How Can Students Hear Heart’s Call?
1.विद्यार्थी हृदय की पुकार कैसे सुनें? (How Can Students Hear Heart’s Call?),लक्ष्य सिद्धि जीवन का सर्वस्व नहीं है (Goal Accomplishment is Not Whole of Life):
- विद्यार्थी हृदय की पुकार कैसे सुनें? (How Can Students Hear Heart’s Call?) क्योंकि हृदय की पुकार सुनने का अभ्यास नहीं हो तो हमें सही और गलत दिशा का ज्ञान नहीं हो सकता।अध्ययन,मनन-चिंतन व स्वाध्याय करने के लिए दिल और दिमाग दोनों से काम लेना आवश्यक है।
- इनमें एक से भी काम लेना बंद कर देते हैं तो हमारी गाड़ी पटरी से नीचे उतर जाती है।केवल दिमाग से काम लेने पर हमें अध्ययन से संतुष्टि नहीं मिलती है।हमेशा शिकवा-शिकायत रहती है।केवल दिल से काम लेने पर हम अत्यधिक भावुक हो जाते हैं।इस आर्टिकल में हृदय की पुकार कैसे सुने के बारे में बताया गया है।
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2.सुख का मूल कहाँ है? (What is the origin of happiness?):
- विज्ञान ने मानव की भौतिक अथवा बाह्य प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया है,किंतु मानव हृदय की अनेकानेक गुत्थियाँ अभी नहीं सुलझ सकी हैं।विज्ञान जीवन की कठिनाइयों को लक्ष्य करके यंत्रों के विकास की दिशा में प्रयत्न करता है।मन की गुत्थियाँ तो मन ही सुलझा सकेगा।
- हमारे पास सुख-सुविधा के पुष्कल साधन हैं और हम अपनी-अपनी परिकल्पना के अनुसार स्वर्ग का निर्माण करना चाहते हैं।हम कल्पित सुख और सुरक्षा की खोज में व्यस्त रहते हैं और उनके कल्पित अभाव द्वारा त्रस्त बने रहते हैं।इस प्रकार हमारा जीवन अधिकांशतः अभावमय और संकट संकुल बना रहता है।हम भूल जाते हैं कि दृश्यमान स्वर्ग का निवास अस्थायी होता है।
- “ते तं भुक्तवा स्वर्गलोकं विशालं
- क्षीणे पुण्ये मृर्त्यलोकं विशन्ति।।(श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 9)
अर्थात् वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। - सुख का प्रथम सोपान श्रम है।जब हम पूरी शक्ति के साथ कोई कार्य करते हैं,तब हम उस कार्य के साथ एक प्रकार का तादात्म्य अनुभव करते हैं।तादात्म्य की इस स्थिति में हमारा मन एक विशेष प्रकार की उन्मुक्ति का अनुभव करता है।इसे ही हम सुख या आनंद की अनुभूति कहते हैं।हृदय के मुक्तावस्था की रस दशा अथवा आनंदावस्था कही जाती है।
- मन की वृत्ति उर्ध्वगामी होने पर ही हम विगत कुंठा होकर बैकुठ को प्राप्त कर सकते हैं,जहां से पतन का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता:
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम (श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 8)
अर्थात् उस सनातन भाव को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं। - स्वर्ग की कल्पना मृगमरीचिका रही है और रहेगी,क्योंकि इष्ट के वियोग और अनिष्ट की प्राप्ति की आशंका सदैव विद्यमान बनी रहती है।भूत और भविष्य काल-हंस के दो पंख हैं।यह काल-हंस वर्तमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।इसी को लक्ष्य करके वैज्ञानिक कहते हैं कि समय और स्थान,काल और दिशा सापेक्ष हैं।इसकी नाप-जोख जीवन का भ्रम है।विद्यमान के प्रति तदाकार-परिणति प्रस्तुत कार्य के प्रति तल्लीनता द्वारा सहज सम्भाव्य है,परंतु हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम विगत और आगत की ऊहापोह में जीवन की सार्थकता समझते हैं।विद्यमान की संकल्पना रूपी सुरम्य धारा द्वारा हम प्रतिपल वंचित किए जाते रहते हैं।
3.विश्लेषणात्मक के साथ संश्लेषणात्मक वृत्ति भी आवश्यक है (Analytical as well as synthetic instinct is also necessary):
- अग्नि का प्रयोग प्रकृति के ऊपर मानव की विजय का प्रथम चरण कहा जा सकता है।अग्नि के आविष्कार के साथ मानव-सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान का इतिहास आरंभ होता है।
- परमाणुओं के विद्यदणु जब आपस में मिलते हैं,तब अग्नि प्रकट होती है।जब परमाणु के मध्य स्थित गर्भ (न्यूक्लियस) में क्षोभ द्वारा विभाजन (Fission) अथवा संयोग (fusion) होता है तब परमाणु ऊर्जा उपलब्ध होती है।सारांश यह है कि परमाणु के बाह्य भाग तथा आंतरिक भाग के प्रयोग द्वारा क्रमशः अग्नि और परमाणु ऊर्जा प्रकट होती है।अभी तक मानव-सभ्यता बाह्य भाग के प्रयोग तक सीमित थी,अब वह आंतरिक भाग के प्रयोग की ओर अग्रसर है।क्या यह अपेक्षित नहीं है कि जहाँ अग्नि की उपलब्धि के साथ ‘मनस’ (intellect) का प्रादुर्भाव हुआ,वहाँ परमाणु ऊर्जा के साथ हमारी आंतरिक वृत्ति (अंतस) (intelligence) का प्रादुर्भाव हो?
- हम बाह्य से विमुख होकर अंतर्मुखी होने का प्रयत्न करें और अंतर में निहित शीत अग्नि का संस्पर्श प्राप्त करें।मस्तिष्क की विश्लेषणात्मक वृत्ति अतीत और भविष्य को विभक्त करके देखती हैं,अंतस की संश्लेषणात्मक वृत्ति द्वारा भूत और भविष्य का भेद समाप्त होकर अतीत,वर्तमान और भविष्य की समरसता स्थापित हो जानी चाहिए।इस प्रक्रिया को व्यवहार जगत के साथ संबद्ध करके हम कहना चाहते हैं कि हमारी मानसिकता जीवन में समरसता की सृष्टि करने का हेतु होनी चाहिए,तब धर्म,दर्शन,विज्ञान,राजनीति आदि को विभक्त करके देखने की प्रक्रिया स्वत: समाप्त हो जाएगी।
- प्रत्येक वस्तु,व्यक्ति और घटना के शिवाशिव दो पक्ष होते हैं।वे अन्योन्याश्रित हैं।सुखानुभूति में दुःख का और दुःखानुभूति में सुख का बीज छिपा रहता है।शिव अथवा उज्जवल पक्ष का दर्शन सुखानुभूति का हेतु बनता है और अशिव पक्ष दुःखानुभूति का कारण बनता है।हमारी साधना अथवा चेतना जिस कोटि की होगी,उसी कोटि की अनुभूति हमारे,जीवन का अंग बनेगी।शिव पक्ष के साक्षात्कार की साधना द्वारा दुःखानुभूति से मुक्ति को मानव सदैव से जीवन की परम सिद्धि मानता आया है।दार्शनिक इसे सत्य का दर्शन,धर्म परायण इसे भगवान का या धर्म का साक्षात्कार,योगी समाधि तथा सांसारिक प्राणी सुखानुभूति के नाम से अभिहित करते हैं।इसकी प्राप्ति के लिए जन्म-जन्मांतर की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है।यह यहीं और अभी उपलब्ध होने वाली वस्तु है।आवश्यक है केवल मन की दिशा में परिवर्तन।
- दृश्यमान जगत अतीत में ऐसा ही था और भविष्य में भी ऐसा ही रहेगा।उसकी अनुभूतियाँ अनंत और सनातन हैं।हमारे बदलने के साथ इन अनुभूतियों के स्वरूप एवं प्रभाव में भी परिवर्तन हो जाता है।घटना के दुःखद पक्ष एवं व्यक्ति के अवगुणों को देखने वाले व्यक्ति के हाथ दुःख और पाप लगते हैं।सुख पक्ष शिव का दर्शन करने को उत्सुक व्यक्ति आनंद का साक्षात्कार करता है।
जब तक हम अभावमय जीवन जीते हैं,तब तक असंतुष्ट रहना स्वाभाविक है और यह भी अनिवार्य है कि हम अभावों के लिए अपने को एवं समाज को दोषी बताते रहे,परंतु जब हमारी दृष्टि भावात्मक होगी,तब अभाव की स्थिति निश्शेष हो जाएगी और हम अपने और समाज के प्रति सहिष्णु हो जाएंगे। - अपने प्रति सहिष्णु होकर ही हम अन्य व्यक्तियों के प्रति संवेदनशील व सहिष्णु हो सकते हैं।यह तभी संभव है,जब हम जीवन और घटनाक्रम को तटस्थ द्रष्टा के रूप में निरपेक्ष दृष्टि से देखें और उनसे शिक्षा ग्रहण करके अपनी त्रुटियों को दूर करके करने में प्रयत्नशील हों।
4.अपनी चेतना का विस्तार करें (Expand Your Consciousness):
- संपूर्ण समाज की शक्ति सदैव हमारे पीठ पर रहती है। समष्टि से अपने को पृथक समझकर व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता को न्यूनातिन्यून करता रहता है और कार्यकुशलता द्वारा उपलब्ध होने वाली तदाकार-परिणति के सुखोपभोग से वंचित रहता है।
परमाणु शक्ति तथा अन्य उपलब्ध शक्तियों के सम्यक एवं रचनात्मक प्रयोग के लिए यह आवश्यक है कि हम प्रयोजन-सिद्धि को जीवन का सर्वस्व न समझे और अंतस में निहित ऊर्जास्वित चेतना को विकसित करें।युग की पुकार है कि हम बैलगाड़ी और रेलगाड़ी को छोड़कर हवाई जहाज और राॅकेट द्वारा यात्रा करें।मानव-हृदय की पुकार है कि हम मानव की शब्दहीन भाषा को समझकर संश्लेषण एवं सामंजस्य-स्थापन की प्रक्रिया में सहायक बनें। - दरअसल बुद्धि का प्रयोग करने पर यह विश्व को खंड-खंड करके देखती हैं।बुद्धि विभाजन की प्रक्रिया करती है जबकि चेतना संपूर्ण सृष्टि समस्त कार्य को अखंड रूप में देखती है।अतः हमें बुद्धि के विकास तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि हमें अपनी चेतना को विकसित करने का अभ्यास भी करना चाहिए।दरअसल चेतना का विस्तार तो है ही।परंतु हमारे मानसिक विकारों,कषाय-कल्मषों,बाहर की ओर दृष्टि रहने के कारण चेतना की तरफ ध्यान ही नहीं जाता है।
- जब हम मन की दिशा को बाहर की तरफ से मोड़कर अंदर की तरफ करते हैं अपने कषाय-कल्मषों,मनोविकारों को दूर करते हैं तब हमें अपने आपकी अपनी चेतना की अनुभूति होती है।
- योग,जप-तप,साधना,पूजा-पाठ आदि उसी चेतना की अनुभूति के लिए किए जाते हैं।अध्ययन,मनन-चिंतन,स्वाध्याय में पैनापन तभी आता है जब चेतना से जुड़ते हैं,चेतना के होने का एहसास करते हैं।जब चेतना की तरफ नहीं मुड़ते हैं,चेतना की अनुभूति नहीं करते हैं तब तक हम जगत में इधर-उधर भटकते रहते हैं।
- जिस प्रकार कस्तूरी मृग कस्तूरी को जंगल में ढूंढता रहता है और भटकता रहता है जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में ही रहती है।इसी प्रकार हम चेतना को बाहर जगत में ढूंढते रहते हैं।ज्योंही हम हमारी दृष्टि को मोड़कर अंदर की ओर करते हैं तो अपने होने का आभास होता है।अपनी आत्मशक्ति का साक्षात्कार होता है।यह कार्य है तो कठिन लेकिन इसे करना ही होगा।यदि हमें जीवन की सभी समस्याओं से मुक्ति पानी है तो चेतना को विकसित करना ही होगा,अपनी अनुभूति करनी होगी।सभी समस्याओं का एकमात्र यही समाधान है और कोई समाधान नहीं है।
- उपर्युक्त आर्टिकल में विद्यार्थी हृदय की पुकार कैसे सुनें? (How Can Students Hear Heart’s Call?),लक्ष्य सिद्धि जीवन का सर्वस्व नहीं है (Goal Accomplishment is Not Whole of Life) के बारे में बताया गया है।
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5.बेटे की नौकरी (हास्य-व्यंग्य) (Son’s Job) (Humour-Satire):
- उद्योगपति (प्रिंसिपल से):क्या आप मेरी बेटे को गणित शिक्षक के पद पर नियुक्ति दे सकते हैं।
- प्रिंसिपल:क्या गणित में उसने कोई विशिष्ट कोर्स किया हुआ है,गणित का उसे विशिष्ट ज्ञान है।
- उद्योगपति:गणित का तो कोई खास ज्ञान नहीं है परंतु वह पढ़ा लिखा है।
- प्रिंसिपल:तो फिर क्षमा करें सेठ जी मैं उसके उद्योगपति बनने के रास्ते में रोड़ा नहीं बनना चाहता।
6.विद्यार्थी हृदय की पुकार कैसे सुनें? (Frequently Asked Questions Related to How Can Students Hear Heart’s Call?),लक्ष्य सिद्धि जीवन का सर्वस्व नहीं है (Goal Accomplishment is Not Whole of Life) से सम्बन्धित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.आत्म-शक्ति से क्या तात्पर्य है? (What do you mean by self-power?):
उत्तर:आत्म-शक्ति की कमी हमारी बहुत-सी असफलताओं का कारण होती है,शक्ति के विश्वास में ही शक्ति है।वे सबसे कमजोर हैं,चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों,जिन्हें अपने आप तथा अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं है।
प्रश्न:2.अन्तरानुभूति कैसे करें? (How to have a conscience experience?):
उत्तर:अन्तरात्मानुभूति कोई क्रिया नहीं है बल्कि यह तो अपने होने की अनुभूति है।अनुभूति अपनी सीमा में जितनी सबल है उतनी बुद्धि नहीं।हमारे स्वयं जलने की हलकी अनुभूति भी दूसरे के राख हो जाने के ज्ञान से अधिक स्थायी रहती है।
प्रश्न:3.चेतना किस तरह व्याप्त है? (How is consciousness pervasive?):
उत्तर:चेतना आत्मा का गुण है।यह उसी तरह व्याप्त है जैसे दूध में मक्खन व्याप्त होता है।दूध से मक्खन निकालने के लिए दूध को दही बनाना और दही को मथना होता है।इसी प्रकार चेतना की अनुभूति करने के लिए अंतर्मुखी होना पड़ता है,अपने आपको गलाना पड़ता है,अपने को दोषों से मुक्त करना होता है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा विद्यार्थी हृदय की पुकार कैसे सुनें? (How Can Students Hear Heart’s Call?),लक्ष्य सिद्धि जीवन का सर्वस्व नहीं है (Goal Accomplishment is Not Whole of Life) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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