How to Become Youth Passionate?
1.युवा भावनाशील कैसे बनें? (How to Become Youth Passionate?),भावुकता और भावना में से किसका विकास करें? (Which to Develop Between Sentimentality and Emotion?):
- युवा भावनाशील कैसे बनें? (How to Become Youth Passionate?) क्योंकि भावना के बिना व्यक्ति निष्ठुर व कठोर हृदय होता है।जबकि भावना एक गहन अनुभव है,जिसमें हम जीते हैं।यह जीवन का अभिन्न अंग है,जिसके बिना जीवन अधूरा,एकांगी एवं सूना-सा हो जाता है।जीवन में भावना होती है,तो सब हो जाता है और खोती है,तो सब खो जाता है।यह होती है तो जीवन गहराई लिए हुए होता है,जिसमें संबंधों की मधुर सुगंध फैलती है और यह नहीं होती है तो जीवन उतना ही कृत्रिम होता है,जितना नाटक में नाटकीयता होती है।दीखने और दिखाने के लिए यह सब बड़ा अच्छा होता है,परंतु इसमें कहीं अपना और अपनापन नहीं होता है।
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2.भावना और भावनाविहीन से क्या तात्पर्य है? (What Do You Mean by Emotion and Emotionless?):
- भावना के अभाव में जीवन रेगिस्तान जैसा शुष्क,बंजर एवं कांटों से भरा होता है,जो स्वयं को चुभता है,काटता है और औरों को भी इस चुभन का एहसास दिलाता है।भावना से शुष्क जीवन में भले ही कितनी भी चकाचौंध क्यों ना हो,लेकिन इससे स्थायी संबंध की कल्पना नहीं की जा सकती है; क्योंकि कृत्रिमता रंगमंच के लिए होती है,यथार्थ जीवन के लिए नहीं।नाटक के पात्र स्वयं को बेहतर समझते हैं कि वे कौन हैं और उनका क्या अस्तित्व है और इसे देखने वाले भी जानते हैं कि यह तो मात्र एक मनोरंजन है,जो एक दिन समाप्त हो जाएगा।
- भावना के अभाव में जीवन की समस्त सम्पदाएँ एवं उपलब्धियाँ निर्जीव एवं नीरस प्रतीत होती हैं।संवेदना विहीन जीवन को कोई चाहे जितना भी सजा-सँवार ले,ऐसा जीवन निरर्थक ही प्रतीत होता है।कृत्रिम पुष्प को कितना भी सजा लिया जाए,एक प्राकृतिक पुष्प के सौंदर्य के सामने वह पल भर भी नहीं टिक सकता।वैसे ही भावना विहीन व्यक्ति कितनी भी बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर ले,वह एक भावनासंपन्न व्यक्ति के सामने तुच्छ-सी जान पड़ती हैं।आधुनिक जीवन का बाह्य श्रृंगार,आंतरिक सौंदर्य के सामने नगण्य है।यह आंतरिक सौंदर्य और कुछ नहीं,बल्कि भावनाशीलता ही है।
- वर्तमान युग में हुए अनगिनत आविष्कारों एवं खोजों ने जीवन को बड़ा आसान कर दिया है।इससे सफलता एवं उपलब्धियों में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई,परंतु सफलता के इस शिखर पर कोई चीज जो अछूती रह गई,वह है:भावनात्मक विकास।इसके अभाव में शेष सारी चीजों ने हमें एवं हमारे जीवन को यांत्रिक बना दिया है।यांत्रिकता जीवन की नैसर्गिकता को विकृत कर देती है और जीवन निराशा,हताशा एवं विषाद के तमस में घिर जाता है।
- ऐसे जीवन में सब कुछ होता है,परंतु अपनापन नहीं होता,संबंध नहीं होते,संबंधों का सौंदर्य एवं सरसता नदारद होती है; जबकि घोर अभाव में भी भावना हमें अंदर से तृप्त कर देती है।हम बाह्य रूप से भले ही निर्धन हों,किंतु आंतरिक रूप से समृद्ध होते हैं।ऐसी समृद्धि कैसे मिल सकती है,तो इसका उत्तर एक ही है कि संवेदनशीलता ही आंतरिक समृद्धि का पर्याय है।सम+वेदना,संवेदना का तात्पर्य है:औरों के सुख-दुःख का समान अनुभव होना।यदि कोई सुखी है तो उसके सुख का अनुभव कर उसके साथ आनंद मनाना,न कि ईर्ष्या करना और यदि कोई दुखी है तो उसके प्रति सहानुभूति रखना न कि प्रसन्न होना।संवेदनशीलता के अभाव में इसके ठीक विपरीत अनुभव होता है,सुखी के प्रति ईर्ष्या एवं दुखी के प्रति निष्ठुरता का भाव प्रदर्शित होता है।
- संवेदना हो तो व्यक्तित्व परिष्कृत होता है और दूसरों की पीड़ा के प्रति सजगता विकसित होती है।संवेदना विकसित होने से एकदूसरे के प्रति समझ पैदा होती है,उससे हम एकदूसरे से प्रभावित होते हैं और एकदूसरे को प्रभावित करते भी हैं।यह संवेदना जितनी गहन होती है,उतना ही मजबूत हमारे संबंधों का आधार होता है।संवेदनाविहीन संबंध ताश के पत्तों के समान ढह जाते हैं,बालू की धरा के समान पल भर में बालू में ही मिल जाते हैं।संवेदनात्मक संबंध मानवीय होते हैं,जिसमें आदान-प्रदान प्रमुख होता है।लिया है,तो देना भी होता है,परंतु जो केवल लेना जानता है देना नहीं,वह पैशाचिक संबंध है।इसके विपरीत जो केवल देना जानता है,लेना नहीं,उसे दैवीय संबंध कहते हैं।इन संबंधों का आधार हमारी समझ होती है और इन संबंधों से एक गहरा विश्वास पैदा होता है।
- विश्वास में शक,संदेह एवं संशय का कोई स्थान नहीं होता है।विश्वास में लेन-देन का भाव नहीं होता है और यह भाव जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है तो सात्त्विक प्रेम का जन्म होता है।कहते हैं कि सात्त्विक प्रेम तो बस,भगवान के साथ संभव है; क्योंकि इस प्रेम का आधार संवेदना,विश्वास,आत्मीयता की धुरी पर टिका होता है:आदान-प्रदान,लेन-देन,लाभ-हानि जैसे व्यावसायिक मानदंडों पर नहीं।
- ऐसा सात्त्विक प्रेम जब प्रगाढ़ होता है तो श्रद्धा जन्म लेती है,जिसके होने का केवल अनुभव किया जा सकता है।इस अनुभव का अंत भक्ति के शिखर पर होता है।भावना के विकास की यात्रा भक्ति-द्वार पर पहुंचकर संपन्न होती है।जहां सब एक हो जाता है,वहां द्वैत नहीं,अद्वैत होता है।मैं और मेरा का भाव विलीन होकर केवल तुम और तुम्हारा का भाव शेष रह जाता है।इस भावानुभूति की अभिव्यक्ति वैसे ही नहीं हो सकती,जैसे गूँगे व्यक्ति के लिए गुड़ का स्वाद बता पाना संभव नहीं है।
- भावना के विकास के साथ ही स्वार्थपरता एवं अहंकार विलन हो जाते हैं और जागृत होता है,परमात्मा के लिए वह भक्ति भाव,जो स्वयं को उत्सर्ग करने से भी कतराता नहीं है।ऐसा जीवन मानवता के कल्याण के लिए होता है और उसके अंतस में केवल परमात्मा होता है।अतः जीवन को भावमय बनाना चाहिए।जीवन के हर-पल,हर-क्षण को भगवदमय बनाकर,केवल उसी के लिए ही जीवन केंद्रित करना चाहिए।ऐसा भगवदमय जीवन जब हो जाता है तो परमात्मा उसे अपनी गोद में उठा लेते हैं।संवेदना के सोपानों पर चढ़ती हुई यह जीवनयात्रा भक्ति के शिखर पर पहुंचकर संपन्न होती है।
3.भावनात्मक अपरिपक्वता का परिणाम (Consequences of Emotional Immaturity):
- भावनाएं मनुष्य जीवन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं और ये हमारे जीवन को भी हरक्षण-प्रतिफल प्रभावित करती हैं।इनका हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।भावनाएं ही सच्चे अर्थों में मनुष्य के व्यक्तित्व को गढ़ती हैं।भावनाओं की परिपक्वता के आधार पर ही व्यक्तित्व,परिपक्व व विकसित होता है और भावनाओं की अपरिपक्वता ही व्यक्ति को कमजोर व रुग्ण मन: स्थिति का बना देती है।जिस रूप में हमारी भावनाएं होती हैं,उनकी अभिव्यक्ति भी उसी रूप में होती है।सकारात्मक भावनाएं जहां हर्ष,प्रसन्नता,उत्साह,उमंग,साहस,संतोष व आत्मविश्वास के रूप में अभिव्यक्त होती हैं,वहीं नकारात्मक भावनाएं ईर्ष्या,द्वेष,दुःख,असंतोष,चिंता,आत्महीनता,असुरक्षा आदि के रूप में प्रकट होती हैं।हमारी भावनाएं चाहे जैसी भी हों,लेकिन उनका प्रभाव हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।
- भावनाएं यदि अपरिपक्व स्थिति में हैं,तो ऐसे लोग अत्यंत भावुक प्रकृति के होते हैं।अपने निर्णय स्वयं नहीं ले पाते।थोड़े से दुःख में बहुत दुखी और जरा-सी खुशी में बहुत खुश हो जाते हैं।जीवन में आने वाली थोड़ी-बहुत परेशानियां इन्हें बहुत विचलित कर देती हैं और कठिनाइयों के सामने तो ये हार मानकर बैठ जाते हैं।भावनात्मक रूप से अपरिपक्व लोग थोड़ी विषम परिस्थितियों में ही विचलित हो जाते हैं।इनमें स्थिरता,एकाग्रता बहुत कम होती है,ये अधिकतर द्वंद्व की स्थिति में होते हैं और कभी-कभी कुंठाग्रस्त भी होते हैं।इनमें आत्महीनता व असुरक्षा की भावना अधिक होती है।ऐसे लोग ही भावनाओं के आवेग में आकर कभी-कभी आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं।
- भावनात्मक रूप से अपरिपक्व व्यक्तियों के जीवन में यदि कोई बड़ा दुःख आता है,तो वह उसे सहन नहीं कर पाते और जीवन से हार मान बैठते हैं।अपने ही सोच के सीमित दायरे में परिस्थितियों व घटनाओं को ये सही-गलत मान लेते हैं और यथार्थ को जानने का प्रयास नहीं करते।भावनात्मक रूप से अपरिपक्व व्यक्तियों के अंदर सकारात्मक भावनाओं के साथ-साथ नकारात्मक भावनाएं भी अधिक पोषित होती हैं और अपना प्रभाव डालती हैं।जैसे:ईर्ष्या करने वाले लोगों की भावनाएं उनकी प्रसन्नता व स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाती हैं।ईर्ष्या करने वाला व्यक्ति न तो स्वयं खुश रह पाता है और न दूसरों को खुश रहने देता है।
- भावनाओं में बहकर कभी भी अपने जीवन के निर्णय नहीं लेना चाहिए; क्योंकि ऐसी नाजुक मन:स्थिति में लिए गए निर्णय भविष्य के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होते हैं।दूसरों से बदला लेने,हानि पहुंचाने व द्वेष जैसी भावनाएं ऐसी हैं,जो व्यक्ति की कार्य शक्तियों को समाप्त कर उसकी प्रगति के मार्ग में बाधक बनती हैं और ऐसी भावनाओं वाला व्यक्ति जीवन में कभी सफल नहीं हो पाता।
- इस तरह नकारात्मक भावनाएं हमारे शरीर के स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।यदि इन भावनाओं पर हम अपना नियंत्रण करना सीखें और इन्हें सकारात्मक रूप दें तो ये हमारे लिए स्वास्थ्यवर्द्धक होने के साथ-साथ अच्छे व्यक्तित्व के निर्माण में भी सहायक होंगी और इससे हमारी भावनाओं का विकास भी होगा।
4.भावनाओं पर नियंत्रण करें (Control Emotions):
- अपने जीवन में अधिक से अधिक दूसरों की मदद करना चाहिए,यथासंभव सहायता के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए और बुजुर्गों की सेवा करनी चाहिए।नित्यप्रति अपने जीवन में कुछ ना कुछ अच्छा पढ़ने की आदत डालनी चाहिए,जिससे व्यक्ति सकारात्मक विचारों के संपर्क में रहता है और किताबों को पढ़ने से उसे दूसरों के अनुभवों के बारे में भी पता चलता है।अपने मन को विभिन्न तरीकों से यथासंभव स्थिर व एकाग्र करने की कोशिश करनी चाहिए।मन जितना अधिक स्थिर व एकाग्र होता है,अपनी भावनाओं पर व्यक्ति का उतना ही अधिक नियंत्रण होता है और इससे व्यक्ति की समझने की क्षमता का भी विकास होता है।
- जिंदगी में मिलने वाली कठिनाइयों व संघर्षों से व्यक्ति को घबराना नहीं चाहिए,बल्कि इनका सामना करना चाहिए; क्योंकि कठिनाइयाँ हमें निखारने के लिए आती हैं हमें कुछ ना कुछ अनुभव का उपहार देकर जाती हैं।भावनाओं में सबसे ज्यादा उथल-पुथल रिश्तों को निभाने में होती है।इसलिए अपने रिश्तों को विश्वास के धरातल पर परखना चाहिए और तब ही आगे बढ़ना चाहिए।
- अपने जीवन में चाहे जितने भी रिश्ते हों,लेकिन एक रिश्ता भगवान से भी रखना चाहिए और अपने मन की हर बात को उनसे बताना चाहिए।यह संवाद भले एक तरफा होता है,लेकिन जिंदगी की बहुत सारी उलझनों को सुलझाता है।इससे हमारी भावनाओं को संबल मिलता है कि कहीं कोई है,जो हमारा ध्यान रखता है और मुसीबत के समय भी हमें गिरने नहीं देता,संभाल लेता है।इसके साथ अपने कर्त्तव्य का पालन व प्रबल पुरुषार्थ करने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए।जिंदगी स्वयं में एक शिक्षक की तरह है,जो हर कदम पर शिक्षण देती है और देर-सबेर हमें भावनाओं के स्वस्थ विकास में मदद करती है।
- भावनाओं का स्वस्थ विकास होने से मनुष्य न केवल अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास कर पाता है,वरन औरों के जीवन को भी समग्रता से प्रभावित कर पाता है।अधिकांश मनुष्य इस धरती पर रोते हुए आते हैं,शिकायतें करते हुए जीते हैं और पश्चाताप करते हुए जाते हैं,किंतु मात्र वही अपने जीवन में संतुष्टि प्राप्त कर पाते हैं,जो ऊँचे उद्देश्यों के लिए जीते हैं,समाज के लिए मरते हैं और ऐसे ही व्यक्ति भावनात्मक रूप से परिपक्व होते हैं।जीवन का सत्य यही है कि हम भावुक नहीं,परिपक्व भावना से संपन्न बनें।
उपर्युक्त आर्टिकल में युवा भावनाशील कैसे बनें? (How to Become Youth Passionate?),भावुकता और भावना में से किसका विकास करें? (Which to Develop Between Sentimentality and Emotion?) के बारे में बताया गया है।
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5.शैतान का गुरु (हास्य-व्यंग्य) (Satan’s Master) (Humour-Satire):
- गणित शिक्षक:सोमेंद्र,बार-बार सवाल समझाने पर भी तुम ध्यान नहीं देते हो।तुम बहुत शैतान हो गए हो।
- सोमेंद्र:सर,धीरे बोलिए,कोई सुन लेगा।
- गणित शिक्षक:तो क्या होगा?
- सोमेन्द्र:फिर लोग आपको शैतान का गुरु कहने लगेंगे।
6.युवा भावनाशील कैसे बनें? (Frequently Asked Questions Related to How to Become Youth Passionate?),भावुकता और भावना में से किसका विकास करें? (Which to Develop Between Sentimentality and Emotion?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.भाव और कृत्य में क्या संबंध है? (What is the Relation Between Emotion and Action?):
उत्तर:भाव से विचार और विचार के अनुसार कृत्य बनते हैं।अतः यह संसार हमारी भावनाओं का ही तो रूप है।हम जैसा स्वयं विचार करते हैं,जिन कल्पनाओं में व्यस्त रहते हैं,वैसा ही दूसरों को भी समझते हैं।अपने व्यक्तित्व के अनुसार ही हम दूसरों के चरित्र परखते हैं,उनके अच्छे-बुरे होने की पहचान करते हैं।संसार के व्यक्ति आयने या शीशों की तरह हैं,जिनमें हमारा प्रतिबिंब दीखा करता है,हमारे विचार,मंतव्य,भावनाएं,योजनाएं,कल्पनाएं साकार हो उठती हैं।
प्रश्न:2.परदोष दर्शन का मनोविज्ञान क्या है? (What is the Psychology of Fault-Finding in Another Person?):
उत्तर:जिन व्यक्तियों में आपको त्रुटियां दृष्टिगोचर होती हैं,धीरे-धीरे उनके खिलाफ आप एक अंधविश्वास मन में रख लेते हैं।फिर आपको उनमें दोष ही दोष नजर आने लगते हैं।इन दोषों का कारण केवल उस व्यक्ति में ही नहीं स्वयं आपमें भी है।खुद आपके दोष उस व्यक्ति में प्रतिबिंबित होते हैं।परदोष दर्शन एक मानसिक रोग है।जिसके मन में यह रोग उत्पन्न हो गया है,वह दूसरों में अविश्वास,भद्दापन,मानसिक,नैतिक कमजोरी देखा करता है।अच्छे व्यक्तियों में भी उसे त्रुटि और दोष का प्रतिबिंब मिलता है।अपनी असफलताओं के लिए भी वह दूसरों को दोषी ठहराता है।
संसार एक प्रकार का खेत है।किसान खेत में जैसा बीज फेंकता है,उसके पौधे और फल भी वैसे ही होते हैं।प्रकृति अपना गुण नहीं त्यागती।आपने जैसा बीज बो दिया,वैसा ही फल आपको प्राप्त हो गया।बीज के गुण वृक्ष की पत्ती-पत्ती और अणु-अणु में मौजूद रहते हैं।आपकी भावनाएं ऐसे ही बीज हैं,जिन्हें आप अपने समाज में बोते हैं और उन्हें काटते हैं।आप इन भावनाओं के अनुसार ही दूसरे व्यक्तियों को अच्छा-बुरा समझते हैं।स्वयं अपने अंदर जैसी भावनाएं लिए फिरते हैं,वैसा ही अपना संसार बना लेते हैं।आईने में अपनी ओर से कुछ नहीं होता।इसी प्रकार समाज रूपी आईने में आप स्वयं अपनी आंतरिक स्थिति का प्रतिबिंब प्रतिदिन प्रतिपल पढ़ा करते हैं।
प्रश्न:3.परदोष दर्शन का क्या परिणाम मिलता है? (What is the Result of the Fault-Finding in Another Person?):
उत्तर:यदि हमें कोई ऐसा शीशा प्राप्त हो जाए,जो हमें आंतरिक विकारों,दुर्भावनाओं,कुकल्पनाओं का मूर्त रूप साकार कर दे तो हमें यह देखकर आश्चर्य होगा कि हमारे अंतर्प्रदेश में कितनी गंदगी और विकार एकत्रित हो गए हैं? आंतरिक गंदगी के फलस्वरूप ही प्रायः हमें संसार में कुरूपता और दोष का वातावरण दृष्टिगोचर होता है।हम जैसा देंगे,वैसा ही लेंगे।जब हम अनिष्टकर दोष-दर्शन वाली दुष्परवृत्ति लेकर संसार में निकलते हैं तो बदले में हमें दोष,असफलताएं,प्रमाद,झूठ,कपट मिथ्याचार ही प्राप्त होगा।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा युवा भावनाशील कैसे बनें? (How to Become Youth Passionate?),भावुकता और भावना में से किसका विकास करें? (Which to Develop Between Sentimentality and Emotion?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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