How to Make Student Life Happy?
1.छात्र जीवन आनंदमय कैसे हो? (How to Make Student Life Happy?),छात्र जीवन का आनन्द (Joy of Student Life):
- छात्र जीवन आनंदमय कैसे हो? (How to Make Student Life Happy?) अगर छात्र जीवन आनंदमय हो जाए तो पूरे जीवन की मजबूत,टिकाऊ और उन्नत नींव लग जाती है जिससे पूरा जीवन आनंद के साथ गुजारा जा सकता है।परंतु वस्तुतः हम सुख व दुःख को आनंद समझ लेते हैं।
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2.आनंद क्या है? (What is joy?):
- जब छात्र-छात्राएं परीक्षा में सफल हो जाते हैं,किसी परीक्षा में सफल हो जाते हैं,कोई इनामी प्रतियोगिता जीत लेते हैं,कोई स्वादिष्ट भोजन कर लेते हैं या किसी खेल में जीत जाते हैं तो अक्सर कहते हुए पाए जाते हैं कि बड़ा आनंद आ गया है।बिना यह समझे कि आनंद है क्या,आनंद का कैसे अनुभव होता है।ऐसा वे आदतन कहते हैं।जय-पराजय,सफलता-असफलता,लाभ-हानि आदि से प्रभावित होने पर सुख-दुःख अनुभव करते हैं।और सुख को ही हम आनंद समझ बैठते हैं।
- आधुनिक युग की प्रतिस्पर्धा के दौड़ में शामिल होना,तनाव से ग्रस्त होना,द्वन्द्वों से प्रभावित होना (सर्दी-गर्मी,जय-पराजय,न्याय-आन्याय आदि) आनंद की अवस्था नहीं है।सुख अलग बात है आनंद अलग बात है पर हम सुख मिलने को ही आनंद का मिलना समझते हैं।सुख आनंद नहीं हो सकता है।सुख के साथ दुःख भी लगा रहता है क्योंकि सुख-दुःख का जोड़ा है,दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।कभी सुख है तो कभी दुःख यानी दोनों में से कोई एक ही हमेशा बना रहे यह नहीं हो सकता।हम चाहे की हमेशा सुख ही सुख बना रहे यह संभव नहीं है लेकिन हम ऐसा ही चाहते हैं और मजे की बात यह है कि इस चाहत से हम दुःखी ही होते हैं क्योंकि सुख हमेशा रहता नहीं।असल में दुःख का एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम सुख को स्थायी रखना चाहते हैं जबकि इस परिवर्तनशील जगत में कोई चीज स्थायी नहीं है,हो नहीं सकती,होती भी नहीं।हमारी लाख कोशिश के बावजूद परिवर्तन होता ही है और हम दुःखी हो जाते हैं।
- परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है इसे रोका नहीं जा सकता यानी परिवर्तन होना ही एक ऐसा नियम है जो परिवर्तित नहीं होता बाकी यहां सब कुछ परिवर्तनशील है।इस परिवर्तनशीलता को हमें स्वीकार करना ही होगा और इसके लिए हमें सुख व दुःख दोनों के प्रति समान भाव रखना होगा।दुःख का कम से कम हो जाना ही सुख है और सुख का कम से कम हो जाना ही दुःख है।जैसे प्रकाश व अन्धकार बिल्कुल अलग-अलग नहीं है,अलग नहीं किया जा सकता है।
- द्वन्द्वों से दूर रहना ही तप है और यही आनंद है।जहां न सुख हो और न दुःख हो,वहीं आनंद होता है।संसारी छात्र-छात्रा व व्यक्ति दुःखी भी होता है और सुखी भी होता है।दुःखी भी होता है पर आनंदित कभी नहीं होता हालांकि वह कहता जरूर है कि बड़ा आनंद आया,बड़े आनंद में हूं पर ऐसा वह आदतन कहता है बिना यह जाने की वास्तव में आनंद है क्या?
- आनंद गहरी नींद में,समाधि में या सुख-दुःख के प्रति समभाव रखने पर होता है।हम सुख और दुःख से ऊपर होकर ही आनंद को प्राप्त कर सकते हैं वरना सिर्फ आनंद की बात कर सकते हैं पा नहीं सकते।सुख को ही आनंद समझ लेना भाषा का गलत प्रयोग है।जैसे हम कहते हैं की नल आ गया जबकि नल तो अपनी जगह रहता है पानी आता है या जाता है।इसी प्रकार कहते हैं कि आटा पीसा कर ले आया जबकि गेहूं या अनाज पीसा कर लाया जाता है।
3.छात्र-जीवन के सधने का लाभ (Benefits of well practiced of Student Life):
- छात्र जीवन,जीवन का पूर्वार्द्ध है।यह जीवन का महत्त्वपूर्ण अंश है,क्योंकि यह वह कड़ी है,जो पूरे जीवन की आधारशिला है।छात्र जीवन सध जाए तो पूरा जीवन सुधर सकता है,परंतु छात्र जीवन सधे कैसे? इस प्रश्न का जवाब छात्र जीवन शैली,छात्र के जीने के तरीके,छात्र जीवन के अंदाज में छुपा रहता है।कहते हैं,बचपन सधे तो किशोरावस्था सध जाती है।किशोरावस्था की नींव में युवावस्था मजबूती पाती है और युवावस्था (छात्र जीवन) में पूरे जीवन की कहानी छिपी रहती है;अर्थात् छात्र जीवन,जीवन की एक कड़ी है।इस अवस्था का अपना अनोखा आनंद है और यह आनंद तब मिलता है,जब छात्र जीवन को उन्नत करने,तप के साथ जीया जाता है।
- छात्र जीवन की अपनी अनोखी मौज और मस्ती है।जब छात्र जीवन अपनी परिपक्व अवस्था प्राप्त कर लेती है तो इसकी स्थिति उस पके हुए फल के समान हो जाती है,जो अपनी डाली को छोड़ देता है।ठीक उसी प्रकार छात्र जीवन के सधने का तात्पर्य है:मन का इंद्रियों पर नियंत्रण,मन पर बुद्धि का नियंत्रण और बुद्धि आत्मा द्वारा निर्देशित होना और अनंत आकाश में,लोक-लोकान्तर के आनंद का अनुभव करना।छात्र जीवन के सध जाने पर शरीर,मन,बुद्धि पर नियंत्रण हो जाता है,इन्द्रियाँ अपने सही कार्य को अंजाम देती है,पतन के मार्ग पर नहीं ले जाती क्योंकि वे बलवान मन के अधीन रहती है और छात्र मन,इंद्रियों तथा बुद्धि के गँठजोड़ से बाहर निकल जाता है।सच कहें तो छात्र जीवन का तपपूर्ण जीवन व्यतीत करना है,छात्र की शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों का पूर्ण विकास।
- मन के शरीर के साथ चिपके रहने के अनुभव से ठीक विपरीत होता है मन के शरीर से उत्क्रांति।यह तो अनुभवगम्य सच है,जिसकी अपनी अनोखी अनुभूति होती है,अपनी अलग मस्ती है।कोई चिंता नहीं,कोई छल-कपट नहीं,आल्हाद और प्रसन्नता की स्थिति है छात्र जीवन।मन जब शरीर से ऊपर उठने लगता है तो सर्वप्रथम उसका नाता क्षुद्रता से टूटता है,मैं और मेरे के दायरे से बाहर निकलता है।यदि सही रूप से मौज व आनंद की उपलब्धि हो जाए तो मन अकुलाता नहीं है,बल्कि उसे छोड़ (शरीर) सतरंगी लोक (आनंद लोक) में विचरण को बेताब हो जाता है।सच कहें तो जीवन भर जिसे सार समझते रहते हैं,उसकी निस्सारता से वह परिचित हो जाता है और जैसे ही उसे निस्सारता का बोध हो जाता है,वह उसे छोड़ आगे बढ़ जाता है।इस प्रकार छात्र जीवन में मन एक-एक करके सभी प्रकार के विकारों से मुक्त होने लगता है और अंततः स्वतंत्र होकर आकाश में शुभ्र-श्वेत बादलों के समान निर्भार हो उमड़ने-घुमड़ने लगता है।छात्र जीवन का यही मर्म है।
- इसके ठीक विपरीत छात्र जीवन नहीं सधे तो युवावस्था में आसक्ति प्रबल होती है।आसक्ति से मतलब है व्यक्ति,परिस्थिति एवं वस्तुओं से मन का गहरा लगाव एवं संबंध।आसक्ति जितनी गहरी होगी,मन पर उतना ही दबाव होगा।आसक्ति से मन पर उससे संबंधित चीजों का असह्य भार लदा हुआ होता है।उस दबाव एवं भार से मन विकल होता है,परेशान होता है,उससे निकलना चाहता है,परंतु निकल नहीं पाता है।यह स्थिति दीर्घकाल तक बनी रहती है तो मन में विकार पैदा होने लगता है,उसकी नैसर्गिक क्षमता घटने लगती है।मन कल्पनाशक्ति एवं विचारशक्ति को खोने लगता है और फिर उसे वही घर-परिवार,व्यवसाय-व्यापार का गोरखधंधा समझने लगता है।हर पल,हर क्षण बस यही सोचता-विचारता रह जाता है,उसी की चिंता करते-करते कब बुढ़ापा आज धमकता है,पता नहीं चलता।बुढ़ापे में फिर वही चिंता बनी रहती है।इस अवस्था में तो शरीर भी अशक्त हो जाता है,इंद्रियां भी काम करना छोड़ देती हैं।परंतु मन आसक्तियों के भंवर से उबर नहीं पाता।यह बुढ़ापा बड़ा भयावह एवं भारवत होता है।
4.बुढ़ापे में कायाकल्प होना मुश्किल (It is hard to rejuvenate in old age):
- बुढ़ापे में मन अपने बेटे-बेटियों के अलावा नाती-पोतों में अटकने लगता है।बेटे-बहुओं के कटाक्ष और व्यंग्यों के बावजूद मन वहीं चिपका रहता है।जो गणित पहले लगते थे,उसे अभी भी लगाने को बेताब रहते हैं।जीवन का क्रिया-व्यापार तब भी उसी रफ्तार से चलता था,जब शरीर साथ देता था,पर अब शरीर के साथ न देने पर उस क्रिया-व्यापार को विराम नहीं मिलता है।समय बदल जाता है,शरीर जीर्ण हो जाता है,पर मन उसी ढंग से सब कुछ करना चाहता है,लेकिन जब मन का कहा नहीं होता,तब चिढ़न-कुढ़न पैदा होती है और व्यर्थ की बकवास की उलझनों में बुढ़ापा उलझ जाता है।
- यह समझने की बात है कि जो कल था,वह आज नहीं है।कल और आज के बीच बड़ा फासला आ गया है।कल जिम्मेदारियां का बोझ था,आज जिम्मेदारियों को ढोने का मन करता है।जिम्मेदारियां ढोई नहीं जाती,फिर भी मन मानता नहीं है।परिणामस्वरूप मन की क्षमता चुक जाती है और मन संसार के दलदल से ऊपर उठ नहीं पाता है।इसी बुढ़ापे को कोसा जाता है,ताने दिए जाते हैं और वह उपहास का पात्र बनता है।
- युवावस्था में मन व इंद्रियों तथा बुद्धि को काबू करना आसान होता है।कोई जिम्मेदारियां नहीं होती हैं।हालांकि बुढ़ापे में यदि मन मजबूती से इन चीजों को ऐसे झटक दे,जैसे धूल भरी चादर को झटक दिया जाता है तो सारी समस्या ही खत्म हो जाएगी।हालांकि यह इतना आसान नहीं है,जितना की समझा जाता है,परंतु यह इतना दुर्लंघ्य भी नहीं कि इसे लाँघा नहीं जा सके।ऐसा असंभव नहीं है।इसे संभव कर दिखाने वालों की लंबी पंक्ति है,जिनने बुढ़ापे में ऐसे करतब कर दिखाए जिन्हें देख हैरानी होती है।
- देखने में आता है कि गणितज्ञ व वैज्ञानिक जब तरुण होता है तब उसकी बुद्धि प्रखर होती है,तब अपनी शक्ति शुद्ध गणितीय और वैज्ञानिक खोज में ही जोत देता है।उमर बढ़ती है तो वह कुछ भिन्न प्रकार से सोचता है,कुछ-कुछ दार्शनिक की तरह सोचता है।गणितज्ञ भास्कराचार्य के सिद्धांत शिरोमणि ग्रंथ में फलित-ज्योतिष की कोई चर्चा नहीं।पर भास्कराचार्य (द्वितीय) जब बूढ़े हुए तो उन्होंने करण-कुतूहल नाम से एक पुस्तक लिखी।जिस पुस्तक में पंचांग बनाने के तरीके बताए जाते हैं उसे कारण ग्रंथ कहते हैं।भास्कराचार्य की यह पुस्तक भी पंचांग बनाने के तरीके बतलाने के लिए लिखी गई थी।पंचांग के साथ फलित-ज्योतिष भी मिला रहता है।भास्कराचार्य ने अपनी यह पुस्तक लगभग 70 साल की उम्र में लिखी थी।हम नहीं जानते कि भास्कराचार्य की मृत्यु किस साल हुई,परंतु लगभग 70 साल की आयु में करण-कुतूहल जैसे कठिन ग्रंथ को उन्होंने लिखा,तो पता चलता है कि उस उम्र में भी उनके शरीर और दिमाग में कोई थकावट नहीं आई थी।
- भास्कराचार्य केवल गणितज्ञ नहीं थे।वे उच्च कोटि के कवि भी थे।उन्होंने अपने ग्रंथ में गणित के सवालों के साथ-साथ प्रकृति के सौंदर्य का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है।भास्कराचार्य निस्संदेह एक महान गणितज्ञ थे।करण-कुतूहल के विभिन्न आयामों को देखकर कोई भला कैसे कह सकता है कि यह बुढ़ापे की अनमोल देन नहीं है।इतना पैना चिंतन,इतने उत्कृष्ट विचार,सर्वोच्च दर्शन,गहरे ज्ञान से आपपूरित करण-कुतूहल इसी उम्र के पड़ाव का परिणाम है।
5.छात्र जीवन को साधने से ही काम बनेगा (Work will be done only by cultivating student life):
- उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि छात्र-जीवन काल ही ऐसा समय होता है जिसमें जीवन की नींव लगाने का समय होता है।परंतु आजकल की आबोहवा,पाश्चात्य संस्कृति के संपर्क और घिसी-पिटी वर्तमान शिक्षा प्रणाली के कारण छात्र-छात्राओं को सही दिशा नहीं मिल पाती है,फलतः वे भटक जाते हैं।फलस्वरूप उनका पूरा जीवन ही सांसारिक प्रपंचों में उलझा रहता है और जीवन की झंझटों से मुक्त नहीं हो पाते हैं।यदि किसी एक झंझट से मुक्त हो जाते हैं तो दूसरी झंझट गले पड़ जाती है।इस प्रकार झंझटों का ताँता लगा रहता है।उसे जीवन को साधने के बारे में विचार करने की फुर्सत ही नहीं मिलती है।
- अतः यदि छात्र जीवन को सही दिशा मिल जाए,छात्र जीवन को साध लिया जाए तो पूरा जीवन निष्कंटक और आनंदपूर्ण तरीके से गुजारा जा सकता है क्योंकि तब वह कष्टों और मुसीबतों को हल करने का अभ्यस्त हो जाता है।कष्टों,मुसीबतों और झंझटों को सुलझाने में ही उसे आनंद की अनुभूति होने लगती हैं।उसे मालूम हो जाता है कि ये सब जीवन के अंग है और इनसे ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
- यदि छात्र जीवन नहीं साधा जाए तो बुढ़ापे में चिंतन कुंद हो जाता है।सोचने विचारने की क्षमता चुक जाती है।इंद्रियों व शरीर साथ छोड़ देता है और मन बलवान हो जाता है और अपनी मनमानी करने लगता है।इसलिए ऐसा सोचना बुद्धिमानी की बात नहीं है कि तप और साधना बुढ़ापे में करने योग्य कार्य है।जब इंद्रियाँ और शरीर शिथिल हो जाएंगे तब तप व साधना करना,उनको अभ्यस्त करना मुश्किल होता है।हाँ,छात्र-जीवन से ही ऐसा अभ्यास डाल लिया जाए तो वृद्धावस्था में भी तप और साधना करने के अभ्यस्त हुआ जा सकता है।
- अब प्रश्न यह है कि छात्र जीवन कैसे सधे,कैसे सही दिशा मिले? इसके लिए आपको अपनी कोर्स की पुस्तकें पढ़ने के साथ-साथ कुछ समय योग-साधना,मन को नियंत्रित करने,इंद्रियों का निग्रह करने,अपने शरीर को साधने में लगाना चाहिए।धीरे-धीरे,थोड़े-थोड़े अभ्यास से अपने आप को काबू में करना सरल हो जाता है।छात्र जीवन में जिम्मेदारियां से मुक्त रहते हैं अतः कोई तनाव,चिंता नहीं रहती है।अतः छात्र जीवन को अभ्यास (अच्छी आदतों का),वैराग्य (बुरी आदतों से विरक्ति),संयम के द्वारा,सूझबूझ के द्वारा युवावस्था को परिपक्व,उन्नत किया जा सकता है,साधा जा सकता है,तपपूर्ण जीवन व्यतीत किया जा सकता है।
- छात्र-जीवन हमारे लिए अनमोल समय है,इसमें मन को नियंत्रित करने की सर्वोच्च अवस्था है,जहां पर चिंतन और विचार को परिष्कृत करके शिखर पर पहुंचाया जा सकता है।यही छात्र जीवन का सार है।आइए इसे सँवारें।इस अवस्था में दुखी ना हों,कुढ़े नहीं,ईर्ष्या न करें,द्वेष न करें,बल्कि इसके एक-एक क्षण का उपयोग करके छात्र-जीवन के साथ-साथ पूरे जीवन को आनंदमय बनाने का भरसक प्रयास करें।
- उपर्युक्त आर्टिकल में छात्र जीवन आनंदमय कैसे हो? (How to Make Student Life Happy?),छात्र जीवन का आनन्द (Joy of Student Life) के बारे में बताया गया है।
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6.होमवर्क करने की जरूरत नहीं पड़ी (हास्य-व्यंग्य) (There Was No Need to Do Homework) (Humour-Satire):
- ठस बुद्धि व कमजोर छात्र की मौत पर एक मेधावी छात्र को फूट-फूटकर रोते देखा तो शिक्षक ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा-सचमुच,तुम बड़े रहमदिल हो।
- यह बात नहीं है सर,मेधावी छात्र रोते-रोते बोला:यह मेरी खूब मदद करता था।इसके जीवित रहते मुझे कभी भी होमवर्क करने की जरूरत नहीं पड़ी।
7.छात्र जीवन आनंदमय कैसे हो? (Frequently Asked Questions Related to How to Make Student Life Happy?),छात्र जीवन का आनन्द (Joy of Student Life) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.आनंद से जीवन कैसा हो जाता है? (What does joy make of life?):
उत्तर:दीपक जैसे घर को जगमगा देता है,आनंद उसी तरह जीवन को उज्ज्वलता से भर देता है।आनंद की अनुभूति जीवन की समस्त जड़ता मिटा देती है।आनंद हमारे लिए पारस है जिसके छूने से जीवन की प्रत्येक वस्तु सोना बन जाती है।
प्रश्न:2.कौनसी वस्तु सबसे अधिक आनंद देने वाली है? (What is the most enjoyable?):
उत्तर:एंथोनी ने प्रेम में,ब्रूटस ने कीर्ति में और सीजर ने साम्राज्य-शासन के विस्तार में आनंद ढूंढा।प्रथम को अपमान,द्वितीय को घृणा और तृतीय को कृतघ्नता मिली एवं प्रत्येक नष्ट हो गया।संसार की सभी वस्तुएं जब अनुभव के तराजू पर तोली गयी तो सब निकम्मी निकली अर्थात् सबके सब निस्सार प्रतीत हुए।केवल आत्मज्ञान ही हृदय को आनंद देने वाला निकला।
प्रश्न:3.मनुष्य आनंद कहाँ ढूंढता है? (Where does man find joy?):
उत्तर:आनन्द तो मनुष्य का अपना स्वरूप है।आनन्द तो उसके अंदर ही है।फिर भी आनंद को मनुष्य अपने बाहर खोजता है।मनुष्य नारी देह,धन-संपत्ति आदि में आनंद खोजता है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा छात्र जीवन आनंदमय कैसे हो? (How to Make Student Life Happy?),छात्र जीवन का आनन्द (Joy of Student Life) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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