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How to Be Free From Malice?

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1.द्वेष से मुक्त कैसे हों? का परिचय (Introduction to How to Be Free From Malice?),समस्याओं की जड़ द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to Get Rid of Malice at Root of Problems?):

  • द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to Be Free From Malice?) द्वेष का अर्थ है चित्त का वह भाव जो व्यक्ति का नाश करने की प्रेरणा करता है,राग का विरोधी भाव,शत्रुता,वैर रूप आदि।द्वेष से अहंकार पैदा होता है जो व्यक्ति के समूल नाश का कारण बनता है।
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2.द्वेष से ग्रस्त होने के दृश्य (Scenes of malice):

  • दृश्य एक:द्वेषग्रस्त व्यक्ति अपनी बड़ी-बड़ी उपलब्धियों को कौड़ी के मौल गंवा देते हैं।दुर्योधन के यहां दुर्वासा जी गए।उसने उनके 10000 शिष्यों सहित उनका भरपूर आथित्य तीन माह तक किया।परम तपस्वी दुर्वासा उसके आथित्य से संतुष्ट हुए।उन्होंने उसे इच्छित वरदान मांगने को कहा।विवेकपूर्वक सोचकर मांगता,तो वह अक्षय राज्य,या पारिवारिक सौहार्द्र,सद्गति कुछ भी मांग सकता था।परंतु ईर्ष्यालु,विद्वेषी का विवेक साथ ही नहीं दे पाता।
  • दुर्योधन ने सोचा-पांडवों का अनिष्ट शक्ति प्रयोग से मैं तो नहीं कर सकता,ऋषि की तपशक्ति से करा सकता हूं।उसे पता था,पांडव वन में अभाव का जीवन जी रहे हैं।उनके पास सूर्य का अक्षय पात्र भर है।जिसमें इच्छित मात्रा में भोजन कर सकते हैं,परंतु उसकी मर्यादा थी कि जब अंतिम व्यक्ति भोजन करके उसे धो दे,तो फिर उसे भोजन प्राप्त नहीं किया जा सकता था।
  • दुर्योधन ने सोचा-द्रौपदी भोजन करके पात्र धो चुके,तब ऋषि पहुंचे और आथित्य ना हो पाने से क्रोध करके श्राप दें,तो पांडवों का अनिष्ठ हो सकता है।वह प्रकट में बोला-“ऋषि! आप हम पर प्रसन्न हैं,तो हमारे भाई पांडवों का भी आथित्य स्वीकार करें।उन्हें भी आपके सान्निध्य का लाभ मिलेगा।यही मेरी कामना है,पर आप उनके पास मध्याह्न में तब पहुंचे,जब वे सब भोजन कर चुके हों।”
    ऋषि भाव समझते हैं।समझ गए कि दुर्योधन किस दुर्भाव से यह मीठे वचन बोल रहा है।उन्होंने सोचा-अच्छा हुआ,इस दुर्मति को कोई अच्छा वरदान नहीं देना पड़ा।उन्होंने तथास्तु कह दिया।
  • वायदे के अनुसार,दुर्वासा दस हजार शिष्यों सहित पांडवों के पास पहुंचे,जब सभी भोजन कर चुके थे।द्रौपदी अक्षयपात्र धो चुकी थी।
  • परंतु सद्भाव संपन्न पुरूषार्थियों की सहायता भगवान करते हैं।भगवान कृष्ण के सहयोग से पांडवों के यहां ऋषि तृप्त होकर गए।उनका अनिष्ट नहीं हुआ तथा दुर्योधन को मिला एक अलभ्य अवसर उसके दुर्भाव के पेट में समा गया।
  • दृश्य दो:मगध सम्राट बिंबसार भगवान महावीर के दर्शनों के लिए नियमित जाते थे।राह में एक तपस्वी की कुटिया थी,जिन्हें वे वर्षों से कठिन तप करते हुए देख रहे थे।उन्हें यह भी मालूम था कि ये तपस्वी पहले एक बड़े राज्य के राजा थे।वर्षों पूर्व उन्होंने राज्य का त्याग करके तपस्वी जीवन का व्रत लिया था।एक दिन सम्राट बिम्बसार ने भगवान महावीर से जिज्ञासा की-“भगवन्! आपके पास आते समय राह में मुझे जिन तपस्वी के दर्शन होते हैं,उनकी अंतिम गति क्या होगी?” इस प्रश्न ने सभी को उद्वेलित किया।सभी भगवान महावीर के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे।भगवान महावीर ने उत्तर में संक्षिप्त शब्दों में कहा-“यदि वे इसी समय अपना शरीर छोड़ दें तो वे सातवें नर्क में जाएंगे।”इतने महान् तपस्वी की ऐसी दुर्गति!सहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ।सभी ने सोचा,जरूर भगवान से कोई भूल हुई है।सो फिर से पूछा गया।भगवान ने शून्य में देखा और मुस्कुराए।फिर रुककर वे बोले “यदि तपस्वी नरेश इस समय अपना शरीर छोड़े तो वे देवलोक में जाएंगे।उन्हें स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति होगी।” कुछ ही क्षणों में ऐसा विरोधी उत्तर! मगध सम्राट हतभ्रम थे।वे सहमे-से काफी देर खड़े रहे।फिर उन्होंने हिम्मत करके एक बार फिर अपना वही सवाल दोहराया।अबकी बार भगवान महावीर के मुख पर आल्हादकारी हँसी थी।उन्होंने उस तपस्वी की दिशा को प्रणाम किया और बोले-” अब वे महान तपस्वी सभी बन्धनों से मुक्त होकर कैवल्य (मोक्ष) को प्राप्त हो गए हैं।अब वे अरिहंत (तीर्थंकर) हैं,उन्हें प्रणाम करो।”
  • भगवान महावीर के इन विचित्र उत्तरों से सभी उपस्थित परेशान हो गए।उनकी परेशानी को पहचान कर महावीर ने कहा-“जब मैंने पहली बार उत्तर दिया था,उस समय उन तपस्वी को सूचना मिली कि पड़ोसी राजा ने उनके राज्य पर हमला कर दिया है और उनके पत्नी-पुत्र मारे गए हैं।इस सूचना ने तपस्वी को आकुल कर दिया और वे द्वेषग्रस्त हो बदले की भावना से भर गए।इस द्वेष ने उनके लिए सातवें नरक के द्वार खोल दिए थे,परंतु थोड़ी देर में उस महान तपस्वी ने स्वयं द्वेषमुक्त कर लिया और वे फिर अपनी स्वाभाविक साधनाभूमि में विचरण करने लगे।यही उनके लिए देवलोक के प्रवेश का मार्ग था,परंतु इस बीच उनके ध्यान की तीव्र धारा में सभी कर्मबीज विलीन हो गए।अब उसके लिए कैवल्य (मोक्ष) सहज हो गया।”अपनी बात पूरी करके भगवान महावीर पुनः बोले-” द्वेष साधक के लिए नर्क के द्वार खोलता है।जो उससे मुक्त हो सका,उसके लिए कैवल्य का पथ प्रकाशित है।”

3.समस्याओं की जड़ राग और द्वेष (The root of problems is craving and aversion):

  • मनुष्य के अच्छे कर्मों में प्रवृत्त होने की बाधाएँ भी यही दो हैं;राग-अत्यधिक मोह-लगाव,द्वेष-अत्यधिक शत्रुता,ईर्ष्या या रंजिश का भाव रखना।एक से वासना,तृष्णा जन्म लेती है तो दूसरे से अहंकार।ये तीनों वासना,तृष्णा और अहंकार मनुष्य को बंधनों में बांध लेते हैं और फिर सारा जीवन,इन्हीं की खाई पाटने में समय बिता देते हैं।ये तीनों ही श्रीकृष्ण ने नरक के द्वार बताएं हैं।साथ ही वे स्थान-स्थान पर मानव की आध्यात्मिक प्रवृत्ति में,अच्छे कर्मों के संपादन में इन्हीं को बंधन मानते हैं।
  • श्रीमद्भगवत गीता के तीसरे अध्याय में भगवान ने कहा है कि “इंद्रिय-इंद्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं।मनुष्य को इन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए,क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणकारी मार्ग में विघ्न उपस्थित करने वाले महान शत्रु हैं।”
  • और भी कहा है (पांचवाँ अध्याय में)” हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है (राग भाव से चाहता है),वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है,क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।”
  • सच यही है कि यह संसार,इसकी परिस्थितियाँ,इसमें होने वाले घटनाक्रम सभी के लिए एक जैसे होते हैं,पर सभी उन्हें एक जैसा अनुभव नहीं करते।एक ही परिस्थिति,एक ही घटनाक्रम अनेक अनुभवों-अनुभूतियों को जन्म देता है।किसी के मन में इसके प्रति अनुराग होता है,किसी के मन में विराग; किसी की अंतर्भूमि में इनके प्रति राग की सृष्टि होती है तो किसी की अंतर्भूमि में द्वेष के बीज अंकुरित होते हैं।किसी विरले की भावभूमि ऐसी भी होती है,जिसमें न राग अंकुरित हो पाता है और न द्वेष।वहां एक ऐसी पारदर्शी निर्मलता का साम्राज्य स्थापित होता है,जहां राग और द्वेष की छाया ही नहीं पनपती।श्रेष्ठ पुरुषों का अनुभव यही कहता है कि राग और द्वेष,दोनों ही बांधते हैं।ये दोनों ही अंतर्यात्रा में अवरोध उत्पन्न करते हैं।जो राग से बँधता है,वह भी ठहरा रहता है और जो द्वेष से बँधता है वह भी ठहरता है।हाँ,यह जरूर है कि इनकी अनुभूतियाँ अवश्य भिन्न होती है।एक को सुख की प्रतीति होती है तो दूसरे को दुःख की।इसीलिए तो इन दोनों को ही क्लेश कहा है।सुख की प्रतीति के पीछे रहने वाला क्लेश राग है।
  • इसका अर्थ यह नहीं है कि दुःख पीड़ादायक नहीं है।दुःख के प्रति यदि सोच नकारात्मक है तो यह बड़ी आसानी से व्यक्ति के गले में द्वेष का फंदा डाल देता है।
  • जो मानव प्रकृति के जानकार हैं,उनसे यह सच छिपा नहीं है कि सामान्य क्रम में मानव मन की एक निश्चित संरचना है।उसके अंतःकरण का एक निश्चित ढाँचा है।प्रत्येक व्यक्ति के अपने विश्वास,आग्रह,मान्यताएं,दृष्टिकोण एवं सोच हैं।इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता।गलती तो होती है तब,जब वह प्रत्येक वस्तु,व्यक्ति और परिस्थिति को अपनी इस सीमित संरचना में बांधना चाहता है।जो भी व्यक्ति,वस्तु अथवा परिस्थिति उसकी इस सीमित मानसिक संरचना में नहीं बँधती उसी से उसका विरोध होता है।
  • उसके ही अपने आग्रह,मान्यताएं एवं विश्वास उसे दुःख देने लगते हैं और यहीं से शुरू होती है द्वेष की सृष्टि,जो बैर की कई श्रृंखलाओं को जन्म देती है,जिनसे मनुष्य जीवन जन्मों-जन्मों तक बँधा जकड़ा रहता है।
  • जो द्वेष के संजाल में उलझते हैं,वे अपनी सीमित सोच के कारण न तो यह देख पाते हैं और न यह अनुभव कर पाते हैं कि प्रत्येक मनुष्य,यहां तक की प्रत्येक जीवधारी अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है।
  • अब जैसे सर्प की प्रकृति क्रोध है।इस क्रोध करने के कारण ही वह फुफकारते हुए डसता है और अपने अंदर का जहर उँड़ेल देता है।इस प्रकृति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता,भले ही उसे कितना ही दूध पिलाए।जब कभी वह किसी को डसेगा,जहर ही उँड़ेलेगा।हाँ,यदि उसके विषदन्त तोड़ दिए जाएं तो बात और है।इसी तरह नागफनी एवं बबूल को कांटों से विहीन नहीं किया जा सकता।जो भी इनसे उलझेगा उसे ये काँटे चुभेंगे ही।

4.द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to be free from malice?):

  • पुण्यों के संयम (अच्छे कार्यों) द्वारा पापों को नष्ट करें एवं राग-द्वेष आदि द्वन्दों से मुक्त हो,भगवान की आराधना में,उनके द्वारा लगाए गए इस विश्व-उद्यान को और अधिक सुंदर बनाने में तत्पर हो जाए।एक अच्छे कार्य करने वाले सज्जन की यह उर्ध्वगामी यात्रा है।उसका सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा-नूतन पापों का संचय न करना,उन्हें अच्छे कार्यों द्वारा लगातार नष्ट करते चले जाना तथा निर्द्वंद्वता की,द्वंद्वातीत होने की अवस्था को प्राप्त होना।यही द्वेष से मुक्ति का उपाय है।
  • जो विवेकवान हैं,जिनकी सोच समग्र एवं दृष्टिकोण परिष्कृत है,वे जीवन की सचाई को समझते हैं और वे अपनी जीवनयात्रा में प्रत्येक स्थिति का सदुपयोग लेते हैं।उदाहरण के लिए अमृत की मधुरता तो उपयोगी है ही,परंतु यदि विष को औषधि में परिवर्तित कर लिया जाए तो वह भी अमृत की ही भाँति जीवनदाता हो जाता है।संसार के समूचे जीवनक्रम में जो व्यक्ति वस्तु,परिस्थिति निहित सत्य को जान लेते हैं,वे प्रत्येक घटनाक्रम का जीवन के लिए सार्थक प्रयोग कर लेते हैं।उन्हें न कभी राग की डोर बाँधती है और न ही उन्हें कभी द्वेष के कंटक चुभते हैं,लेकिन जो उनकी मनःस्थिति को अपरिवर्तनीय रखकर उसके अनुरूप प्रत्येक वस्तु,व्यक्ति एवं परिस्थिति को बदलना चाहते हैं,उन्हें सदा ही राग एवं द्वेष से बँधना पड़ता है।और जब भी व्यक्ति इनसे बँधता है,वह अपने जन्मों के संचित पुण्य एवं तप का नाश करता है।
  • जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म से राग नहीं रखता,वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित,बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।
  • राग-द्वेष से मुक्ति,द्वन्द्वों से मुक्ति,निर्द्वंद्वता की मुक्ति की स्थिति की प्राप्ति बड़े ही महान और दुर्लभ होते हैं।वे,जो इस स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं,पर हम अपनी जीवन-यात्रा तो उस दिशा में कुछ प्रतिशत आगे बढ़ा सकते हैं।”

5.विद्यार्थी राग और द्वेष में कैसे फँसते हैं? (How do students get caught up in attachment and aversion?):

  • विद्यार्थी या तो किसी से घनिष्ठता,मित्रता बढ़ाते चले जाते हैं चाहे उस मित्र में कितने ही दोष हों।ऐसा करते समय वे उनके दोषों की अनदेखी करते हैं।ऐसी स्थिति उन्हें राग से ग्रस्त कर देती है।जिनसे उनका स्वभाव मेल नहीं खाता है,तो उनमें कितने गुण हों परंतु वह उससे द्वेष पाल लेते हैं,धीरे-धीरे द्वेष से शत्रुता पनपने लगती है।
  • अच्छे और श्रेष्ठ विद्यार्थी (जिनसे वे द्वेष रखते हैं) जब उस विद्यार्थी से अधिक अंक अर्जित कर लेते हैं और बहुत अध्ययन करने पर,प्रयास करने पर भी उससे आगे बढ़ नहीं पाते हैं तो शत्रुता बढ़ने लगती है,वे फूटी आंख भी नहीं सुहाते।वे ऐसे विद्यार्थी को येन-केन प्रकारेण नुकसान पहुंचाना चाहते हैं।
  • दरअसल जब विद्यार्थी अपने से श्रेष्ठ विद्यार्थी से,अच्छे विद्यार्थी से प्रतिस्पर्धा में हरा नहीं सकता है तो उसे हानि पहुंचाने की तिकड़म लगाते हैं।द्वेष से ग्रस्त विद्यार्थी पूर्ण एकाग्रता के साथ अध्ययन नहीं कर ही नहीं सकता है।यों भी हर विद्यार्थी में योग्यता,क्षमता,प्रतिभा में अंतर होता है।उदाहरणार्थ 60% अंक प्राप्त करने वाला विद्यार्थी 90-95 प्रतिशत अंक पाने वाले विद्यार्थी की बराबरी कैसे कर सकता है।
  • यदि करना भी चाहता है तो निर्दोष तरीके से उसे कठिन पुरुषार्थ,पूर्ण एकाग्रता से अध्ययन करना होगा,राग-द्वेष से मुक्त होकर।फिर भी यह जरूरी नहीं कि वह उसके बराबर या उससे आगे बढ़ ही जाएगा।स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बावजूद भी यदि वह उसे पिछड़ा हुआ रह जाता है तो उसी से संतोष धारण कर लेना चाहिए तथा पुनः प्रयत्न करते रहना चाहिए।
  • द्वेष से मुक्त होने के लिए उसे अच्छी पुस्तकों,सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिए,सज्जनों और श्रेष्ठ लोगों की संगत करना चाहिए।हमेशा स्वाध्याय मनन-चिन्तन करके अपने दोषों की पहचान करनी चाहिए और धीरे-धीरे उन्हें दूर करने में जुट जाना चाहिए।इसमें समय लग सकता है परंतु निरंतर पुरुषार्थ,मनन-चिंतन,स्वाध्याय से सफलता अवश्य मिलती है।
  • कभी भी गलत तरीके से आगे बढ़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए क्योंकि बुरा काम का नतीजा बुरा ही होता है।परीक्षा में नकल करके,अंक तालिका में घूँस देकर अंक बढ़वाना ,परीक्षक को डरा-धमकाकर नकल करने की कोशिश करना,लड़ाई-झगड़ा करना,अपने प्रतिद्वंदी विद्यार्थी को चोट पहुंचाना,नीचा दिखाने का प्रयास करना,उससे लड़ाई-झगड़ा करना आदि कार्य करने से विद्यार्थी में द्वेष की भावना पैदा हो जाती है।फिर उस विद्यार्थी में अनेक विकार पैदा हो जाते हैं।एक बार बुरे कार्यों की लत लग जाती है तो बहुत मुश्किल से ही छूटती है,कई बार तो असंभव भी हो जाता है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to Be Free From Malice?),समस्याओं की जड़ द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to Get Rid of Malice at Root of Problems?) के बारे में बताया गया है।

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6.बदकिस्मत छात्र-छात्राएं (हास्य-व्यंग्य) (Unlucky Students) (Humour-Satire):

  • प्रवीण (हिमांशु से):मुझसे ज्यादा बदकिस्मत और कौन होगा? मेरे शिक्षक को गणित का अच्छा ज्ञान है,परंतु वो मुझे गणित नहीं पढ़ाते।
  • हिमांशु:ऐसा मत कहो,दुनिया में तुमसे भी बड़े बदकिस्मत मौजूद है।मेरे गणित शिक्षक की मिसाल ले लो।उनको गणित का बिल्कुल ज्ञान नहीं है,लेकिन मुझे गणित पढ़ाते हैं।

7.द्वेष से मुक्त कैसे हों? (Frequently Asked Questions Related to How to Be Free From Malice?),समस्याओं की जड़ द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to Get Rid of Malice at Root of Problems?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.राग और द्वेष क्या हैं? (What are Raga and Dhvesha?):

उत्तर:राग-द्वेष मन से ही प्रकट हुए हैं।उसी वजह से हमारा संसार भी,इन दोनों दोषों के मन के साथ लीन हो जाने से,दो भागों में बँट जाता है।एक दुनिया वह है,जिसे हम पसंद करते हैं,दूसरी दुनिया वह,जिसे हम न केवल नापसंद करते हैं,बल्कि उसके प्रति हमारे मन में शत्रुता-द्वेष का भाव भी होता है।ऐसा होने पर जिन्हें हम पसंद करते हैं,उनके लिए सब कुछ करने का अपनी शक्तियों को लुटाकर,उन साधनों के संचय करने में अपनी सारी ऊर्जा को,उसी में नियोजित कर देते हैं।जो हमें पसन्द नहीं हैं,उनसे या तो बचते हैं,दूर भागते हैं या उनसे द्वेष पाल लेते हैं,उन्हें नुकसान पहुंचाने का प्रयास करते हैं,उनकी याद आने पर स्वयं तनावग्रस्त,उद्विग्न हो जाते हैं।अपना शरीर भी व्याधिग्रस्त कर लेते हैं।

प्रश्न:2.हमारे सबसे बड़े शत्रु कौन हैं? (Who are our biggest enemies?):

उत्तर:वासना,तृष्णा,अहंकार हमें आकर्षक तो लगते हैं,पर दूरगामी दृष्टि से हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं।हमारा व्यक्तित्व इनमें दबता चला जाता हैं,नित नई समस्याओं में और उलझता जाता है।फिर कहीं और कोई मार्ग नहीं मिलता।अज्ञान की स्थिति में जीना भी तो कोई जीना है?

प्रश्न:3.पाप और पुण्य क्या हैं? (What are virtue and sin?):

उत्तर:पाप वह है जो मन में ग्लानि पैदा करे,जो मन को विक्षुब्ध कर दें,जो छिपकर किया जाए,जिसे करने के बाद मन अशांत हो जाए।
पुण्य वह है,जो मन में परम शान्ति पैदा करे,हृदय अन्दर से सत्कार्यों के लिए गद्गद् हो,आपका अभिनन्दन करे।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to Be Free From Malice?),समस्याओं की जड़ द्वेष से मुक्त कैसे हों? (How to Get Rid of Malice at Root of Problems?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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