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How to End Terrorism in India?

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1.भारत में आतंकवाद का खात्मा कैसे हो? (How to End Terrorism in India?),आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या (Terrorism is a Worldwide Problem):

  • भारत में आतंकवाद का खात्मा कैसे हो? (How to End Terrorism in India?) में आतंकवाद का अर्थ है कि अपनी शर्तें,अपनी मांगी मनवाने के लिए आपसी बातचीत,संवाद,वार्ता और तर्क-वितर्क की जगह आतंक का सहारा लिया जाए तो ऐसे व्यवहार,ऐसी लड़ाई को आतंकवाद कहते हैं।
  • जब तक सामाजिक व्यवस्था रुग्ण बनी रहेगी और जब तक इसकी तह में सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक अन्याय विद्यमान रहेगा,चाहे वह काल्पनिक हो या यथार्थ,जब तक न्याय मिलने में विलंब या कुप्रबंध रहेगा,इसका रूप कुछ भी हो और कितना भी वीभत्स हो सकता है:अपहरण,वायुयानों का अपहरण,निरीह लोगों को बंधक बनाना,अनायास ही लोगों की हत्या करना,धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में विध्वंस करना,धार्मिक स्थलों को गंदा करना,ताकि समुदायों में वैमनस्य बढ़े और सामान्य व भद्र नागरिकों में भय का संचार करना आदि।
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2.आतंकवाद के ताजा घटनाक्रम (Latest Terrorism events):

  • दृश्य एक:रियासी में श्रद्धालुओं की बस पर आतंकी हमला किया गया।10 जून 2024 से 13 जून 2024 के इन चार दिनों में जम्मू-कश्मीर के रियासी,कठुआ और डोडा में चार आतंकी घटनाएं हुई।इनमें 10 श्रद्धालुओं की जान चली गई,एक जवान शहीद हुआ और दो आतंकी मारे गए।कुपवाड़ा में शब्बीर अहमद नाम के ओवर ग्राउंड वर्कर को पकड़ा गया,जो आतंकियों की मदद कर रहा था।उसके पास हथियार बरामद हुए।
  • दृश्य दो:16 जुलाई,2024 को जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले में आतंकियों के साथ मुठभेड़ में एक कैप्टन समेत पांच जवान शहीद हो गए।डोडा मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर जंगल और ऊंचे पहाड़ों से घिरे इलाके देसा में आतंकियों की तलाश में सोमवार को अभियान किया गया था।सेना,पुलिस,सीआरपीएफ के जवान चप्पा-चप्पा खंगालते हुए आगे बढ़े।सोमवार 7:30 बजे जंगल में छिपे आतंकियों के साथ मुठभेड़ शुरू हुई,जो देर रात जारी रही।
  • आतंकियों की फायरिंग में कैप्टन बृजेश थापा (निवासी सिलीगुड़ी,पश्चिम बंगाल),नायक डी. राजेश (निवासी आंध्रप्रदेश),सिपाही विजेंद्र (निवासी झुंझुनू,राजस्थान),अजयसिंह (निवासी झुंझुनू,राजस्थान) और जम्मू कश्मीर पुलिस का एक जवान गंभीर रूप से घायल हो गए।सभी ने मंगलवार तड़के अस्पताल में दम तोड़ दिया।मुठभेड़ के बाद आतंकी अंधेरे का फायदा उठाकर भाग निकले।

3.कश्मीर में आतंकवाद की जड़ (Root of terrorism in Kashmir):

  • कश्मीर एक ऐसा मामला है जिसे पाकिस्तान कभी छोड़ना नहीं चाहता।इतिहास गवाह है कि कश्मीर विवाद आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गया।पाकिस्तान ने आजादी के बाद हजारों की संख्या में हथियारों से लैस लोगों को सीमा पार भेज दिया ताकि इस क्षेत्र को अपने कब्जे में लिया जा सके।बंटवारे के बाद तकरीबन सभी राज्यों को यह अवसर दिया गया था कि वे चाहें तो भारत के साथ रहें या पाकिस्तान के।जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह इन दोनों देशों से अलग रहना चाहते थे क्योंकि कश्मीर में 70% मुस्लिम और 30% हिंदू और बौद्ध थे।लेकिन उन्हें अपना यह विचार तब बदल देना पड़ा जब पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया।
  • अक्टूबर 1947 में एक दिन लगभग 8000 की संख्या में पाकिस्तानी सेना ने मुजफ्फराबाद पर आक्रमण कर दिया और जम्मू-कश्मीर के बड़े भू-भाग पर कब्जा भी कर लिया।घाटी को इन अतिक्रमण करने वालों से बचाने का जिम्मा जम्मू-कश्मीर की महाराजा हरीसिंह की सेना का था।महाराजा की सेना के मुस्लिम जवान न सिर्फ पाकिस्तानी घुसपैठियों के साथ हो लिए,बल्कि उन्हें तमाम तरह के सहयोग भी देने लगे।मात्र डोगरा सैनिक पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़े।महाराजा की सेना के ब्रिगेडियर राजिन्दरसिंह ने उन घुसपैठियों को भूरी में नाकों चने चबवा दिए।यह सिलसिला करीब 2 दिन तक चला।किंतु राजिन्दरसिंह का संघर्ष कुछ दिनों में शिथिल पड़ गया।
  • घुसपैठिए बारामूला में कब्जा करने में कामयाब हो गए।उसके बाद उन्होंने श्रीनगर की विद्युत आपूर्ति काट दी।तब जाकर महाराजा ने भारत से सहयोग की अपील की।लेकिन भारत और भारतीय सेना के सामने बहुत बड़ी दिक्कत थी।दिक्कत यह है कि जब तक जम्मू-कश्मीर भारत का क्षेत्र नहीं बनता तब तक उसे बचाया कैसे जाएं।महाराजा भी परेशान थे।लिहाजा 26 अक्टूबर को उन्होंने कश्मीर के भारत में विलय के समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।27 अक्टूबर को भारतीय सेना कश्मीर के लिए कूच कर गई।15 दिनों के ही अंदर बारामूला और भूरी की चोटियों को मुक्त करा लिया गया।
  • भारत-पाकिस्तान के मध्य खुले युद्ध की आशंका को देखते हुए भारतीय जनरल लॉर्ड माउंटबेटन जो हर स्थिति में दोनों देशों के मध्य युद्ध को टालना चाहते थे,ने इस मसले को संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्तुत करने का नेहरू को परामर्श दिया जबकि गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस मसले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने का विरोध किया।भारतीय सेना अभी अपने अभियान पर ही थी कि 1 जनवरी 1948 को पंडित नेहरू ने एक निर्णय ले लिया (लॉर्ड माउंटबेटन का परामर्श)।तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के विरोध एवं सलाह को पूरी तरह नजरअंदाज करके वे इस मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले गए।यहां भारत ने पाकिस्तान पर घाटी में घुसपैठ करने का आरोप लगाया जिसे बाद में पाकिस्तान ने ‘ना’ कह कर खत्म कर दिया।संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की शिकायत का परिणाम यह निकला कि सुरक्षा परिषद ने दोनों देशों की बात को सुनने के लिए एक आयोग का गठन कर दिया।बहुत हो-हुज्जत के बाद आखिर पाकिस्तान को मानना ही पड़ा कि उसकी सेना घाटी में मौजूद थी।
  • इसके बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ ने युद्ध विराम के लिए प्रस्ताव पारित किया।पाकिस्तानी सेना को वहां से निकलने के लिए कहा गया तथा भारत से कहा गया कि पाकिस्तानी सेना के निकल जाने के बाद भारत भी वहाँ अपने सैन्य बलों की संख्या कम कर दे,ताकि जम्मू-कश्मीर के लोग यह निर्णय ले सके कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं।युद्ध विराम 1 जनवरी 1949 को घोषित हुआ।लेकिन पिछले 75 से अधिक वर्षों के बाद भी पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र के उस निर्देश की अवहेलना करता रहा,जिसमें कहा गया था कि वह घाटी को लेकर गलत या उग्र तौर-तरीके अख्तियार नहीं करेगा।संयुक्त राष्ट्र संघ ने यह भी कहा था की घाटी के लोगों का विचार जाने बिना वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकता।पाकिस्तान सही अर्थों में ऐसा कुछ चाहता भी नहीं था क्योंकि जो विचार घाटी के लोगों का 1947 में था,पाकिस्तान उसे अच्छी तरह जानता था।
  • भारत के संयुक्त राष्ट्र संघ में अपील करने के बाद 15 जनवरी,1948 को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में लिखित रूप से स्वीकार किया था कि वह घाटी में घुसपैठियों को किसी तरह की मदद नहीं दे रहा है और न भविष्य में देगा।लेकिन कुछ ही समय बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने घोषणा कर डाली कि पाकिस्तानी सेना घाटी में गई थी।उन्होंने संयुक्त राष्ट्र आयोग से यहां तक कहा कि वे सभी सशस्त्र बल जो ‘आज़ाद कश्मीर’ के लिए लड़ रहे हैं,पाकिस्तान सेना के निर्देश एवं नियंत्रण में हैं।
  • संयुक्त राष्ट्रसंघ यह सुनकर बिल्कुल ही दंग रह गया।क्योंकि यह तो सीधे-सीधे संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद से छलावा करने जैसा था।वैसे भी 17 जनवरी को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने पाकिस्तान से कहा था कि वह स्थिति के बारे में उसे जानकारी देता रहे कि कहीं कोई विशेष परिवर्तन तो नहीं हुआ है।
  • पाकिस्तान ने अपने ढंग से पूरी स्थिति की व्याख्या करनी शुरू की।झूठ का सहारा लिया।कहा कि वास्तव में वह सिर्फ इतना ही चाहता था कि वह जब संयुक्त राष्ट्रसंघ स्थिति का जायजा लेने आए,तो वह अपनी स्थिति स्पष्ट कर सके।
  • लेकिन संयुक्त राष्ट्रसंघ पाकिस्तान की इस दलील से सहमत नहीं हुआ।13 अगस्त 1948 को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कहा कि पहले किसी भी तरह पाकिस्तान बलात कब्जियाये गए भू-भाग को खाली करे।क्योंकि कोई भी बातचीत तब तक आगे नहीं बढ़ सकती जब तक पाकिस्तान बलात कब्जियाये गये भू-भाग को खाली नहीं करता और भारत के हाथ में वहां का पूरा प्रशासनिक नियंत्रण नहीं हो जाता।
  • इस प्रकार समस्या का मूल कारण अंतर्राष्ट्रीयकरण ही है और संयुक्त राष्ट्रसंघ में यह मामला नेहरू द्वारा ले जाने के कारण ही उलझा हुआ है।यदि इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर नहीं ले जाया जाता,तो समस्या कभी की सुलझ गई होती,क्योंकि पाकिस्तान कबाइलियों एवं सैनिकों को कश्मीर की धरती से खदेड़ने के लिए हमारे सैनिक बहादुरी के साथ लड़ रहे थे और यदि मामले को सुरक्षा परिषद में ले जाने के कारण युद्ध विराम नहीं हुआ होता तो हमारे बहादुर सैनिक कश्मीर की शेष भूमि से भी इन कबाइलियों को खदेड़कर कर उस क्षेत्र को,जिसे पाकिस्तान ने अपने कब्जे में ले रखा है (आजाद कश्मीर) शीघ्र अपने नियंत्रण में ले लेते।इस तरह इस समस्या के कायम रहने का मूल कारण भारत द्वारा इसे सुरक्षा परिषद में ले जाकर अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देना है।वैसे भी समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में ले जाए जाने से भारत को कोई लाभ होने की बजाय उल्टा पाकिस्तान को ही लाभ हुआ है।अब सीमा पार से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादी गतिविधियों के कारण समस्या दिन-प्रतिदिन और विकट होती जा रही है।

4.पाकिस्तान का भारत पर दूसरा आक्रमण (Pakistan’s second attack on India):

  • दूसरी बार पाकिस्तान ने 1965 में फिर हमला किया।उस समय भी पाकिस्तानी सेना ने सैकड़ो घुसपैठियों को अगस्त की शुरुआत में घाटी में भेज दिया,जैसा कि 1999 करगिल में किया।जैसे करगिल में पाकिस्तान ने घुसपैठ से इनकार किया वैसे ही 1965 में उसने ढिठाई के साथ कहा था कि उसकी सेना ने कश्मीर में कोई घुसपैठ नहीं की है।लेकिन शीघ्र ही संयुक्त राष्ट्र आयोग ने पाकिस्तान के इस झूठ का पर्दाफाश कर दिया था।
  • युद्ध विराम रेखा पर तैनात संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों ने संयुक्त राष्ट्र सचिव को बताया कि समस्या की शुरुआत 5 अगस्त को तब हुई जब पाकिस्तान की तरफ से हथियारों से लैस सैनिक नियंत्रण रेखा पार कर भारतीय क्षेत्र में घुस गए।जब भारतीय सैनिकों ने उसकी इस घुसपैठ को रोकने का प्रयास किया तो,पाकिस्तान ने अपने हमले को और व्यापक करते हुए अमृतसर और उत्तर के अन्य शहरों में हवाई हमले की शुरुआत कर दी।पाकिस्तान ने गुजरात के द्वारिका बंदरगाह पर भी आक्रमण किया।
    उस समय लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे।वर्ष 1964 में पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद देश में एक शून्य पैदा हो गया था।जाहिर है,पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान को लगा कि शेष कश्मीर को हथिया लेने का इससे बढ़िया मौका फिर नहीं मिलेगा।
  • लेकिन भारतीय सेना ने पाकिस्तान को करारा जवाब दिया।इस क्रम में भारतीय सेना ने न सिर्फ पाकिस्तान अधिकृत गुलाम कश्मीर,बल्कि हाजी पीर गढ़ी पर भी कब्जा कर लिया।युद्ध चल ही रहा था कि 6 सितंबर,1965 को तत्कालीन गृहमंत्री वाई बी चव्हाण ने लोकसभा में कहा कि घुसपैठियों के रूप में भारतीय सीमा में आने वाले कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान के नियमित और अनियमित सैनिक हैं।दूसरी तरफ पाकिस्तान अपने आपको निर्दोष और मासूम साबित करने का ढोंग रचता रहा।बाद में वाई वी चव्हाण ने बताया कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान के तीन ठिकानों पर अपना कब्जा जमा लिया है।टीटवाल का उत्तरी भाग,जिसे घुसपैठिए आने जाने के रास्ते के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे,अब भारतीय कब्जे में था।दो दिनों बाद गृहमंत्री ने बताया कि भारतीय फौज ने हाजी पीर क्षेत्र के तीन मील पश्चिम स्थित पाकिस्तानी चौकी पर कब्जा कर लिया है।
  • कश्मीर के पुंछ सेक्टर में भी तीन महत्त्वपूर्ण पहाड़ियों पर भारतीय सैनिकों ने कब्जा जमा लिया था।इन पहाड़ियों का इस्तेमाल पाकिस्तान घुसपैठियों को मदद पहुंचाने के लिए कर रहा था।14 सितंबर को सरकार ने लोकसभा को सूचित किया कि हमने न सिर्फ हाजी पीर और टीटवाल क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण मार्गों पर अपना नियंत्रण जमा लिया है,बल्कि पाकिस्तानी क्षेत्र में घुसपैठियों के उपयोग में आने वाले प्रमुख मार्गों पर भी हमारी स्थिति मजबूत है ताकि भविष्य में पाकिस्तान की हरकतों पर नियंत्रण किया जा सके।उस हमले में भारत के द्वावगा (बड़गांव जिला) क्षेत्र के कुछ भू-भाग पर पाकिस्तान ने भी कब्जा कर लिया था।लेकिन रणनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान को नुकसान अधिक हुआ।20 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें तत्काल युद्ध विराम का निर्देश था।भारत ने युद्ध विराम को स्वीकार तो किया,लेकिन कुछ शर्तों के साथ।इस बाबत प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव को एक पत्र लिखा।प्रधानमंत्री ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव मुझे यह स्पष्ट करने दें कि जब युद्ध विराम हो,तो आगे की बातों को भी ध्यान रखा जाए।हम आगे इस तरह की घुसपैठ को बर्दाश्त नहीं करेंगे अन्यथा हमें घुसपैठ से निपटने की इजाजत दें।
  • बहरहाल,दो दिन बाद 22 सितंबर को युद्ध विराम घोषित कर दिया गया।लेकिन पाकिस्तान अपने आपको काफी असुविधाजनक स्थिति में पा रहा था।संयुक्त राष्ट्र के युद्ध विराम के निर्देश को स्वीकार करने के बावजूद तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने संयुक्त राष्ट्र संघ को आड़े हाथों लेते हुए यह धमकी तक दे डाली कि उनका देश हजार वर्षीय युद्ध की शुरुआत भी कर सकता है।
  • भुट्टो के इस तरह के बयानों के विरोध में विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह के नेतृत्व में भारत का प्रतिनिधिमंडल संयुक्त राष्ट्र संघ गया था।प्रतिनिधिमंडल ने भुट्टो के बयानों पर आपत्ति की और बैठक का बहिष्कार किया।इस बहिष्कार से भुट्टो तमतमा उठे।उन्होंने भाषा के सभी शिष्टाचारों की अनदेखी करते हुए कहा, “भारतीय कुत्ते घर जा रहे हैं।
    प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 24 सितंबर को लोकसभा को सूचित किया कि पाकिस्तान के विपरीत रवैये के बावजूद युद्ध विराम कर दिया गया है।लेकिन उन्होंने पाकिस्तानी नेताओं के बर्ताव की वजह से काफी कठिनाई भी महसूस की।
    भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा कि पाकिस्तान को अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके भारतीय राज्य जम्मू एवं कश्मीर से अपने घुसपैठियों को वापस बुला ले।लेकिन दिक्कत यह है कि पाकिस्तान तब से आज तक घुसपैठ की जिम्मेदारी लेने से भी कतरा रहा है।जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ महासचिव ने खुद इस बात की पुष्टि की है।

5.लाल बहादुर शास्त्री का आत्मविश्वास (Lal Bahadur Shastri’s confidence):

  • शास्त्री हाजी पीर और टीटवाला मार्गों पर कब्जा हो जाने की वजह से आत्मविश्वास से भरे हुए थे।उन्हें लगता था कि इन मार्गों पर नियंत्रण हो जाने के कारण आगे घुसपैठ को रोका जा सकता है।उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर पाकिस्तान अपने इसी रुख पर कायम रहा तो भारत अकेले ही इन घुसपैठियों से निपट लेगा और उन्हें अपने क्षेत्र से बाहर फेंक देगा।लेकिन ताशकंद में समझौते में सोवियत दबाव के कारण इन क्षेत्रों को छोड़ना पड़ा।और शास्त्री का मनोबल गिरा।सोवियत संघ का मित्र होने की वजह से भारत के सामने उनकी इज्जत बचाने का प्रश्न खड़ा हुआ।यह जानते हुए भी कि सोवियत संघ के इस प्रस्ताव से भारत की शांति भंग होगी,मजबूरन शास्त्री को उसे स्वीकार करना पड़ा।
  • ताशकंद-समझौते पर हस्ताक्षर करने से पहले ही शास्त्री जी बुरी तरह बिखर गए थे।वह जानते थे कि अब वे अपने उस वचन की रक्षा करने में सफल नहीं हो पाएंगे जिसे उन्होंने संसद में दिया था।उसी रात ताशकंद में ही दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
  • पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान खुशी-खुशी स्वदेश लौटे,क्योंकि जो जमीन उनकी सेना हार चुकी थी,उन्हें वापस मिल गई थी।लेकिन भारत को यह समझौता शास्त्री के निधन के रूप में काफी महंगा पड़ा।ताशकंद समझौते के मुताबिक दोनों देश विवाद को सुलझाते हुए अपनी-अपनी सेनाओं को बुला लेंगे और कोई किसी के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
  • जहां तक पाकिस्तान का सवाल है,तो ताशकंद में उसने जो भी वायदे किए उस पर वह कभी खरा नहीं उतरा।यहां तक कि अयूब खान जब पाकिस्तान वापस लौटे,तो भुट्टो ने उनके विरुद्ध नया मोर्चा खोल दिया।लिहाजा जो कुछ भी समझौते में लिखा हुआ था,अयूब खान को उसका पुनः मंथन करना पड़ा।
  • भारत में विदेश मंत्री स्वर्णसिंह ने नाराज संसद को समझाने का भरसक प्रयास किया कि ताशकंद समझौते में सब कुछ ठीक है।16 फरवरी,1966 को उन्होंने लोकसभा में कहा कि शास्त्रीजी ताशकंद में शांति की तलाश में गए थे।स्वर्ण सिंह ने कहा,”हमें इस बात की बेहद खुशी है कि शास्त्री जी अपने मिशन में बहुत कामयाब रहे।” स्वर्ण सिंह के अनुसार ताशकंद समझौते की तीन बातें महत्त्वपूर्ण थी।पहली बल प्रयोग से परहेज,दूसरा,एक दूसरे का आंतरिक मामलों में दखल नहीं देना और तीसरी,जम्मू-कश्मीर में युद्ध विराम रेखा का पूरी तरह पर्यवेक्षित किया जाना।यदि इन तीनों शर्तों को शास्त्री जी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव को बतायी गई शर्तों में जोड़ दिया जाए तो बात बन जाएगी।लेकिन जो कुछ स्वर्ण सिंह ने संसद को बताया उसके आगे ढेरों ‘अगर-मगर’ शब्द लग सकते थे,क्योंकि भुट्टो पाकिस्तान में समझौते का विरोध कर रहे थे।
  • जब सांसदों ने स्वर्ण सिंह का ध्यान भुट्टो के विरोध की ओर दिलाया तो उन्होंने सांसदों से कहा कि पाकिस्तान में इसका विरोध नहीं होना चाहिए।उन्हें समझौते में दर्ज महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना चाहिए,सिर्फ एक ही तरफ का नजरिया अख्तियार नहीं करना चाहिए।
  • स्वर्ण सिंह को भारत में सर्वाधिक सहयोग प्रणव मुखर्जी (भूतपूर्व राष्ट्रपति,भारत रत्न से सम्मानित) दे रहे थे।प्रणब मुखर्जी (मुखर्जी की जिद) का कहना था कि हाजी पीर मार्ग और टीटवाल को पाकिस्तान को वापस कर दिया जाना गलत निर्णय नहीं है।पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने लिखित रूप में आश्वासन दिया है कि वह आगे कभी सैन्य बल का प्रयोग नहीं करेंगे।लिहाजा इस पर खींचतान की कोई खास वजह नजर नहीं आती।उन्होंने कहा कि यदि पाकिस्तान घुसपैठियों को भेजना ही चाहे तो केवल यही दो रास्ते नहीं,जिनसे वह ऐसा कर सकता है।
  • कहना ना होगा कि कुछ ही समय पहले संयुक्त राष्ट्र संघ में भुट्टो ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल को ‘भारतीय कुत्ते’ कहकर पुकारा था।लेकिन इन सबके बावजूद प्रणव मुखर्जी पाकिस्तान के साथ व्यापक,खेल और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भीषण प्रचार में जुटे थे।इस बाबत उनका तर्क था कि ताशकंद समझौते के अनुसार यह सब किया जाना निहायत जरूरी है।लेकिन संसद में हर व्यक्ति उनकी इस बात से सहमत नहीं था।विपक्षी सदस्यों ने राजनीतिक स्थिति से हाथ खींच लेने पर सवाल भी उठाए।
  • लेकिन स्वर्ण सिंह संसद में समझौते को बचाने पर दृढ़ थे।उन्होंने संसद को याद दिलाया कि किस तरह पाकिस्तान ने ताशकंद में तीन महत्त्वपूर्ण बातों को स्वीकार किया था।उन्हें पूरी तरह विश्वास था कि इस समझौते के मद्देनजर भविष्य में कभी घुसपैठ नहीं होगी।यह जानते हुए कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री समझौते पर काफी हो हल्ला मचा रहे हैं,भारतीय विदेश मंत्री एक तरह से आश्वस्त थे,कि अब भविष्य में दोनों देशों के बीच शांति भंग होने की नौबत नहीं आएगी।
  • लोकसभा में तमाम विपक्षी सांसदों ने एक संशोधन प्रस्ताव रखा,जिसमें कहा गया कि भारतीय सेना द्वारा जीती गई जमीन को वापस करने से सरकार को रोका जाए।जब यह मामला राज्यसभा में आया,तो 17 फरवरी 1966 को अटल बिहारी वाजपेयी ने एक संशोधन प्रस्ताव रखा जिसमें कहा गया कि पाक अधिकृत गुलाम कश्मीर क्षेत्र की जो जमीन मुक्त करा ली गई है वहां से भारतीय सेवा को नहीं हटाया जाए।
  • संसद के एक वरिष्ठ और सम्मानीय विपक्षी सदस्य नाथ पई ने देश में व्याप्त निराशा का जिक्र किया।उन्होंने कहा,”मैं आपसे सीधे तौर पर पूछता हूं कि समझौते से देश का हर व्यक्ति नाखुश क्यों है? अंततः पाकिस्तान फिर घुसपैठियों को भारत में भेजेगा ही और जब समय आएगा तब यह भी कहेगा कि हमने उन्हें नहीं भेजा है।इस तरह की चीजों को आप क्या सुरक्षा प्रदान करना चाहते हैं?” स्वर्ण सिंह का जवाब था,” ऐसी किसी बात की क्या गारंटी है? इसके लिए हमें अपनी ताकत पर निर्भर होना होगा और दुनिया को बताना होगा कि अगर उन्हें घुसपैठिए भारत में आते हैं,तो इस समझौते से पहले हमारा जवाब होगा-उन्हें भून डालो,उन्हें रास्ते में फांसी पर लटका दो।यही हमारी विशेषता होगी।
  • बहरहाल समय गवाह है कि वही हुआ जिसकी विपक्ष को आशंका थी।ताशकंद समझौते का प्रकाश धूमिल पड़ गया।पाकिस्तान ने फिर घुसपैठिए भेजे।स्वर्ण सिंह की बात पूरी नहीं हुई।किसी भी घुसपैठिए को रास्ते में ही फांसी न दी जा सकी।पाकिस्तान अपनी राह चलता रहा और 1971 में भारत के विरुद्ध एक और जंग छेड़ दी उसने।

6.पाकिस्तान का भारत पर तीसरा हमला (Pakistan’s third attack on India):

  • वर्ष 1971 के युद्ध का कारण था भारत में बंगलादेशी शरणार्थियों की बाढ़ का आ जाना।अपने देश के पूर्वी भाग (पूर्वी पाकिस्तान) के अपनी नागरिकों पर पाकिस्तानी सेना ने कहर बरपाना शुरू कर दिया।नतीजा यह निकला कि एक करोड़ से भी अधिक पाकिस्तानी नागरिक पाकिस्तानी फौजों के कहर से बचने के लिए भारतीय सीमा में प्रवेश कर गए।जैसा कि अक्सर होता रहा है,इस बार भी अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश चुपचाप तमाशा देखते रहे।भारत में जो कुछ हो रहा था वह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दूसरी बड़ी घटना थी।लेकिन सोवियत संघ के अलावा कोई ऐसा देश नहीं था जो पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहया खान को चेतावनी देता।ना कोई यह पूछने वाला था कि भारत किस तरह से एक करोड़ पूर्वी पाकिस्तानियों को शरण और पानी देगा?
  • युद्ध शुरू हुआ।पूर्वी पाकिस्तान खत्म हुआ और बांग्लादेश का निर्माण हुआ।उन शरणार्थियों को अपना वतन मिल गया।जब पाकिस्तान को हार का सबक मिलने लगा,तो अमेरिका ने अपनी दादागिरी दिखाते हुए अपने सातवें जहाजी बेड़े को हिंद महासागर की ओर रवाना कर दिया।इसका सीधा अर्थ भारत को डराना-धमकाना था।लेकिन सोवियत संघ ने भारत का पक्ष लिया और अमेरिकियों को वापस जाने पर मजबूर होना पड़ा।इस युद्ध की समाप्ति 17 दिसंबर 1971 को हुई।
  • युद्ध में पाकिस्तान को काफी जलील होना पड़ा।पूर्वी क्षेत्र को खोने के अतिरिक्त पाकिस्तान को इस युद्ध में अपनी 5000 वर्ग मील जमीन पश्चिम में भी गंवानी पड़ी।इसके अतिरिक्त 93,000 से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिकों को भारतीय सेना के सामने घुटने टेकने पर विवश होना पड़ा।बाद में भुट्टो ने याहया खान को राष्ट्रपति पद से हटवा दिया और स्वयं राष्ट्रपति बन गए।पश्चिमी देशों ने दोनों देशों के बीच एक और शांति समझौते के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया।इस दबाव की वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति भुट्टो के बीच जुलाई 1972 में शिमला समझौता हुआ।
  • इस समझौते के तहत दोनों देशों ने अपनी समस्या का निदान बातचीत के जरिए करने पर सहमति प्रकट की।यह भी कहा गया कि यदि किसी समस्या का निराकरण किसी कारणवश नहीं हो हो पाता है,तो कोई भी पक्ष इस पर उग्र रुख अख्तियार नहीं करेगा।दोनों ही देश एक दूसरे की सीमा रेखा का सम्मान करेंगे और एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।17 दिसंबर,1971 के युद्ध विराम के बाद जम्मू-कश्मीर में जो सीमा रेखा है,उसका दोनों ही देश सम्मान करेंगे।इस रेखा के उल्लंघन का साहस कोई नहीं करेगा।और इस तरह शिमला समझौते के तहत एक सीमा रेखा का निर्धारण हो गया।
  • वर्ष 1972 के प्रारम्भ में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक ‘समाधान पैकेज’ की ओर इशारा किया जिसके तहत बताया गया कि कश्मीर विवाद एक ही बार में हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा।यह भी कहा गया कि भारत भुट्टो को इस बात पर सहमत कर लेगा कि जम्मू-कश्मीर में जो नियंत्रण देखा है उसे अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए।
  • दरअसल,शिमला में जब दोनों नेता मिले थे तो भारत का हाथ ऊपर था और शिमला में भारतीय प्रतिनिधिमंडल को भारतीय कुत्ते कहने वाले भुट्टो की स्थिति कमोबेश कुत्ते की ही थी।लिहाजा वर्ष 1966 वाला वह तेवर भुट्टो के पास कहीं नहीं था।इसके अतिरिक्त भुट्टो इंदिरा गांधी की खुशामद करने में लगे थे कि वह उन्हें और जलील ना करें तथा कुछ समय उन्हें उपलब्ध कराये।आखिर भारतीय जवानों ने अपना खून बहाकर जो 5000 वर्ग मील भूमि जीती थी उसे वापस कर दिया और उसके 10000 से अधिक सैनिक भी मुक्त कर दिए।इस तरह भुट्टो को अपने देश का वह पश्चिम भाग पुनः मिल गया,जिसे वे युद्ध में गँवा चुके थे।

7.पाकिस्तान का नया पैंतरा और संसद में हंगामा (Pakistan’s new move and uproar in Parliament):

  • भारत ने इस वार्ता को तो अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया,लेकिन इस्लामाबाद पहुँचते ही वर्ष 1966 की तरफ भुट्टो एक नया राग अलापने लगे।भुट्टो ने कहा कि पाकिस्तान के पास यह अधिकार सुरक्षित है कि वह कश्मीर मसले पर संयुक्त राष्ट्र संघ में जा सकता है।कुछ भी हो जाए कश्मीरियों द्वारा ‘आजादी’ के लिए किए जा रहे संघर्ष को पाकिस्तान का समर्थन जारी रहेगा।
  • खूबी तो यह है कि उस समय भी भारत के विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ही थे।उस समय भी वे शिमला समझौते की उपलब्धि का बखान करते नहीं थक रहे थे।वे भूल गये थे कि 1966 में ताशकंद समझौते के बाद उन्होंने क्या कहा था।3 जुलाई 1972 को उन्होंने राज्यसभा में कहा कि शिमला समझौता उपमहाद्वीप में द्विपक्षीय शांति के लिए उठाया गया पहला ठोस कदम है।उन्होंने आगे कहा कि इस पर यदि विश्वसनीय ढंग से काम किया जाए,तो यह भारत-पाक संबंध में नया आयाम लाने में सफल साबित होगा।लेकिन जैसा कि 1966 के समझौते में तमाम अगर-मगर आगे पीछे लगे थे,इस बार भी स्थिति वैसी ही थी।क्योंकि स्वदेश जाते ही भुट्टो ने एक बार फिर पैंतरा बदल लिया था।
  • इंदिरा गांधी खुद ही समझौते की जबरदस्त वकालत कर रही थी।उन्होंने कहा था,”हमें अपने अतीत को भूलने में कोई असुविधा नहीं होती,क्योंकि हमने कभी घृणा का उपदेश नहीं दिया है।” लेकिन पाकिस्तान के कर्मों को देखते हुए जिनमें उसने सिर्फ भारत-घृणा का ही प्रचार किया है,क्या यह संभव है कि अतीत के अनुभवों को भुला दिया जाए?”
  • बहरहाल,उन्होंने कहा कि उनकी ऐसी सोच महज आकांक्षा और तमन्ना नहीं है।वे सोचती है कि राष्ट्रपति भुट्टो अपने देश के लोगों को एक नए भविष्य में ले जाने के लिए ईमानदार प्रयास कर रहे हैं।उन्होंने तर्क दिया कि शिमला समझौते का महत्त्व ताशकंद समझौते से कहीं अधिक है।क्योंकि ताशकंद समझौते को भुट्टो ने अस्वीकार कर दिया था,लेकिन शिमला समझौता में वे खुद मौजूद थे।यहां दुर्भाग्य यह था कि न तो स्वर्ण सिंह ने,न इंदिरा गांधी ने 1966 में संयुक्त राष्ट्र में भुट्टो के उस व्यवहार को याद किया जिसमें उन्होंने भारतीय प्रतिनिधिमंडल को ‘कुत्ता’ कहा था।
  • जाहिर है कि इस बार भी संसद में वैसी ही बौखलाहट थी जैसी ताशकंद समझौते के बाद थी।इस बार सबसे अधिक विरोध का स्वर उठाने वाले अटल बिहारी वाजपेई थे।उन्होंने संसद में एक संशोधन प्रस्ताव पेश किया जिसमें कहा गया कि समझौता ‘लंबी शांति’ का आश्वासन नहीं देता जिसके लिए इंदिरा जी ने ‘समाधान पैकेज’ के माध्यम से वचन दिया था।संशोधन में यह भी कहा गया कि पाकिस्तान को भारतीय सेना द्वारा जीती गई 5400 वर्ग मील जमीन को लौटाना ही ठीक नहीं है,खासकर तब जब पाकिस्तान ने 30000 वर्ग मील जमीन पर अपना गैर-कानूनी कब्जा जमाए हुए हैं और यह जमीन संवैधानिक रूप से भारतीय जमीन है।विपक्ष के कई और सदस्यों के गले से नीचे यह बात नहीं उतरी कि किस तरह शिमला समझौता टिकाऊ शांति का कारक है।ऐसे लोगों में लालकृष्ण आडवाणी जैसे लोगों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।आडवाणी ने राज्यसभा में कहा था कि यह समझौता न सिर्फ देश और बलिदान देने वाले जवानों के प्रति धोखा है,बल्कि संसद की जानबूझकर की गई अवहेलना है।
  • भुट्टो हमसे बदला लेने की बात कर रहे हैं और इंदिरा जी यह कह रही है कि हमें भुट्टो को सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए नहीं तो हमारे सामने कठिनाई आ जाएगी।विपक्ष की आशंका फिर सच साबित हुई और कांग्रेस की उम्मीद झूठी (करगिल में)।कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के रुख में आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया है और न आने की संभावना है।

8.आतंकवाद से निपटने के उपाय (Measures to deal with terrorism):

  • (1.)दुनिया के तमाम देश शांति चाहते हैं।लेकिन पाकिस्तान के बारे में सोचने पर ख्याल आता है कि क्या पाकिस्तान की शांति का मतलब,भारत से घृणा करना है? और लगातार सशस्त्र घुसपैठियों को भेजते रहना है? अब ऐसे में भारत के साथ भी कई सवाल पैदा हो जाते हैं।क्या भारत को अपनी ‘सभ्य छवि’ से बाहर निकल जाना चाहिए और इस लंपट पड़ौसी के साथ लंपट ढंग से व्यवहार करना चाहिए?
  • पिछले 75 वर्षों के इतिहास को देखकर यह नहीं लगता कि पाकिस्तान के व्यवहार में या सोचने के तरीके में बदलाव आया है इसकी वजह भी है।पाकिस्तानी नेताओं के लिए शासन में बने रहने का सबसे बढ़िया जरिया भारत के साथ घृणा है।इससे आगे या पीछे कुछ भी नहीं।वे तभी तक अपनी ऊंची कुर्सी संभाल पाते हैं,जब तक वे कश्मीर घाटी में समस्या पैदा करते रहते हैं।लेकिन जैसे ही भारतीय सेना ठीक से जवाब दे देती है,जैसा कि 1965,1971,1999 में दिया,शांति-शांति चिल्लाने लगते हैं।फिर नए सिरे से शांति समझौते पर हस्ताक्षर होने लगते हैं।
  • जवाहरलाल नेहरू,लाल बहादुर शास्त्री,इंदिरा व अटल सभी ने शांति के खूब कबूतर (तोते) उड़ाये हैं।सभी ने सौहार्दपूर्ण माहौल बना रहे,इसके लिए प्रयास किये।इन सभी भारतीय नेताओं के साथ पाकिस्तान ने भी शांति संधि स्वीकार की।लेकिन भारत के प्रति उसका शत्रुतापूर्ण रवैया बदला नहीं।
  • वाजपेयी की बारी भी आई।यानी बारी दोनों मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों की आ गई।लेकिन क्या अटल जी को शांति संधि के समय भी वह बात याद है,जो उन्होंने वर्ष 1972 में कही थी? “पाकिस्तान एक लंपट राष्ट्र है।”आखिर भाजपा नेताओं को अब मानना ही पड़ा।
  • (2.)कश्मीर में सिरफिरे आतंकवादियों की चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत की अपनी आंतरिक सुरक्षा पर कड़ी नजर रखनी चाहिए।इस क्रम में यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि आईएसआई के एजेंटो की सक्रियता,परोक्ष रूप से आतंकवादियों के मंसूबों की ही सक्रियता है।चांदीपुर (उड़ीसा) में आईएसआई के दो एजेंट भारत के मिसाइल परीक्षण क्षेत्र में घुसने का प्रयास करते हुए पकड़े गए थे।सभी राजनीतिक दलों को आतंकवादी कार्यवाही के मुद्दे पर एक स्वर में बोलना चाहिए।
  • यही नहीं,भारत स्थित मदरसों,दरगाहों,खानकाहों से आतंकवादियों की भर्त्सना होनी चाहिए।कारण,जेहाद का ऐलान करने का अधिकार सिरफिरों को नहीं है।आतंकवादी इस्लाम धर्म का न तो आलिम ही है,न ही अगुआ।मुसलमान आतंकवादियों को ना तो अपना धार्मिक नेता मानते हैं न ही कौम का रहबर।इसलिए आतंकवादियों के सिरफिरेपन को मुसलमान या इस्लाम से जोड़ना उचित नहीं होगा।आतंकवादी विशुद्ध रूप से दहशतमंद इंसान है जो मजहब के सहारे इंसानियत को परेशान करना चाहते हैं।भारत ही नहीं,विश्व बिरादरी को आगे बढ़कर दुनिया को आतंकवादियों के आतंक से निजात दिलाना होगा।
  • (3.)सरकार ने आत्मसमर्पण कर चुके आतंकवादियों को जम्मू-कश्मीर तथा उत्तरी-पूर्वी राज्य में सीमा सुरक्षा बल तथा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में भर्ती की है।उत्तरी-पूर्वी राज्यों के करीब 1400 ऐसे यवकों को नौकरियां दी गई है।किंतु उनका पुनर्वास विवादों के घेरे में है (1998 में)।विपक्ष का दावा है कि अधिकांश नौकरियां आल त्रिपुरा टाइगर्स फोर्स से जुड़े कार्यकर्ताओं आतंकवादियों को दी गई,क्योंकि इस गिरोह का मार्क्सवादियों के साथ संबंध है।आतंकवाद से निपटने के लिए सुदृढ़ प्रशासनात्मक उपाय अत्यावश्यक है।स्थानीय प्रशासन की न तो उपेक्षा की जानी चाहिए,न ही हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • (4.)सुरक्षा का नियम है कि वह बाहरी दुश्मन पर निगरानी रखने में कामयाब रहती है,लेकिन अगर उसे यही काम अपने लोगों के बीच करना पड़े,तो वह सफल नहीं होती।भारतीय सुरक्षा एजेंसियां पाकिस्तानी खुफिया एजेंटों और आतंकवादियों से निपट पाने में कारगर हो सकती है,लेकिन हमारी और दूसरी सुरक्षा एजेंसियां अपने ही लोगों की निगरानी रख पाने में कामयाब नहीं हो सकती।यह देश के आम लोगों का फर्ज है कि वह ऐसी परिस्थितियों के प्रति सचेत रहें तथा देश के इन बाहरी दुश्मनों की सहायता करने वाले ज्यादा खतरनाक आंतरिक दुश्मनों को धर दबोचें।लेकिन उनके इन तमाम कारनामों को हमें विस्तार से समझकर एक स्थायी नीति तो बनानी पड़ेगी,क्योंकि पाकिस्तान बातों से नहीं मानने वाला।बातें वह हमेशा यही करता है कि वह शांतिपूर्ण ढंग से विमर्श का इच्छुक है।लेकिन इस विमर्श के बहाने वह हमेशा षडयंत्रों को अंजाम देता रहता है।
  • (5.)करगिल प्रकरण में जिस तरीके से भारत पूरी तरह से एकजुट हुआ है,देश के हर नागरिक ने जिस तरह अपनी एकजुटता दिखायी है,उसी तरह हमेशा उसे एकजुटता दिखानी चाहिए ताकि पाकिस्तान के इरादे हवा-हवाई रहें।
  • (6.)कश्मीर के युवाओं के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का चलाना तथा आत्मविश्वास बढ़ाने वाले दूसरे कार्यक्रमों का संचालन नागरिक प्रशासन को चलाना चाहिए पर सेना के जवान भी इन कार्यक्रमों को चलाकर कश्मीर की जनता का दिल जीत सकते हैं।कश्मीर से सेना को नहीं हटाया जाए क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित है और हमारा पड़ोसी आतंकवाद की मंडी है तथा ऐसे मक्कार व लंपट पड़ोसी का विश्वास नहीं किया जा सकता है।
  • (7.)’सीमा दस्ता’ चौकियों का निर्माण ‘ऑपरेशन’ तथा ‘सुरक्षा दस्तों’ की स्थापना करनी चाहिए।जिससे नौशेरा से पुंछ के बीच नियंत्रण रेखा 118 किलोमीटर लंबी सीमा से घुसपैठ पर नियंत्रण किया जा सकता है।
  • (8.)’स्पेशल टास्क फोर्स’ का संचालन राज्य पुलिस करे। इस टास्क को विशिष्ट सूचना पर कार्यवाही करने का जिम्मा सौंपा जाए।सुरक्षा दस्ते,ग्रामीण सुरक्षा समितियों तथा विशेष पुलिस अधिकारियों के साथ मिलकर आतंकवादी गतिविधियों की रोकथाम करेंगे।
  • (9.)स्थानीय मंत्री,राजनीतिक नेता सुरक्षा बलों द्वारा पकड़े गए लोगों को निर्दोष तथा पार्टी कार्यकर्ता बताकर छोड़ने का दबाव डालना बंद करें।गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति की राजनीतिक नेताओं को भर्त्सना करनी चाहिए।स्थानीय जनप्रतिनिधि तथा विधायक अपने इलाके का दौरा करें क्योंकि उन्हें पूरी सुरक्षा मुहैया कराई जाती है।इसे प्रशासन तथा जनता के बीच संपर्क बना रहता है।
  • (10.)एक आतंकवादी को मारो और हजारों को डराओ।साथी ही आतंकवादियों को जेल में बंद रखने का कोई औचित्य नहीं है।
  • (11.)स्थानीय लोगों को आतंकवादियों की मदद देना बंद करें चाहे वह कितना ही निकट संबंधी हो।स्थानीय लोगों को आतंकवादियों से डरना नहीं चाहिए तथा वे कोई प्रलोभन देते हैं तो प्रलोभन में न फंसे।
  • अंतिम बात ‘सोचना भारत और सिर्फ भारत को है कि वह पाकिस्तान जैसे मक्कार और लंपट पड़ौसी से कैसे निपटे?’
  • उपर्युक्त आर्टिकल में भारत में आतंकवाद का खात्मा कैसे हो? (How to End Terrorism in India?),आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या (Terrorism is a Worldwide Problem) के बारे में बताया गया है।

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9.भारत में आतंकवाद का खात्मा कैसे हो? (Frequently Asked Questions Related to How to End Terrorism in India?),आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या (Terrorism is a Worldwide Problem) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.विमान अपहरण में कौनसे प्रश्न कुरेदते हैं? (What questions do plane hijackings grapple?):

उत्तर:अफसोस यह नहीं है कि हमने मुस्ताक अहमद जरगर,मुहम्मद मसूद अजहर और अहमद उमर सईद शेख जैसे कट्टरपंथी उग्रवादियों को यात्रियों के रिहा करने की एवज में छोड़ा।मुख्य चिंता की बात यह है कि भारत की कूटनीति और हमारी तथाकथित विदेश नीति इस पूरे मामले में जिस तरह कमजोर साबित हुई है,आखिर उनके लिए कौन जिम्मेदार है? हमारे नीतिगत वैदेशिक रिश्ते या हमारी तात्कालिक सरकार की कूटनीतिक कार्यवाही की असफलता? भारत कोई छोटा-मोटा देश नहीं है।यह एक अरब से अधिक लोगों का देश है।आने वाली नई सहस्राब्दी में उसके महाशक्ति बनने की संभावनाएं भी हैं।हमारे पास अपनी एक स्वतंत्र कूटनीतिक पहचान और विश्व नीति है।फिर हमें विमान अपहरण के मामले में अलग-थलग क्यों होना पड़ा? आखिर भारत जैसे ताकतवर देश को इस कदर बेबसी का सामना क्यों करना पड़ा।

प्रश्न:2.भारत विमान अपहरण के मामले में हाशिये पर क्यों रहा? (Why did India remain marginalized in the matter of plane hijacking?):

उत्तर:भारत के विदेश मंत्रालय को और खुद प्रधानमंत्री को अपहरण कर्त्ताओं के विरुद्ध विश्व जनमत बनाने के लिए अलग-अलग देशों में चिट्टियां क्यों लिखनी पड़ी? आखिर किसी देश ने भारत को इस लायक क्यों नहीं समझा कि वे बिना चिट्ठियां पाये ही अपनी प्रतिक्रिया भारत के पक्ष में व्यक्त कर दें।यह कोई ऐसी अपेक्षा नहीं है जो बहुत महत्त्वाकांक्षी हो या इसके लिए बहुत कुछ प्रभाव विस्तार की जरूरत हो।यह एक सहज और मानवीय अपेक्षा है।मगर भारत को इस अपेक्षित प्रतिक्रियाओं के लिए भी चिरौरी करनी पड़ी।
क्या यह विश्व में हमारी प्रभावितहीनता को नहीं दर्शाता? यह प्रभावितहीनता क्यों और कैसे बनी? अगर पाकिस्तान जैसा अदना सा देश या इराक जैसा अमेरिका विरोधी देश विश्व में अपनी एक पक्षधर ताकत रखते हैं तो फिर भारत को इस तरह की ताकत क्यों नहीं नसीब है,जबकि भारत न केवल जनसंख्या और क्षेत्रफल के मामले में एक बहुत बड़ा देश है,बल्कि नए आर्थिक दौर में भारत दुनिया में एक बड़ी मंडी के रूप में उभर रहा है जिसमें हिस्सेदारी करने के लिए दुनिया के सभी ताकतवर देश एन-केन-प्रकारेण कोशिशों में लगे हैं।अमेरिका हो,जर्मनी हो,फ्रांस हो,इंग्लैंड हो या जापान सारे के सारे देश भारत में अपने उत्पादों को खपाने के लिए हर तरह के हथकण्डों का इस्तेमाल करते हैं।इन देशों को ऐसा क्यों नहीं लगा कि इस मामले में उन्हें भारत के साथ खड़े होकर भारत को खुश करना चाहिए?

प्रश्न:3.क्या विमान अपहरण में हमारा ढुलमुल रवैया रहा है? (Have we been lackadaisical in the hijacking?):

उत्तर:इसके लिए हमारी सरकार,उसका ढुलमुल रवैया और उसका अदूरदर्शी कूटनीतिक दर्शन जिम्मेदार है।दरअसल भाजपा नेतृत्व वाली उस गठबंधन सरकार के बारे में पूरी दुनिया में अनेक तरह की गलतफहमियां मौजूद है।पश्चिमी देश इस सरकार को दक्षिणपंथी सरकार मानते हैं और अगर खुल्लम-खुल्ला इस बात को कहते नहीं है,तो भी इसके साथ बर्ताव करते समय अतिरिक्त सजगता रखते हैं।लेकिन दूसरी तरफ मजेदार बात यह है कि वे देश भी जहाँ दक्षिणपंथी ताकते मौजूद हैं और निर्णायक हैसियत में है,वे भी भारत को शंका की दृष्टि से देखती हैं।भारत की उस समय सरकार की विश्वभर में एक अस्पष्ट और भ्रामक छवि थी।उसके साथ दुनिया की कोई भी दूसरी धुरी मजबूती के साथ नहीं खड़ी रही।गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी और उसके सिद्धांतकार दशकों से इजरायल के साथ अपनी दोस्ती और इसराइल संघर्ष के साथ (जो कि इस्लामिक शक्तियों के विरुद्ध है) अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते रहे हैं।किंतु इसराइल भी इस अपहरण कांड में भारत के साथ किसी सरगर्मी के साथ खड़ा नजर नहीं आया,जबकि इस्लामी दुनिया में इसराइल हमेशा एक ताकतवर शक्ति के रूप में चिन्हित होता है।दक्षिणपंथी इस्लाम विरोधी ताकत से निपटने में निपुण इजरायल अगर इस मामले में भारत के साथ प्रभावशाली ढंग से खड़ा नजर आता,तो संभवतः यह अपहरण कांड दुनिया की कूटनीति के लिए एक गंभीर मुद्दा बन जाता क्योंकि इजरायल की पक्षधरता का असर अमेरिका की पक्षधरता पर भी पड़ता है।ध्यान देने की बात यह भी है कि भारत सरकार के प्रधान सलाहकार बृजेश मिश्रा,जो कि भारत की विदेश नीति के पुराने जानकर हैं,भी इस्राइल के साथ अतिरिक्त स्नेह रखते थे।लेकिन इस सबके बावजूद इस्राइल ने भारत के इस विमान अपहरण कांड के बारे में चौथे दिन एक घिसी-पिटी निन्दा ही व्यक्त की।हालांकि यह नहीं पता कि प्रधानमंत्री ने इस्राइल को भी पत्र लिखा था या नहीं,लेकिन जिस तरह से इस्राइल ने इस मामले की अनदेखी की और अंत में एक खानापूरी करके सारे प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ लिया,उसको देखते हुए ऐसी संभावना व्यक्त करना आश्चर्यजनक नहीं होगा कि इस्राइल को भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखनी पड़ी होगी।
आखिर इस पूरे प्रकरण से क्या साबित होता है।इस पूरे प्रकरण से स्पष्ट तरीके से तीन बातें खुलकर सामने आती हैं।एक,भारत की कोई वैश्विक समूहबद्धता नहीं है।दो,भारत का दुनियावी स्तर पर कोई असर नहीं है।तीन,भारत आतंकवादी ताकतों से निपटने में विश्व से अलग-थलग पड़ चुका है।

उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा भारत में आतंकवाद का खात्मा कैसे हो? (How to End Terrorism in India?),आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या (Terrorism is a Worldwide Problem) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

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