहे हों तथा ध्यान या मन इधर-उधर भटक रहा हो तो मन को गलत कार्यों की तरफ भटकने ना दें अर्थात् मन को बुरे कार्यों की ओर जाने के लिए कंपनी न दें,हमेशा सावधान व होश में रहकर कार्य करें।
    सरस्वती मंत्री या अपने इष्टदेव के मंत्र का जप करना चाहिए और मंत्रजप तल्लीन होकर करना चाहिए;किसी एक विषय में बना अनुराग उसे स्मृति रूप में प्रकट होकर एकाग्र होने नहीं होने देता।ऐसी स्थिति में साधक को प्राणायाम करना प्रारंभ कर देना चाहिए।प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं,इस कारण इंद्रियां प्राणायाम से शीघ्र वश में आने लगती है; क्योंकि प्राण का संबंध सब इंद्रियों के साथ है,अतः प्राण निरोध का प्रभाव इंद्रियों पर भी पड़ता है;इसके प्रभाव से वे भी निरुद्ध हो जाती हैं और विषयों में गमन करती इंद्रियां उधर नहीं जाती।
  • इंद्रियों तथा मन को वश में करने के लिए शारीरिक बल ही पर्याप्त नहीं होता,जब तक इसका प्राण बलिष्ठ ना हो।अतः प्राण को बलिष्ठ बनाने के लिए ‘प्राणायाम’ का आविष्कार किया गया।देह तथा मन के मध्य में प्राण माध्यम है।ज्ञान-कर्म के संपादन का समस्त कार्य,प्राण से बना ‘प्राणमय कोश’ ही करता है।अतः मन के साथ भी प्राण का संबंध है और देह में रहने वाली इंद्रियों के साथ भी; क्योंकि प्रत्येक इंद्रिय में प्राण व्यापक है,शरीर में तो है ही।अतः प्राणायाम के अभ्यास से शारीरिक पुष्टि और शुद्धि के साथ इंद्रियों की शुद्धि,पुष्टि,निर्मलता भी होती है और मन पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है।अतः इस रूप में प्राणायाम इंद्रिय निरोध में परम सहायक होता है।
  • मन को विवेकपूर्वक नियंत्रित करें।कोई भी कार्य करें तो उसके भले-बुरे परिणाम पर,आगा-पीछा सोचकर करें जिससे बाद में पश्चाताप ना हो।मन सही मार्ग पर चलता रहे इसके लिए विवेक द्वारा नियंत्रित होना परमावश्यक है।प्रत्याहार का अर्थ विषयों का भोग करने की मनाई नहीं है,उसमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिए।क्योंकि शरीर निर्वाह के लिए भोगों का भोग करना तो आवश्यक है ही,परंतु उनका मनन-चिंतन करना आसक्ति है जो नहीं करना चाहिए।आसक्ति होने से भोगों को भोगने की इच्छा होती है चाहे शरीर को उसकी आवश्यकता ना हो।जैसे स्वादेंद्रिय के वशीभूत होकर पेट भरा होने पर भी कोई स्वादिष्ट व्यंजन खाना।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में योग के अंग प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Pratyahara Part of Yoga?),प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Retreating?) के बारे में बताया गया है।

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6.गणित को सरल करने का तरीका (हास्य-व्यंग्य) (How to Simplify Math) (Humour-Satire):

  • गणित अध्यापक ने लव को समझाते हुए कहा कि गणित की यह प्रश्नावली अधिक कठिन है।इसको ध्यान से समझकर और हल करना।
  • लव ने मासूमियत से पूछा:इस प्रश्नावली को सरल करने के लिए पासबुक से नकल कर लूं?

7.योग के अंग प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (Frequently Asked Questions Related to How to Follow Pratyahara Part of Yoga?),प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Retreating?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.अंतःकरण चतुष्टय से क्या आशय है? (What Do You Mean by Antarakarana Chatushta?):

उत्तर:हम अंतःकरण चतुष्टय को मन,बुद्धि,अहंकार,चित्त के रूप में पृथक पृथक मानते हैं।त्रिगुणों (सत्त्व,रज,तम) की तारतम्यता के कारण इनके निर्माण तथा गुण-कर्मों में भी स्पष्ट भेद पाया जाता है।

प्रश्न:2.इंद्रियाँ विषयों का अनुकरण कब करती हैं? (When Do the Senses Imitate Objects?):

उत्तर:जब बुद्धि (मन) का बाह्य विषयों के साथ संबंध होता है,तभी ये इंद्रियां भी विषयों को ग्रहण करती है; बुद्धि का संबंध विच्छेद हो जाने पर ये इंद्रियाँ भी शांत हुई बुद्धि का अनुकरण (नकल) करने लगती है अर्थात् शांत हो जाती हैं।

प्रश्न:3.क्या इंद्रियां आत्मा की ओर अभिमुख होती हैं? (Are the Senses Oriented Towards the Soul?):

उत्तर:जैसे कछुआ अपने मुख,हाथ,पैरों को सिकोड़कर अंदर छिपा लेता है।वैसे ही योगी भी प्रत्याहार बल से अपनी सब इंद्रियों को विषयों से हटाकर अंतर्मुख कर लेता है।बुद्धि तो विषययानुराग को त्याग कर आत्मानुसंधान में लग जाती है,परंतु इंद्रिय बाह्य विषयों से विमुख होकर शांत हो जाती है।आत्मा के अभिमुख नहीं होती हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा योग के अंग प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Pratyahara Part of Yoga?),प्रत्याहार का पालन कैसे करें? (How to Follow Retreating?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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