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How Build Teachers Nation?

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1.शिक्षक राष्ट्र का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Nation?),शिक्षक समाज का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Society?):

  • शिक्षक राष्ट्र का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Nation?) माता-पिता के बाद बालक शिक्षक के ही सबसे अधिक संपर्क में रहता है।बालक का सर्वांगीण विकास ही राष्ट्र का निर्माण है।क्योंकि आज के बालक ही कल देश के कर्णधार होंगे।उन्हीं के कंधों पर देश का भार होगा।
  • प्राचीन काल में शिक्षक और शिष्य के संबंधों से आज के शिक्षक व छात्र की तुलना करें तो बहुत भारी अंतर देखने को मिलता है।आइए देखते हैं कि प्राचीन काल और आधुनिक शिक्षक में क्या अंतर है और अब आज के शिक्षकों को क्या भूमिका निभानी चाहिए।यों शिक्षक,गणित शिक्षक पर कई लेख लिखें जा चुके हैं परंतु पूर्व लेखो में तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया है।अतः यह लेख विषय वस्तु के आधार पर उनसे हटकर लिखा गया है।
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2.प्राचीन शिक्षकों की भूमिका (The Role of Ancient Teachers):

  • राष्ट्र निर्माण एक चिरंतनशील प्रक्रिया है।उसका उद्धव “नगर-राज्य” था और आधुनिक स्थितियों से प्रभावित होकर यह शनैः-शनैः अंतरराष्ट्रवाद में परिवर्तित होता जा रहा है।इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया में शिक्षकों की भूमिका दो परिप्रेक्ष्य में दृष्टिगोचर होती है।प्रथम,राष्ट्र नामक संस्था के निर्माण में तथा द्वितीय,राष्ट्र की सजीव व सार्थक रूप देते हुए सतत नवीन राष्ट्र निर्माण में।
    एक संस्था के रूप में राष्ट्र निर्माण मनुष्य की आवश्यकताओं का प्रतिफल है तथा नवीनता विकास का परिचायक है,परंतु इतिहास साक्षी है कि इन आवश्यकताओं की अनुभूति सर्वप्रथम शिक्षकों को ही हुई।यह शिक्षक वर्ग ही था जिसने समय-समय पर महत्त्वपूर्ण आमूल परिवर्तनों को जन्म देकर वर्तमान राष्ट्र की संभावनाओं को भूतकाल में बढ़ा दिया था।
  • उपर्युक्त सभी वक्तव्यों को बगैर ऐतिहासिक उदाहरणों के समझना कठिन है।इस उपलक्ष्य में यह कहना तर्कसंगत होगा कि पूरे इतिहास में छठीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व तक के शिक्षकों से श्रेष्ठ उदाहरण नहीं मिलते और इस दौरान होने वाले इसने महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तनों की इतनी अधिक कड़ियाँ नहीं मिलती।यह तथ्य विचारणीय है कि इस दौरान “नगर-राज्यों” का “राष्ट्र” बन जाना इतने कम समय में संभव हुआ।यद्यपि इसके बाद पुनः राष्ट्र का बिखराव हुआ,राजनीतिक स्थिरता छिन्न-भिन्न हुई और फिर साम्राज्य कायम हुआ तथा पुनः राष्ट्रों ने स्वतंत्र होकर वर्तमान राजनीतिक,स्थिरता को कायम कर लिया है,तथापि तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व से राष्ट्रों के जन्म तक के समय का इतना लंबा खिंच जाना श्रेष्ठ शिक्षकों की कमी थी।
  • सर्वप्रथम शिक्षकों की भूमिका को राष्ट्र नामक ‘संस्था’ के निर्माण में देखना उचित होगा।पाइथागोरस ने स्वस्थापित “पाइथागोरियन स्कूल” में वक्तव्य दिया था कि एक न्यायपूर्ण राज्य की अवधारणा एक ऐसे राज्य की अवधारणा है जो समरसता या समानुपात के सिद्धांत पर आधारित है व जिसके सभी अंगों में वर्गिक समानता है।पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में एथेंस ‘यूनान’ में जब कुलीनतंत्र की समाप्ति व जनतंत्र का उदय हुआ तब अचानक व्यक्तियों की आवश्यकता परिवर्तित हो गई थी जो जनतंत्र के पक्ष में जाती थी।तत्कालीन परिस्थिति के लिए सोफिस्ट विचारकों ने जनतंत्र समर्थक शिक्षकों की भूमिका निभायी।वे आधुनिक प्रोफेसरों के समान ही थे लेकिन उनमें एक मुख्य अन्तर यह था कि जहां आधुनिक प्राध्यापकों द्वारा सैद्धांतिक शिक्षा ही दी जाती है वहाँ उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा व्यावहारिक भी होती थी।
  • “डेल्फी की देववाणी” में सुकरात को सर्वबुद्धिमान बताया गया।सुकरात इसके परीक्षण में ही शिक्षक बन गया और अरिस्तोक्लीज “प्लेटो” उसका प्रमुख शिष्य बना।’क्रांतिकारी विचारधारा वाला शिक्षक’ प्लेटो अपने जीवनकाल में असफल रहा किंतु ‘समूल परिवर्तन चाहने वाला शिक्षक’ श्रेष्ठ विद्यार्थियों को बनाने में सफल रहा।शिक्षकों की मुख्य भूमिका राष्ट्र के लिए उचित कर्णधारों को तैयार करना है।इस दृष्टिकोण से प्लेटो ने अपने विश्व-प्रसिद्ध स्कूल “अकादमी” की स्थापना की थी और इस स्कूल का सर्वोग्य छात्र अरस्तू था।यही अरस्तू जिसके मस्तिष्क की बुद्धिमत्ता के लिए “भूतों न भविष्यत्” की संज्ञा प्रचलित है।शिक्षकों की गुणवत्ता उनके प्रिय और मुख्य शिष्यों में अवश्य दृष्टिगोचर होती है।अरस्तु प्लेटो का प्रमुख शिष्य ही था।
  • सिकंदर की हस्तरेखा को देखकर ज्योतिषियों ने दावे से यह कहा था कि वह कभी सम्राट नहीं बन सकेगा लेकिन उसकी क्षमता को पहचानने वाला व्यक्ति एक शिक्षक ही था और वह था अरस्तू।अरस्तू ने सिकंदर को विश्व सम्राट बनने की प्रेरणा देते हुए ही शिक्षित किया था और विश्व साम्राज्य बनाने का निर्देश दिया था।सिकंदर ने दृढ़ संकल्प के साथ इस निर्देश का पालन किया तथापि यह अतिशयोक्ति न होगी कि यदि अरस्तू सा शिक्षक ना होता तो सिकंदर सा सम्राट भी ना होता।
  • एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ने जन्म ले लिया था “नगर राज्य से विश्व साम्राज्य की स्थापना”।इसके तुरंत बाद “नंद वंश” के द्वारा भारत में नालंदा विश्वविद्यालय के प्राध्यापक कौटिल्य का अपमान हुआ और कौटिल्य द्वारा लिए गए “नंद वंश” को विनाश करने उपरांत मौर्य साम्राज्य की स्थापना और “नंद वंश” के नाश ने शिक्षकों की एक बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका को दर्शाया।इस घटना ने शिक्षकों के महत्त्व व सम्मान को अत्याधिक बढ़ा दिया था और अप्रत्यक्ष भूमिका को प्रत्यक्ष प्रदर्शित कर दिया था।मौर्य वंश की राजनीतिक स्थिरता ने राष्ट्र की परंपरा को जागृत किया था जिसका श्रेय कौटिल्य को ही जाता है।

3.शिक्षकों का आचरण उत्तम हो (Teachers’ conduct should be good):

  • इतिहास शिक्षकों की भूमिका पर ध्यान बाद में केंद्रित करता है,पहले शिक्षकों की गुणवत्ता ही प्रधान हो जाती है।शिक्षकों में न्याय की भावना,परिस्थितिनुसार कार्य करने की क्षमता,सत्य की पहचान,स्वयं की ज्ञातव्यता,शांतशील,चिंतनता,शिष्यों की क्षमता पहचानने की स्वक्षमता,स्वाभिमान,आत्म-सम्मान,कर्मठता तथा भयरहित व सर्वज्ञानी होने के साथ-साथ अपने शिष्य के समक्ष ईमानदार रहने का गुण होना नितांत आवश्यक है।शिष्य के समक्ष ईमानदार रहने का गुण ही उसकी भूमिका है।इसी के द्वारा वह अपना कर्त्तव्य निर्वाह करता है।इस भूमिका में वह अपने तमाम गुणों से अपने शिष्य को सींचता है जो भावी राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिक बनते हैं।अपनी इस प्रक्रिया द्वारा नित नवीन राष्ट्र निर्माण की ओर प्रगतिशील रहता है।
  • शिक्षक ही व्यक्ति के जीवन के इस काल में प्रवेश करता है जब उसकी अवस्था भावना प्रधान और सुकोमल होती है।बुद्धि अपरिपक्व शैशवावस्था में होती है,फलतः वह किसी प्रकार के निर्णय लेने में समर्थ नहीं होती है।शिक्षक ही इस दौरान उनमें ऐसी प्रवृत्तियां पैदा कर सकता है कि फिर वे जीवन पर्यंत व्यक्ति के साथ बनी रहे और उनमें सत्य व विवेक का संचार इस प्रकार हो कि वह आत्म-निर्णय लेने में सक्षम हो सके।राष्ट्र का संचालन करने वाले नागरिकों में राष्ट्र संबंधी चिंतनशील प्रकृति तथा चरित्र का होना आवश्यक है।अतः नागरिकों का सत्य पर आधारित विवेकपूर्ण आत्म निर्णय की विशेषताओं से परिपूरित होना आवश्यक है।यही परिपूर्ति कर शिक्षक राष्ट्र निर्माण में आदर्श भूमिका निभाते हैं।
  • यदि शिक्षक वर्ग अपनी गुरु गरिमा को ध्यान में रखते हुए छात्रों का व्यक्तित्व विकसित करते हुए उनका भविष्य उज्जवल बनाने की सोचने लगे तो इतने भर से बहुत काम चल सकता है।जिस प्रकार अभिभावक बच्चों के लिए दिनभर 16 घंटे खटते रहते हैं।उसी प्रकार अध्यापक निजी परिवार का निर्वाह करने के लिए वेतन से संतुष्ट रहकर छात्रों के कल्याण की बात सोचें और और उसके निमित्त जो बन पड़े,उसे करने के लिए यथासंभव प्रयत्न करे।
  • ‘औसत नागरिक स्तर का निर्वाह’ की नीति अपनाए।अध्यापक छात्रों के,देश के गुरु होने के नाते इस आदर्श को अपने आप पर लागू कर सकते हैं।वेतन पर गुजारा करने,अतिरिक्त कमाई के लिए मन न चलने की बात वे सोचने लगें तो उन्हें सच्चे अर्थों में गुरु कहा जा सकेगा।
  • इसी वर्ग (अध्यापक) ने भूतकाल में निजी महत्त्वाकांक्षाओं को तिलांजलि देकर निरंतर लोकमंगल में निरत रहने का व्रत लिया था और देश के नागरिकों को देवोपम बनाने का श्रेय प्राप्त किया था।यदि अन्य अनेकानेक कठिनाइयों,शिकायतों की ओर ध्यान देने की अपेक्षा अपने कर्त्तव्य पालन की बात सोचने लगे तो यह अकेला वर्ग ही देश का कायाकल्प कर सकता है।छात्र उन्हें समुचित सम्मान देते हैं।उनके अभिभावक भी बड़ी आशाएँ करके कृतज्ञ रहते हैं।यदि एक विद्यालय से संबंधित छात्रों के परिवार को देखा जाय तो बच्चों और अभिभावकों की संख्या सैकड़ों-हजारों हो जाती है।उनके साथ संपर्क साधकर पढ़ाई में प्रगति से लेकर व्यक्तित्व विकास संबंधी चर्चा के लिए योजनाबद्ध एवं क्रमबद्ध रूप से समय निकालने की इच्छा हो तो वे आसानी से कर सकते हैं।इसके लिए समय की कमी रहने जैसा बहाना बनाना भी नितांत असंगत है।

4.शिक्षा संस्थानों में शिक्षण के अतिरिक्त शिक्षक का दायित्व (Responsibilities of teachers in addition to teaching in educational institutions):

  • पुस्तकालय चलाना अध्यापकों के लिए नितांत सुगम है।वे बच्चों द्वारा अभिभावकों के लिए पढ़ने का,सुनाने का सिलसिला चलाते रह सकते हैं।खेलकूद में ग्रामीण स्तर के खेलकूद,योगासन-प्राणायम,व्यायाम,कबड्डी,खो-खो,फुटबाल आदि का प्रशिक्षण रविवार की साप्ताहिक छुट्टी के दिन किया जा सकता है।एक स्कूल में कई-कई अध्यापक होते हैं।घरेलू कामों के लिए कभी किसी अध्यापक को इन कामों से अवकाश लेने की आवश्यकता आ पड़े तो,उसके स्थान पूर्ति दूसरे कर सकते हैं।
  • इस प्रकार एक स्कूल के अध्यापक ही मिल-जुलकर ऐसी योजना बना सकते हैं कि न केवल विद्यार्थियों को वरन समूचे गांव को प्रगतिशील शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है।विद्यार्थी तो हर कसौटी पर खरे सिद्ध हो सकते हैं।बच्चों का जन्मदिवसोत्सव उनके घर में मनाने की परंपरा आरंभ करके सभी घरों में बच्चों के प्रति बड़ों के और बड़ों के प्रति बच्चों के कर्त्तव्य का प्रशिक्षण भाव भरे वातावरण में किया जा सकता है,यहां हम अध्यापक को गुरु के उस आसन पर आसीन कर रहे हैं,जिसमें की कभी उनके ऊपर स्वर्ग से पुष्प बरसाने की तरह समूचे गांव की श्रद्धा बरसती थी और वे वेतन की दृष्टि से सामान्य स्तर का रहन-सहन रखते हुए भी ‘सादा जीवन उच्च विचार’ सिद्धांत की प्रत्यक्ष प्रतिमूर्ति बने रहते थे।
  • स्कूल भले ही चार-पांच घंटे खुले पर अध्यापक के लिए तो उतने बच्चों का अभिभावक होने के नाते 16 घंटे का काम बना रहना चाहिए।इसमें उन्हें थकान आने वाली नहीं है।वरन कर्मयोगी की तरह निरंतर प्रगति और प्रसन्नता बढ़ती रहेगी।परिवार का काम उनकी पत्नी या बड़ी आयु के भाई-बच्चे संभालने की जिम्मेदारी आ पड़ने पर उसे भली प्रकार निर्वाह करते रहेंगे।

5.प्राचीन शिक्षा पद्धति (Ancient Education System):

  • विद्यार्थियों को गुरुकुलों में राष्ट्र-सेवा और जन-सेवा की,संयम और नियमपूर्वक त्याग एवं तप पूर्ण जीवन जीने की,आचार्य,अतिथि,माता-पिता और भाई के प्रति आदर और श्रद्धा की उच्च भावना रखने की शिक्षा दी जाती थी।सादा जीवन और उच्च चिंतन यद्यपि उनका आदर्श रहता था,पर ज्ञान और शक्ति के जगमगाते सूर्य ही हुआ करते थे तब के विद्यार्थी।सांचे में ढाले हुए यही बालक जब गृहस्थ धर्म को संभालते थे,तो वहां भी सुख और सौभाग्य का स्वर्ग उपस्थित कर देते थे।
  • शिक्षा का जीवन से पूर्ण संबंध था।व्यक्ति के अज्ञान किंवा अविद्या के नाश के अतिरिक्त उसके गुण,कर्म,स्वभाव,आचार-विचार,दृष्टिकोण,बल,विवेक चातुर्य तथा शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का विकास अर्थात् सर्वशक्ति संपन्न व्यक्तित्व का विकास हमारे गुरुकुलों में दी जाने वाली शिक्षा का उद्देश्य होता था।उस शिक्षा-पद्धति की उपयोगिता और व्यावहारिकता का तो कहना ही क्या?

  • हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति (गुरुकुल प्रणाली में) के अनुसार जैसे ही बालक की बुद्धि का विकास हो,उसे योग्य गुरु को सौंप देने का विधान है।गुरुकुल प्रणाली में विद्यार्थी पूर्ण शिक्षित होने तक अपने गुरु के समीप रहकर वहां अक्षराभ्यास,भाषा-बोध,व्याकरण साहित्य,दर्शन आदि का अध्ययन करते थे,वहाँ उन्हें चरित्र,सदाचरण,पवित्रता,आंतरिक निर्मलता,अतिथि सेवा,भातृ-भावना,सहयोग,सहानुभूति,पर दुःख कातरता और परोपकार की भी शिक्षा दी जाती थी।
  • मानसिकता प्रौढ़ता,विचार शक्ति,उत्तम स्वास्थ्य और शुद्ध जीवन लेकर स्नातक जिस क्षेत्र में प्रवेश करते थे,उसी में सत्य को प्रतिस्थापित कर योग्य नागरिक कहलाने का क्षेत्र प्राप्त करते थे।जो अपने चरित्र और विद्वता की कसौटी पर कसकर पूर्णता प्राप्त कर लेते थे,शिक्षा का गुरुत्तर कार्य उन्हीं को सौंपा जाता था।ताकि वे विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान के साथ सद्गुणों की क्रियात्मक शिक्षा भी दे सकें।इसके लिए वे पहले अपने उद्दात चरित्र की परीक्षा देते थे।जिनमें विद्यार्थियों के चरित्र और ज्ञान को परिपक्व बनाने की उनके मन और जीवन को सत्प्रेरणा देकर उत्कृष्ट बनाने की क्षमता होती थी,उन्हें ही आचार्यत्व का गौरवपूर्ण पद प्राप्त होता था।श्रेष्ठ चरित्र की आधारशिला पर विनिर्मित बालकों का जीवन भी तब भव्य और भला बनता था।राम-लक्ष्मण,भरत-शत्रुघ्न गुरु वशिष्ट जी के गुरुकुल में,श्रीकृष्ण-सुदामा गुरु सांदीपनि के गुरुकुल में,पितामह भीष्म गुरु परशुराम के गुरुकुल में ही तैयार हो सके थे।

6.वर्तमान समय में शिक्षक और छात्र-छात्राओं का नैतिक पतन (Moral degradation of teachers and students in the present time):

  • वर्तमान समय में शिक्षकों का नैतिक पतन हुआ है व उसका अप्रत्यक्ष प्रभाव राष्ट्र पर पड़ा है।शिक्षक वेतन भोगी कर्मचारी होकर ही रह गये हैं और वे अपनी विद्यादानी व राष्ट्र निर्मात्री भूमिका को भूलने लगे हैं।अयोग्य होते हुए भी नियुक्ति के लिए गलत मार्ग का इस्तेमाल कर नियुक्ति लेने,गुटबाजी व कक्षा में उचित तरीके से न करके ट्यूशनों में वृद्धि आदि धनलोलुप प्रवृत्तियों ने उनकी गरिमा को धूमिल किया।आज शिक्षकों में शराब पीने,सिगरेट पीने,धूम्रपान का व्यसन,छात्र-छात्राओं के साथ यार-दोस्तों जैसा बर्ताव करने,लड़ाई-झगड़ा करने,छात्रों में गुटबाजी को प्रोत्साहन देने,राजनीति में भाग लेने जैसी प्रवृत्तियों के आदी हो गये हैं।
  • ऐसे शिक्षकों को एक बार चुनौती है कि वे पुनः उठें,स्वयं को पहचानें,राष्ट्र को उसका अधिकार प्रदान करें ताकि राष्ट्र उनके द्वारा आवश्यकतानुसार परिवर्तन करा सके।वे जानें कि सच्चे अर्थों में वे ही राष्ट्र निर्माता हैं और स्वयं को राष्ट्र को समर्पित करें।उनसे अपेक्षा है कि वे गुरुता के व्यापक अर्थ को समझें तथा तदनुसार आचरण करें।
  • आज का विद्यार्थी अस्त-व्यस्त है।ना उसकी शारीरिक शक्तियां मुखर है,न बौद्धिक।स्कूल से निकलते वह अनुशासनहीनता,चारित्रिक पतन,मनोविकारों का बोझ और कंधे पर डाल लेता है।फिर जब वह गृहस्थ में प्रवेश करता है तो वहां भी कलह,क्रूरता,स्वेच्छाचारिता,आलस्य,अकर्मण्यता के अतिरिक्त कोई नया जीवन नहीं जगा पाता।हो भी कैसे सकता है।कमजोर नींव पर खड़ा मकान कमजोर ही हो सकता है।
  • जो शिक्षा शिक्षार्थी को अपना ही ज्ञान नहीं करा सकती,जीवन की समस्याओं का सम्यक बोध नहीं करा सकती,उसमें चाहे इतिहास पढ़ाया जाय अथवा नागरिक शास्त्र,अर्थशास्त्र,शरीर या जीवविज्ञान वह कभी उपयोगी नहीं हो सकती।मनुष्य अपने आप में आध्यात्मिक तथ्य और सत्य है जब तक उसकी शिक्षा पद्धति में आध्यात्मिकता की नींव नहीं पड़ती,तब तक वह शिक्षार्थी को उसके वास्तविक लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती।उल्टे गड़बड़ी ही पैदा कर सकती है और कर ही रही है।बंदर के हाथ तलवार दे देने जैसी परिस्थिति आज सर्वत्र बन रही है।बुराइयों के साथ बढ़ी हुई बौद्धिक शक्ति से विनाशकारी परिस्थितियों का ही निर्माण हो सकता है,सो वही आज हो भी रहा है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में शिक्षक शिक्षक राष्ट्र का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Nation?),शिक्षक समाज का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Society?) के बारे में बताया गया है।

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7.आज के शिक्षक के हालात (हास्य-व्यंग्य) (Today’s Teacher Situation) (Humour-Satire):

  • रवि और किशन,शिक्षक द्वारा पढ़ाने का एक कक्षा का दृश्य देख रहे थे।
  • रवि:बेचारा! कितनी मेहनत करता है।स्कूल में पढ़ाता है,कोचिंग में पढ़ाता है,घर पर ट्यूशन कराता है,रात-दिन धन कमाने में लगा है।
  • किशन:मरने पर स्वर्ग में धन-दौलत लेकर जाएगा ताकि वहाँ आराम से जीवन व्यतीत कर सकें।यहाँ तो सुख-चैन,शांति नसीब हुई नहीं।

8.शिक्षक शिक्षक राष्ट्र का निर्माण कैसे करें? (Frequently Asked Questions Related to How Build Teachers Nation?),शिक्षक समाज का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Society?) से सम्बन्धित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.माता-पिता व शिक्षकों के दायित्व में क्या अन्तर है? (What is the difference between the responsibilities of parents and teachers?):

उत्तर:बच्चों के पालन पोषण का कार्य माता-पिता करते हैं किंतु उसे संस्कारवान बनाकर सुसभ्य नागरिक बनाना आचार्य की जिम्मेदारी है।इस महान् उत्तरदायित्व के कारण ही गुरु मनुष्य समाज का देवता है।उसकी महत्ता पर जितना लिखा जाए उतना ही कम है।

प्रश्न:2.आज के छात्र-छात्राओं का शिक्षक के प्रति कैसा भाव है? (What is the attitude of today’s students towards teachers?):

उत्तर:आज छात्र-छात्राओं द्वारा गुरु की आज्ञा का पालन करना तथा उनकी सेवा करना प्रतिगामिता का चिन्ह समझा जाता है।शिक्षा क्षेत्र में भौतिक शिक्षा-पद्धति का पूर्णतया प्रचलन होने से अब शिक्षक भी वैसे निष्ठावान नहीं रहे।शिक्षकों का कार्य पाठ्य विषय को किसी तरह प्रतिपादित करके समझा देना और विद्यार्थियों ने शिक्षा का उद्देश्य केवल प्रमाण पत्र पा लेना समझ लिया है।शिक्षा के क्षेत्र में श्रद्धा प्रायः विलुप्त हो चली है और सभी ओर अनुशासनहीनता ही दृष्टिगोचर हो रही है।व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा देने का कोई प्रयोजन नहीं रह गया।

प्रश्न:3.आज चारों उच्छृंखलता क्यों है? (Why is there disorderliness all around today?):

उत्तर:छात्र-छात्राओं को व्यावहारिक व आध्यात्मिक शिक्षा न देने के कारण न तो बौद्धिक आत्म-निर्भरता आ पाती है और न वे जीवन के सदुद्देश्य को ही समझ पाते हैं।सामाजिक जीवन जो अस्त-व्यस्त हो रहा है,वह इसी के कारण है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा शिक्षक शिक्षक राष्ट्र का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Nation?),शिक्षक समाज का निर्माण कैसे करें? (How Build Teachers Society?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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