Do Not Let Children Feel Alienated
1.बच्चों को पराया पर महसूस न होने दें (Do Not Let Children Feel Alienated),बच्चों को अपनापन दें (Give Children a Sense of Belonging):
- बच्चों को पराया पर महसूस न होने दें (Do Not Let Children Feel Alienated) उन्हें परायापन तब महसूस होता है जब हम बच्चों की अपेक्षा करते हैं,बच्चों की परवरिश पर ठीक से ध्यान नहीं देते हैं।शुरू में प्यार और अपनेपन की जरूरत होती है।
आज के बच्चे ही कल देश के कर्णधार बनेंगे,अब बच्चों का निर्माण अच्छा होगा तो देश का भविष्य अच्छा होगा।एक-एक व्यक्ति से,एक-एक बच्चे से मिलकर ही घर-परिवार,समाज और देश का निर्माण होता है। - आपको यह जानकारी रोचक व ज्ञानवर्धक लगे तो अपने मित्रों के साथ इस गणित के आर्टिकल को शेयर करें।यदि आप इस वेबसाइट पर पहली बार आए हैं तो वेबसाइट को फॉलो करें और ईमेल सब्सक्रिप्शन को भी फॉलो करें।जिससे नए आर्टिकल का नोटिफिकेशन आपको मिल सके।यदि आर्टिकल पसन्द आए तो अपने मित्रों के साथ शेयर और लाईक करें जिससे वे भी लाभ उठाए।आपकी कोई समस्या हो या कोई सुझाव देना चाहते हैं तो कमेंट करके बताएं।इस आर्टिकल को पूरा पढ़ें।
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2.बच्चों के लिए माता-पिता के पास समय नहीं (Parents don’t have time for children):
- मासूम उम्र को बड़ा ही संभालकर रखना पड़ता है,अन्यथा यहां मन भटक सकता है,भावना प्रदूषित हो सकती है।आज के बाजारवादी अत्याधुनिक युग में मासूमियत भटक गई है,मन मलिन हो गया और भावनाएं कुम्हला गई हैं।आखिर कौन है इसका जिम्मेदार? प्रश्न तो अनेक कौंधते हैं,परंतु कहीं कोई जवाब नहीं मिलता है और जवाब जब मिलता है तो हम उसे अनदेखा कर देते हैं;क्योंकि जिंदगी को गम्भीरता से लेने की हम लोगों की आदत ही खो गई है।पहले तो कर लो,फिर देखा जाएगा।जिंदगी इस ‘देखा जाएगा’ का जवाब इतनी जल्दी नहीं देती,जिससे हम लापरवाह हो जाते हैं और इसी लापरवाही के कारण मासूम जिंदगी पता नहीं,कहां खो गई है,कब से खो गई है।
- आज के भागमभाग के दौर में किसी के पास यदि कुछ नहीं है तो वह है समय।व्यस्त नहीं,अतिव्यस्त,बल्कि सरपट भागते महानगरीय जीवन में माता-पिता के पास अपने मासूम बच्चों,किशोरों के लिए समय नहीं है।समय के इस अभाव में बच्चों एवं किशोरों को जो संरक्षण मिलता है,वह घर में काम करने वाली नौकरानियों से।ऐसी गरीब महिलाएं,जो बच्चों की देख-रेख करती है,उनके पास काम के कई दबाव रहते हैं और वे इस काम को बच्चों के विकास के रूप में नहीं,बल्कि नौकरी पेशे के रूप में लेती है और इसका परिणाम होता है कि बच्चे न तो उनके नियंत्रण में होते हैं और न अपने अभिभावकों के।इनके पास जो समय बचता है,वह घर में ही टीवी के सामने और स्कूल के समय पढ़ने में नियोजित होता है।
- आज मासूम बच्चे जितने एकाकी-अकेले पड़ गए हैं,शायद ऐसी व्यथा और कभी देखने-सुनने को नहीं मिली थी।इसे यों कहें कि अत्याधुनिकता का प्रभाव यदि किसी पर पड़ रहा है तो इस मासूम जिंदगी पर।ये अबोध,जिनको माता-पिता के वात्सल्य की जरूरत पड़ती है,दादा-दादी की कथा-कहानियों की आवश्यकता होती है,उन्हें टीवी पकड़ा दिया गया अथवा मोबाइल पकड़ा दिया गया।
- ये टीवी व मोबाइल के साथ ऐसा गहरा रिश्ता बना बैठे हैं कि टीवी में जो कुछ घट रहा होता है,उन्हें वह सब चाहिए; टीवी का काल्पनिक कथाचित्र उन्हें यथार्थ जीवन में चाहिए।क्योंकि बालमन कल्पना और यथार्थ के बीच की दीवार को लाँघ नहीं पाता है,उसका वह विश्लेषण नहीं कर पाता,इसलिए कल्पनाओं के इस मायाजाल को पाने के लिए बालहठ की राह अपनाता है।बालहठ राजहठ और नारीहठ से भारी पड़ता है; अर्थात् बालक ने जिद की है कि उसे अमुक ब्रांड का खिलौना या ऐसी ही कोई चीज चाहिए जो बस चाहिए।जब तक उसकी पूर्ति नहीं हो जाती,तब तक वह आतंक मचा देता है।
3.बच्चों की बात कौन सुनें? (Who listens to the children?):
- बालकों का यह चिड़चिड़ापन दिन-प्रतिदिन लगातार बढ़ता ही चला जा रहा है।इसको बढ़ाने वाले टीवी में आने वाले अनगिनत सीरियल हैं,इंटरनेट की रंगीन एवं व्यापक दुनिया है।समाचार के इन साधनों में जिंदगी को समझाने की कला तो नहीं के बराबर है,परंतु जिंदगी को विध्वंसक बनाने वाली अधिक होती है।इनमें रचनात्मकता के बजाय हिंसात्मकता अधिक है।बच्चा जब किशोरावस्था जैसी संवेदनशील एवं नाजुक वय-संधि पर कदम रखता है तो उसे इस उम्र का सारा ज्ञान न तो घर में अभिभावक देते हैं और न स्कूलों में शिक्षक।
- एक ओर माता-पिता के पास समय का अभाव है तो दूसरी ओर शिक्षक लगभग व्यवसाय के पर्याय बन चुके हैं;क्योंकि आज शिक्षा और शिक्षक,दोनों ही व्यवसाय के प्रमुख केन्द्रों में गिने जाने लगे हैं।हो सकता है,इन बातों से किसी को ऐतराज हो,पर यथार्थ के आईने में झाँके तो यह कड़ुई सच्चाई अवश्य ही दीखेगी।ऐसे में किशोर मन कहां से सीखे और क्या सीखे कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।
- समय और समाज का स्वरूप परिवर्तित हुआ है तो इसका प्रभाव तो पड़ेगा ही।किशोरों का जीवन भी बदला है,परंतु यह बदलाव सकारात्मक है या नकारात्मक कैसे जानें।मनोविज्ञानी अपने प्रयोगों एवं सर्वेक्षणों के आधार पर घोषित करते हैं कि यह बदलाव नकारात्मक अधिक है।यह बदलाव हिंसा,अपराध और अश्लीलता की ओर सर्वाधिक है।यह गंभीर चिंता का विषय है।स्थिति बदल चुकी है,परंतु अब भी इसको सुधारने के लिए किसी के पास समय नहीं है।निम्हांस,विम्हांस जैसे भारत के प्रसिद्ध मानसिक अस्पतालों में बाल मनोरोगियों की उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या को देखकर स्थिति का पता लगाया जा सकता है।
- किशोरों का मासूम मन करे तो क्या करें,किसके पास जाए अपनी अनकही व्यथा सुनाने! कौन सुनेगा उनकी दर्दभरी दास्तां और सुनेगा तो समझें कैसे और समझाएं कैसे!क्योंकि जब गलत हुआ देखते हैं तो अभिभावकों के सब्र का बांध टूट पड़ता है और वे अपने मन की भड़ास बच्चों पर उतार देते हैं।वे यह नहीं समझ पाते कि बालमन बड़ा ही कोमल एवं संवेदनशील होता है,ऐसी झिड़कियों एवं परिस्थितियों का उस पर गहरा प्रभाव पड़ता है।इसका प्रभाव दूरगामी होता है,जिसे उनके व्यक्तित्व में देखा जा सकता है।इस प्रकार एक ओर तो वह अपने अभिभावकों से ऐसा व्यवहार पाता है और दूसरी ओर ही टीवी,इंटरनेट आदि से जो जानता हो पाता है,वह भी सांघातिक होता है।ऐसे में क्या करें? ‘किंकर्त्तव्यमूढ़ करें क्या’ का परिणाम होता है एक अनकही,अजनबी,परंतु रूमानी दुनिया में प्रवेश,जहां पर हिंसा,हत्या,अपराध,अश्लीलता का भारी जमघट रहता है।
- आज का किशोर यही सब तो सीख रहा है।मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षणों से पता चलता है कि किशोर स्वयं को अपनी उम्र का न मानकर वयस्क मानने लगते हैं।उनके सारे क्रियाकलाप अब वयस्कों जैसे हो रहे हैं।अब वे जवानी से पहले इस अवस्था की सारी चीजों को अपनाने लगे हैं।इनकी इन करतूतों से तो कभी-कभी माता-पिता का सिर शर्म से झुक जाता है।आपराधिक एवं अश्लीलता से भरे दृश्यों को देखकर उनकी मानसिकता कुछ ऐसी बन चुकी है कि बातों-बातों में उसकी झलक देखी जा सकती है।स्कूलों में किशोरों के बीच आपराधिक क्रियाओं की बाढ़ सी आ गई है।अमेरिका के समाज में घटने वाली घटनाएं अब हमारे समाज में भी घटने लगी हैं।स्कूल में किशोरों द्वारा गोली चलाकर हत्या करने की खुली प्रवृत्ति उपर्युक्त तथ्य को बल प्रदान करती है।
4.बच्चों का हिंसात्मक प्रवृत्तियों की ओर रुझान (Children’s tendency towards violent tendencies):
- दृश्य एक:उदयपुर शहर के भट्टियानी चौहट्टा स्थित सरकारी स्कूल में शुक्रवार सुबह दसवीं कक्षा के दो छात्र आपस में झगड़ पड़े।स्कूल के बाहर चाकू के वार से,घायल एक छात्र देवराज ने सोमवार 19 अगस्त,2024 को दम तोड़ दिया।देवराज के परिवार में मां नीमा,पिता पप्पू,दादी धुरि व बड़ी बहन सुहानी है।
- दृश्य दो:जयपुर में नाबालिग द्वारा मकान मालकिन मंजू शर्मा की चाकू से गोदकर हत्या कर दी।
- दृश्य तीन:(26 अगस्त,2024) उत्तरी-दिल्ली के दयालपुर के एक मदरसे में पाँच साल के बच्चे की उसी मदरसे के तीन नाबालिग लड़कों ने पीट-पीटकर हत्या कर दी।
- दृश्य चार:(24 अगस्त,2024) दिल्ली के नजफगढ़ इलाके में 10 साल के बच्चे के स्कूल बैग में पिस्टल मिलने से हड़कंप मच गया।राहत की बात यह रही कि पिस्टल में मैगजीन नहीं थी।
- उपयुक्त उदाहरण तो केवल नजीर है,वरना आए दिन किशोर छात्र-छात्राओं,युवाओं,किशोरों को न तो माता-पिता,न विद्यालय तथा शिक्षकों द्वारा सही शिक्षा तथा विद्या प्रदान की जा रही है।सरकारें भी कान में तेल डालकर सोई हुई हैं।अब ऐसी स्थिति में बच्चे तो बेलगाम होंगे ही,जो चाहे वो करेंगे।अपराधों को कानून की दहशत भी रोक पाने में असमर्थ है।
- हिंसात्मक प्रवृत्तियों में निरंतर बढ़ोतरी के साथ अश्लीलता का जो पिटारा खुला है,ऐसा शायद इसके पहले कभी नहीं घटा हो।इंटरनेट में अनगिनत संख्या में पोर्नोग्राफी साइट और इनको सर्फिंग करने वाले अधिकतर किशोर।यह बताने के लिए पर्याप्त है कि जिस उम्र में कभी गुरुकुल में ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती थी,जिससे शरीर और मन मजबूत होते थे,ब्रह्मचर्य पालन करने की प्रक्रिया 25 वर्ष तक निरंतर चलती थी,जब मन और शरीर दोनों ही परिपक्व हो जाते थे,तभी गृहस्थाश्रम में प्रवेश मिलता था,परंतु आज यह परंपरा मात्र किंवदन्ती बनकर रह गई है।शरीर से दुर्बल,मन से कमजोर किशोर जब ऐसी उल्टी-पुल्टी हरकतें करते हैं तो उनके भविष्य का क्या होगा,केवल कल्पना ही की जा सकती है।
- किशोरों में वयस्कों की तुलना में जोखिम लेने की प्रवृत्ति अधिक होती है।इस कारण सिगरेट,ड्रग्स,शराब आदि आत्मघाती चीजों में वे अधिक रुचि लेते हैं।उनका अनुकरण मन इस ओर अधिक आकर्षित होता है।वे टीवी में प्रदर्शित मॉडलों के समान बनना व दीखना चाहते हैं।आज के किशोरों के आदर्श चरित्रवान पारंपरिक नायक नहीं रहे,बल्कि इसके स्थान पर अधिक ग्लैमरस छवि वाले मॉडल आ गए हैं।अब जब इनके आदर्श ही ऐसे होंगे तो फिर ये कैसे होंगे,उनके विचार कैसे होंगे,यह विचारणीय एवं चिंता का विषय है।कैसे थमेगा यह सब? कौन थामेगा इस उच्छृंखल एवं विप्लवी मानसिकता को?
5.बच्चों को प्यार से समझाएं (Explain to children with love):
- किशोर मन तीव्र प्रतिक्रियाशील होता है,इसलिए उन्हें प्यार से समझाना चाहिए।उनकी गलतियों पर उन्हें कड़ी बातें या फटकार नहीं लगानी चाहिए।प्यार से उनकी बातें,उनकी समस्याएं सुननी चाहिए।गलतियां तो परिणाम हैं,जो हुई,परंतु क्यों हुई और किस कारण हुई उन्हें पूरे शांत मन से सुनना चाहिए।किशोर ऐसी कई गलतियों एवं उनके अपराध बोध से ग्रस्त होते हैं कि वह सहजता से अपने मन की पीड़ा एवं व्यथा को न कह सकें,इसलिए सबसे पहला काम है कि उन्हें अपराध बोध से मुक्त किया जाए।इसके लिए उनके साथ गहरे अपनेपन का व्यवहार करना चाहिए।फिर भी गलतियों एवं समस्याओं का निदान न मिल सके तो वैसे व्यक्ति से यह काम कराना चाहिए,जिनकी वे सुनते-मानते हों।इसे ही काउंसलिंग कहते हैं।
- किशोर एवं वृद्ध,दो ऐसी अवस्थाएं हैं,जिनको सर्वाधिक काउंसलिंग की आवश्यकता पड़ती है।इन्हें किसी काउंसलर के पास ले जाने में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं करना चाहिए।समय रहते सब कुछ ठीक हो जाए तो श्रेयस्कर है,अन्यथा बाद में समस्याएं और भी उलझ जाती हैं।किशोरों को यदि किसी चीज की आवश्यकता होती है,तो वह है प्यार एवं अपनेपन की।यदि वह भावनात्मक तृप्ति परिवार से मिल जाए तो वे इसे पाने के लिए बाहर क्यों भटके! अतः अबोध-नादान-किशोरों को भटकने से बचाने के लिए उनके साथ अत्यंत सौहार्दपूर्ण एवं संवेदनशील संबंध बनाना चाहिए,ताकि वे खुलकर अपनी बात कह सकें।
- यही वह उम्र होती है,जहां पर शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन के कई लक्षण फूटते हैं।अपने इस नित नूतन अनुभव से अनभिज्ञ किशोर बड़े उन्मत्त होते हैं।उन्हें दिशा एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है।वे अपने इस अनुभव को बताना चाहते हैं।उनके पास कहने के लिए बहुत सारी बातें होती हैं।वह कहना अधिक और सुनना कम पसंद करते हैं,इसलिए हमें उनकी बातों को ध्यान से व प्यार से सुनना चाहिए।उनको अधिकाधिक कहने का मौका देना चाहिए,भले ही उनकी बातों में यथार्थ कम और कल्पना के रंग अधिक हों।
- कल्पनाओं को पंख देने वाली यह उम्र होती ही ऐसी है,जिसको सबने अपनी उम्र के इस पड़ाव में पार किया है।हमें उनकी कल्पनाओं को मोड़ने-मरोड़ने वाली बात नहीं करनी चाहिए,बल्कि क्रमशः उनकी कल्पनाओं में कुशल चित्रकार की भाँति यथार्थ और सच्चाई के रंग भरना आना चाहिए।
- इन प्रक्रियाओं के लिए असीम धैर्य एवं संयम की आवश्यकता है।यदि ऐसा किया जा सके तो हम कोमल एवं कल्पनाशील किशोरों की वास्तविक समस्याओं से परिचित भी हो सकते हैं और उन्हें समुचित समाधान भी दे सकते हैं।
- संभव हो तो किसी कुशल मार्गदर्शक से योगाभ्यास के कुछ सूत्र अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए।इससे उनके व्यक्तित्व को निखारने में सहायता मिल सकती है।सर्वप्रथम अपने घर-परिवार के वातावरण को सात्विकता से भरना चाहिए,जहां पर श्रेष्ठ मूल्यों को व्यवहार में उतारा जा सके।परिवार प्रथम पाठशाला है।सर्वप्रथम बच्चे एवं किशोर वहीं पर सीखते हैं।अतः मूल कारण को ठीक करना चाहिए,शेष तो इसी आधार पर ठीक होता चला जाता है।ऐसी साज-संभाल एवं संस्कारों से ही किशोरों की मासूमियत एवं किशोरों,दोनों को पुष्पित-पल्लवित किया जा सकता है।
- उपर्युक्त आर्टिकल में बच्चों को पराया पर महसूस न होने दें (Do Not Let Children Feel Alienated),बच्चों को अपनापन दें (Give Children a Sense of Belonging) के बारे में बताया गया है।
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6.डॉक्टर की कब्र (हास्य-व्यंग्य) (Doctor’s Grave) (Humour-Satire):
- डॉक्टर (छात्र से):अगर तुम मेरी दवा से ठीक हो गए तो मुझे क्या इनाम दोगे।
- छात्र:मेरे पिताजी कब्र खोदने का काम करते हैं,मैं पिताजी से आपकी कब्र फ्री में खुदवा दूंगा।
7.बच्चों को पराया पर महसूस न होने दें (Frequently Asked Questions Related to Do Not Let Children Feel Alienated),बच्चों को अपनापन दें (Give Children a Sense of Belonging) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.बच्चों की की परेशानी का क्या कारण है? (What is the cause of children’s trouble?):
उत्तर:आज के युग में स्कूल लेवल से ही प्रतियोगिता शुरू हो जाती है।माता-पिता को लगता है उनका बच्चा ही सबसे आगे रहे।बच्चों पर ऑलराउंडर बनने का दबाव होता है।टॉप करने के जुनून में सेहत का ध्यान रखना भूल जाते हैं।कई बार ऐसी स्थिति बन जाती है कि बच्चों की सारी दुनिया किताबों में बदल जाती है।अगर पढ़ने में कमजोर रहा तो माता-पिता चाहते हैं बच्चा हर समय किताबों में ही लगा रहे।बस यहीं से समस्या शुरू होती है।
प्रश्न:2.सिबलिंग जेलेसी को समझाइए। (Explain sibling jealousy):
उत्तर:जब घर में एक बच्चा होता है तो माता-पिता पालक होते हैं,जब बच्चे एक से ज्यादा हो जाएं तो माता-पिता ‘रेफरी’ बन जाते हैं और रेफरी का निर्णय हमेशा एक पक्ष को दुःख या गुस्सा दिलाता है।कई मर्तबा ऐसे घर में दो सगे भाई-बहनों या भाई-भाई में ईर्ष्या होने लगती है।इसे ही ‘सिबलिंग जेलेसी’ कहते हैं।
प्रश्न:3.बच्चों में आपस में दूरी क्यों बढ़ती है? (Why does the distance between children increase?):
उत्तर:कई बार बात इतनी बढ़ जाती है कि बड़े भाई या बहन अपने से छोटे को अपना दुश्मन भी समझने लगते हैं।उन्हें लगता है कि अब माता-पिता छोटे भाई या बहन पर ही ध्यान देते हैं।हर बात में उसका ही पक्ष लेते हैं और उन्हें नजरअंदाज करने लगे हैं।
वैसे तो यह सामान्य-सी परेशानी है,किंतु यदि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाए तो ध्यान देना आवश्यक हो जाता है।भाई-बहनों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा अच्छी बात है,किंतु यदि यह ईर्ष्या का रूप ले ले तो ठीक नहीं।यह पालकों की लापरवाही को दर्शाती है।इस समस्या को शुरुआती दौर में ही खत्म करना आवश्यक है वरना घर में अक्सर तनाव का वातावरण निर्मित होता है।बचपन का ये छोटा-सा द्वेष जीवन भर के लिए एक-दूसरे के बीच में दूरी पैदा कर सकता है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा बच्चों को पराया पर महसूस न होने दें (Do Not Let Children Feel Alienated),बच्चों को अपनापन दें (Give Children a Sense of Belonging) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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