How Can Students Be Free From Illusion?
1.छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Students Be Free From Illusion?),गणित के छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Mathematics Students Be Free From Illusion?):
- छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Students Be Free From Illusion?) इसमें माया का कई अर्थों में मिथ्या,भ्रम,अविद्या,अध्यास (Superimposition),अध्यारोप,अनिर्वचनीय,विवर्त,भ्रांति,नामरूप,अव्यक्त,मूल प्रकृति आदि अनेक समानार्थक शब्दों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।माया शब्द किसी अन्य भाषा में नहीं मिलता है।यह भारतीय दर्शन और चिंतकों की विशिष्टता है तथा शुद्ध भारतीय चिंतन द्वारा निर्मित है।हम माया के मकड़जाल में इस प्रकार उलझते जाते हैं कि इससे छूटने के बजाय इसमें उलझते जाते हैं क्योंकि माया हमें इतनी लुभावनी लगती है कि हम इससे मुक्त होने के बजाय स्वयं गा-बजाकर इसके जाल में फंसते जाते हैं।
- छात्र-छात्राओं को कोई पद,सम्मान,धन-संपत्ति,रूप,सौंदर्य,यश इत्यादि इतने लुभावने लगते हैं कि वे इनको प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक प्रयास करते रहते हैं।यहाँ यह मंतव्य नहीं है कि इनको प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिए।परंतु माया के ये रूप इतने लुभाते हैं कि हमारे संसार में आने का उद्देश्य गौण हो जाता है।
- इनके चक्रव्यूह में फँसने के बाद हम हमारे जीवन के वास्तविक लक्ष्य को भुला बैठते हैं,उसे प्राप्त करना तो बहुत दूर की बात है।अतः मोह-माया से उतना ही प्रभावित होना चाहिए जितना आवश्यक हो।
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2.माया का स्वरूप और कार्य क्या है? (What is the Nature and Function of Illusion?):
- संसार के समस्त दर्शनों में विचार की दो कोटियाँ बताई गई है:सत्य और असत्य।परन्तु भारतीय दर्शन में विचार की तीन कोटियाँ हैं:सत्य,असत्य और माया (मिथ्या)।सत्य वह है जिसका स्वरूप तीनों कालों में शाश्वत (स्थायी) रहता है,नहीं बदलता है जैसे आत्मा,परमात्मा इत्यादि।असत्य वह है जिसका तीनों कालों में कोई अस्तित्व नहीं होता जैसे:आकाश कुसुम,बन्ध्या पुत्र इत्यादि।माया (मिथ्या) वह है जो असत्य है लेकिन सत्य जैसा मालूम पड़ता है जैसे सीपी में चांदी का आभास,रस्सी में सर्प का आभास और मृग मरीचिका में रेत में पानी का भ्रम होता है इत्यादि।
- सीपी को चाँदी समझकर उठाते हैं तो वास्तविकता का मालूम पड़ते ही उसे छोड़ देते हैं।चांदी तो सत्य नहीं थी क्योंकि वह चाँदी नहीं सीपी थी जो कि वह असत्य (चाँदी) थी लेकिन उसे असत्य भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि चाँदी समझकर उसे उठाने के लिए तैयार हुए यानि चाँदी समझने का ही हम पर प्रभाव हुआ था।परन्तु सत्य भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि वह चाँदी नहीं सीपी थी।यह मिथ्या (माया) की कोटि है।
- माया (मिथ्या) के दो कार्य हैं:(1.)आवरण (Concealment) (2.)विक्षेप (Projection)आवरण के कारण मोह उत्पन्न होता है जिसके कारण भ्रम उत्पन्न होता है और हम यश,मान,प्रतिष्ठा इत्यादि को ही सत्य समझने लगते हैं।विक्षेप के कारण संसार में यही लक्ष्य,जीवन का यही लक्ष्य प्राप्त करने का आभास होने लगता है जबकि वास्तविक लक्ष्य है आत्मोन्नति करना।
- माया आवरण के द्वारा हमारे वास्तविक लक्ष्य पर पर्दा डाल देती है।माया का यह निषेधात्मक रूप है।माया अपने दूसरे कार्य के द्वारा वास्तविक लक्ष्य (वस्तु) के स्थान पर दूसरे लक्ष्य (वस्तु) को उपस्थित कर देती है।
3.शंकराचार्य के अनुसार माया की विशेषताएं (Characteristics of Illusion According to Shankaracharya):
- यह सांख्य दर्शन की तरह जड़ है किन्तु न तो ब्रह्म से स्वतन्त्र है और न वास्तविक।
- माया अध्यास (superimposition) है।जहाँ जो वस्तु है वहाँ उस वस्तु को कल्पित करना अध्यास कहा जाता है।जिस प्रकार रस्सी में साँप और सीपी में चाँदी का आरोपण होता है उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म में जगत् अध्यसित हो जाता है।चूँकि अध्यास माया के कारण होता है इसलिए माया को मूलाविद्या कहा जाता है।
- माया विवर्त मात्र है।माया ब्रह्म का विवर्त है जो व्यावहारिक जगत में दीख पड़ता है।
- माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह नाना रूपात्मक जगत का खेल प्रदर्शन करता है।माया पूर्णतः भगवान से अभिन्न है।
- माया अनिर्वचनीय है अर्थात् इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो वह सत्य है और न असत्य है,न वह दोनों है।
- माया का आश्रय स्थान ब्रह्म है।परंतु ब्रह्म माया की अपूर्णता से अछूता रहता है।माया ब्रह्म को उसी प्रकार प्रभावित नहीं करती है जिस प्रकार नीला रंग आकाश पर आरोपित होने पर भी आकाश को प्रभावित नहीं करता है।
- माया अस्थायी (Temporary) है।माया का अंत वास्तविक ज्ञान (प्रज्ञा) से हो जाता है जिस प्रकार रस्सी का ज्ञान हो जाने पर रस्सी सर्प भ्रम नष्ट हो जाता है,उसी प्रकार ज्ञान का उदय होते ही माया का विनाश हो जाता है।
- माया अव्यक्त और अभौतिक है।सूक्ष्म भूत स्वरूप होने के कारण वह अव्यक्त है।
- माया अनादि है।उसी से जगत की सृष्टि होती है।भगवान की शक्ति होने के कारण माया भगवान के समान अनादि है।
- माया भावरूप (positive) है।इसे भावरूप यह दिखलाने के लिए कहा गया है कि यह केवल निषेधात्मक नहीं है।वास्तव में माया के दो पक्ष हैं निषेधात्मक पक्ष और भावात्मक पक्ष।निषेधात्मक पक्ष में यह सत्य का आवरण है क्योंकि यह उस पर पर्दा डालता है।भावात्मक पक्ष में यह ब्रह्म के विक्षेप के रूप में जगत की सृष्टि करती है।यह अज्ञान और मिथ्या ज्ञान दोनों है।
4.माया मुक्त होने का उपाय (How to Get Rid of Illusion):
- वास्तविक ज्ञान (प्रज्ञा,विवेक) होने पर व्यक्ति माया मुक्त हो जाता है।आत्मज्ञानी व्यक्ति की वृत्ति सांसारिक से हटकर अन्तर्मुखी (आत्मा की ओर) होती है।वह विघ्न,संकट और असफलता में भी निर्विकार बना रहता है और संपत्ति,यश,पद,प्रतिष्ठा तथा सफलता मिलने पर अहंकार नहीं करता और न हर्षोन्मत्त होता है।
- ज्ञानी व्यक्ति हठी होता है जिसे वह सत्य एवं श्रेयस्कर मानता है उसी को अपनाता है भले ही सारी दुनिया उसका विरोध,असहयोग करती रहे।
- आत्मा-परमात्मा सभी में समाया हुआ है यह मानने व जानने भर से काम नहीं चलता है।भगवान के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए,इसे समझकर जो वस्तुओं का सदुपयोग और व्यक्तियों से सद्व्यवहार करता है वही आत्मज्ञानी है।
- सरल मन वाला छात्र-छात्रा सब कुछ चेतन देखता है।जड़ में भी उसे हँसती,बोलती और कर्त्तव्यनिष्ठ सत्ता (भगवत शक्ति) काम करती दिखाई पड़ती है।न उसमें अहंकार होता है,न दुर्भाव।जो सामने है,उपलब्ध है उसी में प्रसन्न होने लायक अवसर उत्पन्न कर लेना आत्मज्ञानी छात्र-छात्रा का लक्षण है।
- कष्ट,विपरीत परिस्थितियां हमारी अनुप्रयुक्त गतिविधियों के कारण हमारे सामने आते हैं।भगवान तो उन्हें हमें हमारा चिंतन सुधारने और प्रतिभा निखारने के लिए भेजते हैं।
- बडप्पन की निशानी दौलत नहीं है और न अमीरी का परिचय खर्चीले प्रदर्शनों से मिलता है।बड़े वे हैं जिनके विचार ऊंचे और क्रियाकलापों में आदर्श भरे हैं।
- किसी धनी के घर काम करने वाली नौकरानी घर का सब काम,अपने काम की तरह मन लगाकर करती है।मालिक के लड़के को भैया-भैया भी कहती है,पर मन से जानती है कि सब कुछ मालिक का है वह तो नौकरानीभर है।इसी प्रकार ज्ञानवान यह समझता रहता है,यह संसार,परिवार,धन-दौलत इत्यादि जो भी अपने आसपास है,वह तो भगवान का है,खुद तो सेवक मात्र है।
- यदि सार तत्त्व है तो परमात्मा में,भगवान की शक्ति में,तप में और सेवा में इसलिए तो ज्ञानीजनों ने कहा है कि संसार (माया) का सुख मत भोगों बल्कि इस संसार की सेवा करो,अपने कर्मों को भोगों और अपने चित्त को स्वच्छ निर्मल,प्रकाशित व हल्का करो।बात भी सही है कि इस संसार में आने के बाद अज्ञान के अंधकार के कारण व्यक्ति ऐसे-ऐसे बुरे कर्मों को करने में लिप्त हो जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि उसका चित्त कितना कलुषित होता जा रहा है और उसका परिणाम उस जीवात्मा के लिए अत्यंत दुखदायी होता है।ऐसी जीवात्माएँ अपने जीवन में कभी उबर नहीं पाती हैं और जन्म-जन्मांतर तक अनेक पीड़ाएं व अत्यंत कष्ट पाती रहती हैं और इन्हीं पीड़ा व कष्टों के माध्यम से उसके चित्त का अंधकार छँटता है।इसलिए यह समझने की जरूरत है कि हम ऐसे कर्म ही न करें,जो हमारी जीवात्मा को अंधकार से आच्छादित कर दें,उसे नरकगामी बना दे।
- इसलिए तो ऋषियों ने इस संसार को सेवा करने के लिए कहा है,न कि सेवा लेने के लिए।दुःखी व्यक्तियों की मदद करने के लिए कहा है,न कि व्यक्तियों को दुःखी करने के लिए।पीड़ा-निवारण की बात कही है,न कि पीड़ा पहुंचाने के लिए।सुख-ऐश्वर्य लुटाने व बाँटने के लिए कहा है,न कि उसे बटोरने के लिए।जो विरोधी बातों को अपने जीवन में लाते हैं और जीवन की आवश्यक बातों की अवहेलना करते हैं,उनका जीवन दु:ख व कष्टों का पिटारा बन जाता है।इसमें कोई दो राय नहीं है।
- निश्चित रूप से महापुरुष स्तर की जीवात्माओं को ही पता है कि इस संसार में कैसे रहना चाहिए,कैसी जीवन शैली होनी चाहिए क्योंकि वे इस संसार के लोभ-मोह के आकर्षण में कदापि नहीं फँसती,वे तो संसार में रहने वाली जीवात्माओं का उद्धार करने,मार्गदर्शन करने और उन्हें दिशा देने के लिए आती हैं।लेकिन जब घोर सांसारिकता (माया) में लिप्त जीवात्माएं उनके दिव्यस्वरुप का आभास कर लेती हैं तब भी उनसे अपना कल्याण का मार्ग न जानकर अपनी इच्छापूर्ति,आवश्यकतापूर्ति करने में लग जाती है और ऐसा उनके लिए बहुत कष्टकर होता है।
- इसी कारण अधिकतर उच्चस्तरीय जीवात्माएँ गुमनाम ढंग से अपना जीवन व्यतीत करती हैं।संसार में रहकर अपने पूर्व कर्मों का क्षय करती हैं,कठोर तप में लीन रहती हैं।अपना चित्त परिष्कृत कर भगवान के निर्देशानुसार कार्य करती हैं और इसके लिए बड़े से बड़ा त्याग करती हैं।मानवता के हित के लिए वे जीवात्माएं जन्म-जन्मांतरों से संचित किए गए तप की पूंजी का अंश सृष्टि के कल्याण में मदद करती है और इस तरह अपना सहयोग देती है।जब तक उनकी तपस्या,स्वार्थपूर्ति व महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में न लगकर लोक कल्याण के कार्य में लगती हैं तो उन्हें भी परम तृप्ति मिलती है और साथ में भगवान का वरदहस्त व स्नेह आशीष भी मिलता है।
5.माया का दृष्टान्त (The Vision of Illusion):
- एक दिन धर्म-धुरन्धर महाराज युधिष्ठिर राजसभा से निवृत्त होकर अंतःपुर में गए तो वहां महारानी द्रौपदी को नहीं देखा।आज मेरे आने के समय सती द्रौपदी कहां गई।आज तक तो ऐसा नहीं हुआ,ऐसा विचार करते हुए वे पलंग पर उसकी प्रतीक्षा करते हुए बैठ गए।थोड़ी ही देर में द्रौपदी आ पहुंची और सती-धर्मानुसार नित्य की भाँति पतिदेव को नमन किए बिना ही उनकी आज्ञा की अपेक्षा न कर पलंग पर बैठ गई।धर्मराज (युधिष्ठिर) स्वयं तत्त्वज्ञान विद्वान थे।वे द्रौपदी के गुह्य प्रताप को जानते थे,इससे वे मन ही मन रहस्य को समझकर पलंग से उठ खड़े।तब महारानी द्रौपदी पलंग पर लेट गयी और तुरन्त ही महाराज से अपने पांव दबाने के लिए कहा।बिना कुछ ही कहे सुने युधिष्ठिर चुपचाप द्रौपदी के चरण दबाने लगे।द्रौपदी ने कहा कि “महल के सब दरवाजे और खिड़कियां खोल दो”। तुरन्त ही ऐसा करके धर्मराज पुनः चरण दबाने बैठ गए।इतने में महाराज के छोटे भाई भीमसेन बाहर से आए और यहाँ का यह विपरीत ढंग देखकर चकित रह गए।
- भीमसेन अलग हटकर मन-ही-मन सोचने लगे,आज यह क्या हो गया जो धर्मराज देवी द्रौपदी की पगचम्पी कर रहे हैं।क्या इन दोनों को बुद्धि भ्रम हो गया या ये पागल हो गये हैं? अथवा क्या आज इनमें अधर्म का प्रवेश हो गया है? यह तो बड़े दुख की बात है।द्रौपदी के साथ जब मेरे रहने की बारी आएगी तब क्या मुझको भी ऐसा ही करना पड़ेगा?नहीं-नहीं यह कार्य मुझसे कदापि नहीं होगा।भीम के हाथ तो रण में शत्रुओं का मर्दन करने के लिए हैं,वे स्त्री की पगचम्पी कभी नहीं कर सकते।आश्चर्य है धर्म तत्त्वज्ञ होकर भी धर्मराज ने यह प्रथा क्यों चलाई,इसको मैं तोडूंगा भी कैसे? अब मुझे क्या करना चाहिए? इस बात का मर्म किसे कहना चाहिए? कुछ भी निश्चय न कर सकने के कारण विषादयुक्त भीमसेन ने श्री कृष्ण परमात्मा के पास जाने का निश्चय किया।वे श्री कृष्ण भगवान के घर गए।श्रीकृष्ण जी नित्य-कृत्य से निपटकर सुन्दर आसन पर विराजमान थे।भीम ने उनसे मिलकर धर्मराज तथा द्रौपदी के सम्बन्ध का सारा वृत्तान्त आदि से अन्त तक निवेदन किया तथा प्रार्थना करके कहा:भगवन!आप कृपा करके महाराज युधिष्ठिर को समझाइए कि जिससे अपनी यह मनोनीति छोड़ दे,धर्मराज केवल आपका ही कहना मानेंगे।
- श्रीकृष्ण भगवान ने कहा:भाई भीमसेन! मैं इस बात के बीच में पड़कर धर्मराज को इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाहता,प्रेम ऐसा ही होता है।किसी समय तुमको भी ऐसा करना होगा।भीमसेन ने कहा:प्रभो!तो क्या पुरुष को स्त्री के वश में होकर उसकी पद सेवा करनी चाहिए?
- इस प्रकार भीमसेन ने बहुत कुछ कहा-सुना परन्तु भगवान ने तो केवल यही उत्तर दिया कि,भीम! इस बात के छेड़ने में कोई सार नहीं है,जैसा धर्मराज करें वैसा ही तुम भी करो।इस प्रत्युत्तर से भीमसेन का समाधान नहीं हुआ,वह पछताता हुआ वहां से लौट आया।परंतु जब-जब उसको यह बात स्मरण आती,तभी वह उदास हो जाता।दिनों-दिन उसकी चिंता बढ़ने लगी,शरीर दुर्बल हो गया।एक दिन कुंती माता ने उससे पूछा:बेटा भीम! तेरे शरीर की क्या दशा हो रही है? क्या तेरे खाने-पीने का कोई प्रबंध ठीक नहीं है,क्या तुझको किसी से भय होने लगा है? भीमसेन ने कहा:माता! मुझको एक प्रकार की बीमारी हो गई है।इस रोग की औषधि श्री कृष्ण के पास है,परंतु वे मुझको देते नहीं,आप उनसे कह दें तो अच्छा हो।तुरंत ही कुंती माता ने श्रीकृष्ण के पास जाकर भीम को दवा देने को कहा।भगवान बोले,बुआजी इस छोटी सी बात के लिए आपने इतना कष्ट क्यों उठाया? ठीक है,आज ही अमावस और शनिवार है,मैं उसको औषधि दे दूंगा।भीमसेन से कह दीजिएगा,रात को मेरे पास आ जाए।
- माता के कहने से भीम श्री कृष्ण के पास गया,भगवान ने कहा:भीमसेन! जहां मैं कहूं वहाँ तुम जाओगे? आप जो आज्ञा करेंगे वही करने को दास तैयार है।श्री कृष्ण ने कहा,तो उत्तर दिशा को चले जाओ,नगर से बाहर कुछ दूर पर एक अश्वत्थ (पीपल) का वृक्ष दिखाई देगा।उस पर चढ़कर तुम छिपकर बैठ जाओ और वहां जो कुछ हो,छिपे-देखते रहो।तत्काल भीम उस पीपल के पेड़ के पास पहुंच गया।वहाँ व्याघ्र,सिंह,भूत,पिशाच,बेताल इत्यादि नाना प्रकार के डरावने शब्द कर रहे थे,पर भीम को उनकी क्या परवाह थी।वह झटपट चढ़कर पीपल पर बैठ गया। डेढ़ पहर रात बीत गई।अब भीमसेन को एक-से-एक बढ़कर चमत्कार दिखाई देने लगे।
- सबसे पहले एक जगमगाता हुआ दिव्य प्रकाश दिखाई दिया।थोड़ी देर में एक सपाट मैदान-सा हो गया।तदनंतर एक दिव्य शिल्पी विश्वकर्मा ने आकर तुरंत एक अति सुंदर मणियों और रत्नों से जड़ित विशाल मण्डप रचा।उसके बीच में एक चमकता हुआ गया सुन्दर सिंहासन बिछाया।उसके आसपास कई सुन्दर-सुन्दर आसन ओर बिछाये गए।
- इस प्रकार मंडप के तैयार होने पर एकादशरूद्र,दसों दिक्पाल तथा समस्त देवता वहां आ गए।नारद मुनि ने,जो पहले ही से आकर व्यवस्था का कार्य कर रहे थे,उनको यथायोग्य आसनों पर बैठाया।तब तक छप्पन कोटि यादवों को लेकर श्री कृष्ण परमात्मा भी वहां पहुंचे।उनके साथ पांचो पांडव आये,उनमें अपने समान ही दूसरे भीमसेन को देखकर,अश्वत्थ वृक्ष पर बैठे हुए भीमसेन को बड़ा आश्चर्य हुआ कि:अरे यह पाण्डव कौन और भीम वह कि मैं? दोनों में सच्चा कौन? इसी अवसर पर भगवान शंकर,विष्णु और ब्रह्मा भी आ पहुँचे।इनको नारद ने उच्च सिंहासन के दोनों ओर बिठाया।इस प्रकार धीरे-धीरे सारा मंडप त्रिलोकी के कार-बार करने वाले देवता और ऋषियों से खचाखच भर गया।परंतु मुख्य सिंहासन तो अब तक रिक्त ही पड़ा था।
- यह देखकर भीमसेन ने मन में सोचा कि:इस सारी देवसभा का मुख्य अधिपति तो अभी तक आया ही नहीं,न जाने वह कौन होगा? ब्रह्मा,विष्णु और शंकर:ये तीनों भगवान भी उस सिंहासन के नीचे ही बैठे हैं तो इनसे भी श्रेष्ठ ओर कोई है? भीम ऐसा विचार कर ही रहा था कि इतने में ही एक महान तेजोमयी दिव्य देवी छम-छम करती हुई दूर से आती दीख पड़ी। उसके अंगों की द्युति के सामने सभा मण्डप में स्थित समस्त देवगण छविहीन हो गए थे,उसके केश खुले हुए थे और ठेठ पाँव की एड़ी तक लटक रहे थे।वह ललाट में कुमकुम,हाथ में त्रिशूल तथा पाश धारण किए हुए थी।उसके मण्डप के द्वार के निकट आते ही सभा के सब देवगण एक ही साथ उठ खड़े हुए और महामाया आदि शक्ति की जय बोलने लगे।वह महादेवी उस मण्डप में जाकर उस परम दिव्य सिंहासन पर विराजमान हुई।अनन्तर उसकी आज्ञा से सब देवतागण बैठ गए।
- भीमसेन की दृष्टि उस महामाया के दिव्य तेज से चकाचौंध हो रही थी,परन्तु बड़ी देर तक दृष्टि जमाकर देखने से जान पड़ा कि:अरे! यह तो देवी द्रौपदी है।क्या इसका ऐसा प्रताप है कि इसको ब्रह्मा,विष्णु आदि नमन करते हैं? अहो!द्रौपदी तो साक्षात आदि माया है।भला देखें तो आगे क्या होता है?
- पहले ब्रह्मदेव उठे और हाथ जोड़कर विनती करने लगे,तब महामाया ने पूछा:कमल भू ब्रह्मदेव!सृष्टिक्रम बराबर चला जाता है न? हां माता!आपकी आज्ञा के अनुसार दास निरंतर बर्त रहा है।ऐसा कहकर आज्ञा होने से ब्रह्मदेव अपने स्थान पर बैठ गए,तब महादेवी ने विष्णु और शिव से पूछा:हे चक्रपाणि! अपने पद के अनुसार आप सृष्टि का यथार्थ पालन करते हैं? हे शूल पाणि (शंकर) नियमपूर्वक सृष्टि के संहार कार्य को चलाये जाते हैं? दोनों ने नमनपूर्वक कहा,आपकी आज्ञानुसार सब करते जाते हैं।
- तदनंतर इन्द्रादि देवों तथा दिक्पालों से उनके नियमित कामों के लिए पूछताछ हुई।सबसे पीछे यमराज ने आकर नमस्कार किया और रुधिर से भरे हुए छह घड़े और एक रीता घड़ा सामने रखकर कहां कि हे- जगदंबिके! ये छह घड़े सृष्टि के आरंभ से लेकर,यह कल्प आरम्भ तब से अभी तक महिषा सुरादि अनेक दैत्यों और योद्धाओं के रक्त से भरे हैं,परंतु सातवां घड़ा रिक्त है।
- वह अब होने वाले कौरव-पाण्डवों के युद्ध में भरने वाला है? यह सुनकर देवी द्रौपदी ने पूछा:वह किसके रक्त से भरने वाला है? दोनों पक्ष के योद्धाओं में जिसके प्रतापी रक्त से यह घट परिपूर्ण हो,ऐसा योद्धा कौन है?यमराज ने कहा,हे जननी! भीम योद्धा अपने बल का बड़ा अभिमान करता है,उसी के रक्त से वह घट भरा जा जायेगा और यदि वह यहां आ जाए तो अभी मैं उसके रुधिर से उस सातवें घड़े को भी भर दूं।इतने में नारद जी बोल उठे:अरे यमराज!वह भीम तो उस पीपल वृक्ष पर छिपा बैठा है,अपने दूतों को भेजकर पकड़ मंगवा।
- भीमसेन जो यह सब देख रहा था,अब थर-थर कांपने लगा,ऐसा दशा हुई कि काटे तो खून न निकले।उसने जाना की अब तो मृत्यु आ गई।पर क्या यमदूत मुझे लेने आएंगे? जब मुझको ऐसे भी मरना है और वैसे भी मरना है,तब फिर यमदूतों के हाथ पढ़ने से तो यही अच्छा है कि मैं स्वयं ही जाकर देवी द्रौपदी के चरण स्पर्श क्यों न करुं? यह तो मेरी स्त्री नहीं बल्कि आदिमाया है।इसकी पगचम्पी क्या बल्कि जो यह कहे वही मैं करने को तैयार हूँ।ऐसा दृढ़ निश्चय करके द्रौपदी को प्रणाम करने के लिए भीमसेन वृक्ष पर से धड़ाम से नीचे कूद पड़ा,उसका शरीर थर-थर कांपने लगा,कलेजा धड़कने लगा।कुछ देर पश्चात सचेत हुआ तो सामने श्रीकृष्ण दिखाई दिए।श्रीकृष्ण ने उसको धीरज देकर कहा:हे वृकोदर! मैं परमात्मा इस जगत में क्षर और अक्षर,इन दोनों से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम हूँ और जिसको तूने देखा वह महाशक्ति मेरी माया है।वह मेरे अधीन है पर मैं किसी के अधीन नहीं हूँ।
- मेरी इस माया के पाश से सारा जगत बंधा हुआ है और मेरी प्रेरित की हुई माया सब कुछ कर सकती है।इसी कारण मेरी कृपा के बिना कोई इसे जीत नहीं सकता।वह कृष्णा (द्रौपदी का दूसरा नाम) है और मैं श्री कृष्ण के नाम से जगत में प्रगट हूं।इसलिए जब-जब द्रौपदी के शरीर में मेरी माया का आदेश हो तब-तब उसकी तू अपनी पत्नी कभी न मानकर उसकी सेवा करना परन्तु भीम ऐसा प्रतिदिन नहीं होता।यह तो मैंने अपनी माया की महिमा तुझको दिखलाई है।
- इस प्रकार श्रीकृष्ण परमात्मा ने भीम को आश्वासन दिया,भीमसेन के मन की शंका और अभिमान मिट गया और वह प्रेमपूर्वक भगवान श्रीकृष्ण को बारम्बार नमस्कार कर अपने घर लौट आया।
- उपर्युक्त आर्टिकल में छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Students Be Free From Illusion?),गणित के छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Mathematics Students Be Free From Illusion?) के बारे में बताया गया है।
Also Read This Article:Knowledge as a Means of Salvation
6.लाइब्रेरी में फटी हुई गणित की पुस्तक (हास्य-व्यंग्य) (Torn Math Book in Library) (Humour-Satire):
- एक गणित के छात्र ने लाइब्रेरियन से शिकायत की:आपकी लाइब्रेरी में गणित की सभी पुस्तकें गन्दी और फटी हुई हैं,आपको इतनी गन्दी और फटी हुई गणित की पुस्तकें नहीं रखनी चाहिए।
- लाइब्रेरियन (हैरान होकर):कमाल है,अब तक पचासों छात्र-छात्राएं इनसे पढ़ चुके हैं।किसी ने शिकायत नहीं की।
7.छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (Frequently Asked Questions Related to How Can Students Be Free From Illusion?),गणित के छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Mathematics Students Be Free From Illusion?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.माया की बाधा कैसे मिट सकती है? (How Can Illusion’s Barrier Be Overcome?):
उत्तर:त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है परन्तु जो पुरुष मेरे को भजते हैं (भगवान का कार्य करते हैं,लोक कल्याण करते हैं),वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।
प्रश्न:2.क्या परमेश्वर तक पहुंचने के लिए तीनों गुणों को पार करना पड़ता है? (Do We Have to Overcome All Three Qualities in Order to Reach God?):
उत्तर:इस सांसारिक माया के तीन गुण व रूप हैं:सत्त्वगुण,रजोगुण व तमोगुण।तीनों ही गुण व्यक्ति को बांधे रखते हैं और उसे अपने कल्याण के लिए इन तीनों गुणों को ही पार करना होता है। सत्य यही है कि जो संसार को प्रकृति के गुणों का खेल समझकर उससे अनासक्त रहते हुए त्रिगुणातीत हो जाता है,वह स्वयं परमेश्वर हो जाता है और संसार के भव बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
प्रश्न:3.संसार क्या है? (What is the World?):
उत्तर:इस संसार को समझना आसान नहीं है।यह रहस्यमय है।संसार एक तरह की माया है जो निरन्तर परिवर्तनशील है।जो स्थायी नहीं है,पानी के बुलबुले की तरह जिसका अस्तित्व है उसे पाना भी आसान नहीं है।जैसे पानी का बुलबुला देखने में तो अच्छा लगता है लेकिन जब उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया जाए तो वह पानी में विलीन हो जाता है।ठीक इसी तरह संसार और सांसारिकता है,जो इस संसार में उपजती है और उसी में विलीन हो जाती है,उसका अपना कोई स्थायित्व नहीं है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Students Be Free From Illusion?),गणित के छात्र-छात्राएं माया से मुक्त कैसे हों? (How Can Mathematics Students Be Free From Illusion?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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