How Can India Prosper in 21st Century?
1.21वीं सदी में भारत खुशहाल कैसे हो? (How Can India Prosper in 21st Century?),21वीं सदी में खुशहाल भारत के होने में क्या रुकावटें हैं? (What Are Obstacles to Prosperous India in 21st Century?):
- 21वीं सदी में भारत खुशहाल कैसे हो? (How Can India Prosper in 21st Century?) अर्थात् भारत के सामने ऐसी कौनसी आर्थिक चुनौतियां हैं जिनको हल किए बिना भारत खुशहाल,आर्थिक रूप से सुदृढ़ नहीं हो सकता।
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2.भारत खुशहाल कैसे हो! (How can India be prosperous!):
- 20वीं सदी के महानतम् व्यक्ति की यह आकांक्षा थी कि प्रत्येक निर्धन व्यक्ति की आँखों से आंसू पोंछे जाएं।जब भारत आजाद हुआ तो उसे इस इच्छा रूपी ‘आर्थिक स्वराज’ की प्राप्ति हेतु कठोर परिश्रम करना था।लेकिन विडम्बना यह है कि गणतंत्रात्मक शासन के 50 वर्ष पूरे होने के बावजूद इस लक्ष्य को हासिल करना ही भारत के लिए सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती है।यह अलग बात है कि महात्मा गांधी के सपने को साकार करने के अलावा कई अन्य चुनौतियाँ भी भारतीय अर्थव्यवस्था को ललकार रही हैं।
- यह सच है कि ‘आंकड़ों के जादू’ की बदौलत शेयर-सूचकांक रिकॉर्ड तोड़ ऊंचाई पर जा पहुंचा है और मुद्रास्फीति की दर भी सर्वकालिक न्यूनतम स्तर पर है,लेकिन यह भूलना भी उचित नहीं होगा कि भारत की एक-तिहाई से ज्यादा जनसंख्या ऐसी है जिसे अभी दो जून का भरपेट खाना नसीब नहीं होता।ऐसे गरीब लोग जो इधर-उधर भटक रहे हैं,भूख से मर रहे हैं और निरंतर कचोटने वाली निर्धनता के शिकार हैं,उनके लिए ‘उदारीकरण-निजीकरण’ और अमर्त्य सेन को मिले अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार का कोई महत्त्व नहीं है।उन्हें उन लंबी-चौड़ी विकास परियोजनाओं से भी कुछ लेना-देना नहीं है,जिनके लिए आवंटित करोड़ों-अरबों रुपए का अधिकांश हिस्सा ‘लोक-प्रतिनिधियों’ एवं ‘लोक-सेवकों’ की जेब में चला जाता है।हालात इस कदर बदतर है कि एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री को मजबूर होकर कहना पड़ा की ₹1 विकास के नाम पर खर्च किया जाता है,उसमें से मात्र 15 पैसा ही सामान्य जनता तक पहुंच पाता है।वास्तव में,अर्थव्यवस्था के इस ‘रहस्यवाद’ से मुक्ति पाना नई सदी में भारत के सम्मुख एक बड़ी समस्या है।
- इस समस्या के निदान हेतु सबसे पहला कदम किसानों की भलाई हेतु उठाना होगा,क्योंकि भारत की कुल राष्ट्रीय आय का सर्वाधिक हिस्सा अभी भी कृषि क्षेत्र से ही प्राप्त होता है।भारत ने ‘भूमि सुधार’ को अपनी नवीं अनुसूची में जगह तो दे दी है,लेकिन व्यवहार रूप में काफी कुछ करना अभी शेष है।खासकर ‘पिछड़े’ राज्यों अर्थात् बिहार,मध्य प्रदेश,राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति काफी दयनीय है।’भू-स्वामित्व’ के अभाव में अधिकतर किसान ‘भाड़े के मजदूर’ बनकर रह गए हैं।फलस्वरूप,भारत अब भी अपनी पर्याप्त क्षमता के अनुसार कृषि उत्पादन नहीं कर पा रहा है।दूसरी ओर नई-नई कृषि तकनीकों का विस्तार भी पंजाब,हरियाणा आदि राज्यों में ही ज्यादा हुआ है,जहां के अधिकतर किसान संपन्न वर्ग के हैं।अतएव,21वीं सदी में ‘पूंजीवादी खेती’ की बढ़ रही परंपरा को रोककर आय के वितरण को न्यायोचित बनाना भारत के लिए नितांत आवश्यक है।
3.स्टार्टअप व छोटे उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए (Startups and small industries should be promoted):
- लेकिन मरणासन्न कुटीर उद्योग में प्राण फूँके बिना ‘आर्थिक न्याय’ उपलब्ध कराना संभव नहीं है।स्वतंत्रता के पश्चात भारत ने ‘औद्योगीकरण’ के सिद्धांत को अपनाया,जो तात्कालिक सामरिक-आर्थिक मांग के अनुसार उचित भी था।लेकिन अब जबकि सभी वृहत उद्योगों में आधारभूत ढांचे का पर्याप्त विकास हो चुका है,तब लघु एवं कुटीर उद्योगों पर एकाग्रचित-नीति की आवश्यकता है।चूँकि बड़े-बड़े कारखानों की स्थापना के बावजूद बेरोजगारी समस्या घटने के बजाय बढ़ी है,अतः इसका भी इलाज छोटे उद्योगों के प्रोत्साहन में ही नजर आता है।इससे बेरोजगारों की बाढ़ भी थमेगी और प्राचीन हस्तशिल्पियों का संरक्षण भी संभव होगा।
- दरअसल भारत एक साथ कई शताब्दियों में जीने वाला देश है,इसलिए उचित यह होगा कि इसकी मूल प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न की जाए।तात्पर्य यह है कि यहां ‘हथकरघे’ और ‘कुम्हार के चाक’ के संरक्षण की भी उतनी ही अहमियत है जितनी ‘सुपर कंप्यूटर’ के विकास की।नई सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था को इस ‘संतुलन’ की अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा।
- हालाँकि संतुलन की उपर्युक्त अवधारणा को बाजारीय क्षेत्र में भी लागू करने की जरूरत होगी।आजकल बाजार में प्रायः सभी उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति मध्यम वर्ग अथवा उच्च वर्ग को ध्यान में रखकर की जाती है।यहां तक की खुदरा वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण भी इन्हीं वर्गों को तुष्ट करता प्रतीत होता है।इससे निर्धन-वर्ग का जीवन अपेक्षाकृत अधिक कष्टप्रद हुआ है।और तो और,सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार और व्यापक पैमाने पर की जाने वाली कालाबाजारी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है।
- परिणामस्वरूप,एक तिहाई भारतीय जनसंख्या का पेट भरे जा सकने योग्य अनाज प्रतिवर्ष व्यर्थ ही सड़-गल जाता है।गौरतलब है कि लूट-खसोट की इस अफरा-तफरी में गरीब लोग और गरीब,जबकि अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं।आर्थिक असमानता की इस प्रवृत्ति को रोके बिना,’21वीं सदी में खुशहाल’ भारत के निर्माण की कल्पना सार्थक होती नहीं दिखती।
यद्यपि 20वीं सदी के अन्त में जिस ‘यथार्थ’ ने भारत को सर्वाधिक सशंकित किया है,वह है:’नव-उपनिवेशवाद का खतरा’।कहना न होगा कि ‘राजनीतिक साम्राज्यवाद’ का बीजारोपण हो चुका है और अब कई विकसित देश भारतीय बाजार को ललचाई नजरों से देख रहे हैं।
- यह कोई छुपा तथ्य नहीं है कि विश्व आर्थिक मंच के खलनायकों ने अपनी काली करतूतों से मेक्सिको,थाईलैंड,मलेशिया आदि देशों को मूलतः कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था को झकझोरकर रख दिया था।अतः ‘आर्थिक खलीफा’ अमेरिका के परोक्ष निर्देशन में काम कर रही अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थाओं की कुटिल चालों से निबटने हेतु भारत को व्यापक और दूरदर्शी नीति बनानी होगी।इसके अंतर्गत आधारिक संरचना को मजबूती देने के साथ-साथ घरेलू उद्योगों को भी अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा हेतु तैयार करना होगा।दूसरी और,टुच्चे राजनीतिक समर्थनों की कीमत पर होने वाली ‘आर्थिक घुसपैठ’ और देश की पारंपरिक धरोहरों को पेटेंट की आड़ में जबरन हथियाने की साजिशों के प्रति भी कड़े रवैये की जरूरत होगी।कहने का अभिप्राय यह है कि नई सदी में भारत विकासशील और दृढ़ इच्छाशक्ति वाली नीतियों के सहारे ही ‘वैश्वीकरण’ के कुपरिणामों से संघर्ष कर सकेगा।
- अंततः आगामी वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था को उसी ‘मध्यम-मार्ग’ पर चलने की आवश्यकता है,जिसे ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ के रूप में अपनाया गया है।साथ ही,कुछ देशों की आर्थिक दादागिरी का मुंहतोड़ जवाब देने की क्षमता भी विकसित करनी होगी।किंतु सर्वप्रथम भारत को अपने करोड़ों लोगों को ‘आर्थिक स्वतंत्रता’ दिलाने का प्रयास करना होगा,जिसके बगैर अन्य स्वतंत्रताएं बेईमानी हैं।वस्तुत 21वीं शताब्दी में इस वादे के साथ वफा करना ही भारत के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आर्थिक चुनौती है।
4.आर्थिक क्षेत्र में भारत की वस्तुस्थिति (India’s Status in the Economic Sector):
- यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः सुश्रुतवान गुणज्ञ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणा काञ्चनमाश्रयते।। -भर्तृहरि)
अर्थात् जिसके पास धन है वही कुलीन है,वही पंडित,बहुश्रुत,गुणज्ञ,सुवक्ता और दर्शनीय। - प्राचीन भारतीय आर्थिक दर्शन का यह ‘पक्ष’ वर्तमान विश्व और समाज का दर्शन है।इस कथन की सार्थकता उस समय और स्पष्ट हो जाती है,जब संपूर्ण विश्व में पूंजीवाद और उससे जुड़े आर्थिक उदारवाद की एक होड़ सी दिखाई पड़ती है।प्रत्येक राष्ट्र अपने व्यापारिक हितों की खातिर कभी मूल्यों-मान्यताओं की दुहाई देता है,तो कभी व्यापारिक आतंकवाद का सहारा लेता है।इसका एकमात्र उद्देश्य शेष विश्व के ऊपर अपने महत्त्व को बनाए रखना है और तथाकथित भूमंडलीकरण के दौर में अधिकाधिक शक्ति का केंद्रीकरण करना है।ऐसी स्थिति में 21वीं शताब्दी में भारत की आर्थिक चुनौतियाँ और अधिक हो जाती हैं,जबकि उसके साथ विकासशील देश की उपमा भी लगी हुई है।
- भारत 20वीं शताब्दी के मध्य में ही स्वतंत्र हुआ है।इस स्वतंत्रता के साथ भारत ने वर्षों से दबी-कुचली अर्थव्यवस्था,अशिक्षित और अकुशल जनता और न जाने कितनी समस्याएं पायीं।परंतु देश की वर्तमान अर्थव्यवस्था को देखते हुए इसके नीति निर्माताओं की प्रशंसा करनी होगी कि एक निश्चित समय में ही देश को नई और गतिशील नीति प्रदान की गई।इसी कड़ी में 90 के दशक की ‘उदारवादी नीति’ को रखा जा सकता है।यह इसी नीति का परिणाम है कि लगभग 6% औसत वृद्धि दर,विदेशी मुद्रा के अरबों डॉलर के भंडार और लगभग 80% साक्षरता के साथ 21वीं शताब्दी में प्रविष्ट हुए।21वीं सदी ‘आर्थिक शक्ति’ और ‘प्रबल सूचना तंत्र’ की शताब्दी है।आर्थिक शक्ति बनने के लिए भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।उदारवादी नीति के फलस्वरूप भारत का बाजार शेष विश्व के लिए खुला हुआ है।वर्तमान में भारतीय नीति विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ावा देने वाली रही है।इन दोनों कारणों से देश में उत्पाद बेचने की प्रबल प्रतियोगिता का दौर चल रहा है।निश्चित रूप से इस प्रतियोगिता से देश की जनता को अच्छा उत्पाद प्राप्त होगा।परंतु हम यहां अपने उद्योगों,खासकर लघु उद्योगों को खुली प्रतियोगिता में भेजने की स्थिति में नहीं हैं।
- कारण वर्तमान में देश की जनसंख्या 140 करोड़ के आसपास है और इन लघु उद्योगों में देश की जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा लगा हुआ है।ऐसे में एक गलत नीति देश में बेरोजगारों की संख्या बढ़ायेगी।यह स्थिति भारत जैसे देश के लिए सुविधाजनक नहीं है।यहाँ पहले से ही पर्याप्त बेरोजगारी है।इस बेरोजगारी के कारण देश में आतंकवाद बढ़ा है।
- अगर हमारे प्रतियोगी उन्नत तकनीक से बड़े पैमाने पर उत्पादन कर रहे हैं और छोटे उत्पादकों को छोटे पैमाने पर उत्पादन के लिए बाध्य करते हैं,तो भारतीय कंपनियां स्वतः प्रतियोगिता से बाहर हो जाएगी।अतः सही नीति यह होगी कि लघु उद्योगों को सीमित सब्सिडी उपलब्ध कराई जाए और बड़े उत्पादकों को कुछ खाद्य वस्तुओं के ही उत्पादन की अनुमति दी जाए।लघु उद्योगों को उत्पादित वस्तुओं के विक्रय की सुविधा भी उपलब्ध कराई जा सकती है।हमारे देश में वर्तमान में विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार है।हमें इसी स्थिति का अधिकाधिक लाभ लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।हम अपने उपभोक्ता वस्तुओं में पर्याप्त आयात शुल्क (प्रारंभ में 50% तक) लगा सकते हैं।इससे घरेलू प्रतियोगिता में वृद्धि होगी,उपभोक्ताओं को फायदा होगा और निर्यात को प्रोत्साहन मिलेगा।
5.भारत की आर्थिक स्थिति का निष्कर्ष (Conclusion to India’s Economic Situation):
- देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए हमें 21वीं शताब्दी में 8% वृद्धि दर हासिल करना और इसे बनाए रखना भी होगा।वर्तमान में हमारी बचत दर 26% वार्षिक है जो थोड़े प्रयासों से 35% से ऊपर चली जाएगी और तब 8% की वृद्धि दर आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
- आने वाले समय में भारत को जिस क्षेत्र में सर्वाधिक चुनौती मिलेगी,वह कृषि क्षेत्र होगा।भारत में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है और उपेक्षा एवं शोषण की बात की जाए तो यह क्षेत्र प्रथम स्थान पर है।वर्तमान में कृषि क्षेत्र से अधिकाधिक उपज प्राप्त करने के लिए ‘उर्वरक प्रयोग’ को प्रोत्साहित किया जा रहा है।परंतु यहां पर दो कमियां हैं:(1.)जनता की अशिक्षा के कारण उचित उर्वरक प्रयोग में अनियमितता एवं सस्ती होने के कारण विशेष उर्वरक (यूरिया आदि) का अधिक प्रयोग,(2.)बाजार में नकली उर्वरकों का मिलना।
- इसके उत्पन्न अनाज के असुरक्षित भंडारण और परिवहन कारणों के अभाव के चलते अनाज की काफी क्षति होती है।वर्तमान भारतीय आर्थिक नीति,जिसमें मुख्यतः व्यक्तिपरक सोच अपनाई गयी है,वह कृषि की मूल अवधारणा को ही नकारती है।इसके अलावा अशिक्षा,गरीबी,परंपरागत खेती,बहुसंख्या आदि अनेक कारणों से कृषि क्षेत्र पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है,जो किसी भी रूप में भारत जैसे देश के लिए उचित नहीं है।कृषि की किसी भी गलत नीति के कारण जनसंख्या का शहरों की ओर पलायन होगा,जो निश्चित रूप से देश की आर्थिक प्रगति में बाधक होगा।इस दशा से बचने के लिए गांव में रह रहे नागरिकों को रोजगारपरक शिक्षा,वैज्ञानिक और व्यावसायिक कृषि और आसपास के उपलब्ध संसाधनों के उचित दोहन के बारे में जानकारी देनी होगी।वास्तव में हमारे देश के सभी संसाधनों (मानव संसाधन सहित) का उचित प्रयोग न होना भी 21वीं शताब्दी में एक बड़ी आर्थिक चुनौती है।इसी के साथ श्रम एवं पर्यावरण से संबंधित मुद्दे भी आर्थिक क्षेत्र को दूर तक प्रभावित करते नजर आते हैं।
- उपर्युक्त सभी आर्थिक चुनौतियाँ और समस्याएं भारतीय परिस्थितियों में उत्पन्न हुई हैं और एक स्पष्ट एवं पुष्ट नीति एवं उसके क्रियान्वयन द्वारा इनको बहुत हद तक दूर किया जा सकता है।किंतु जब भारत और शेष विश्व की बात की जाती है तो विकासशील भारत पर विकसित देशों का पर्याप्त और स्पष्ट प्रभाव नजर आता है।आज विश्व के 70% व्यापार पर विश्व के कुछ विकसित देशों का कब्जा है।ऐसे में विश्व पूंजीवाद और विश्व आर्थिक मंच के अनेक समीकरण बन रहे हैं,जो किसी न किसी तरह अपने आर्थिक हितों के लिए विकासशील देशों पर दबाव डालते रहते हैं।भारत भी इस प्रभाव से अछूता नहीं है,बल्कि भारत पर दो तरह के दबाव उभरकर सामने आए हैं,पहला भारत की जनसंख्या (जो अब 140 करोड़ है) को रोटी,कपड़ा और मकान की मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराने का और दूसरा विकसित देशों का अपने व्यापारिक हितों की खातिर भारत पर डाला जा रहा आर्थिक दबाव।वर्तमान में अपने देशवासियों को मूलभूत संसाधन जुटाने के चक्कर में ही समय और शक्ति दोनों का अपव्यय हो रहा है।राज्य सरकारों के पास आर्थिक तंगी है।केंद्र सरकार का खजाना भी भरा नहीं है।ऐसे में नई योजनाओं के निर्माण और पुरानी योजनाओं को चलाने के लिए सरकार कर्ज पर निर्भर होती है।यह निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
- वास्तव में भारत में आर्थिक रूप से पर्याप्त विविधता है।ऐसे देश के आर्थिक विकास के लिए एक ऐसी राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है जो क्षेत्र विशेष के आधार पर बांटी गई हो।इस नीति के क्रियान्वयन के लिए इस प्रकार की व्यूह रचना की गई हो कि एक आम भारतीय नागरिक के साथ-साथ ग्राम पंचायत,जिला,राज्य तथा देश सभी का विकास हो।सभी का जीवन स्तर ऊँचा हो।ऐसी किसी भी नीति के लिए उद्भट कल्पना शक्ति के साथ देश प्रेम और भविष्य के प्रति दायित्व बोध आवश्यक है।
उपर्युक्त आर्टिकल में 21वीं सदी में भारत खुशहाल कैसे हो? (How Can India Prosper in 21st Century?),21वीं सदी में खुशहाल भारत के होने में क्या रुकावटें हैं? (What Are Obstacles to Prosperous India in 21st Century?) के बारे में बताया गया है।
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6.छात्राओं से मिलने का समय (हास्य-व्यंग्य) (Time to Meet Girl Students) (Humour-Satire):
- छात्राओं की कॉलेज के बाहर एक छात्र आने जाने वाली छात्राओं को घूमता रहता था।तीन-चार दिन तक तो छात्राओं ने कुछ नहीं कहा,चौथे दिन एक छात्रा ने प्राचार्य से शिकायत कर दी।
- प्राचार्य ने उस छात्र को बुलाकर पूछा:तुम मेरे कॉलेज में आने वाली छात्राओं को घूरते (देखते) रहते हो?
- छात्र बोला:इसमें मेरा क्या कसूर है? आपने खुद ही सूचना पट्ट पर लिखवाया हुआ है।छात्राओं से मिलने का समय एक से तीन बजे तक।
7.21वीं सदी में भारत खुशहाल कैसे हो? (Frequently Asked Questions Related to How Can India Prosper in 21st Century?),21वीं सदी में खुशहाल भारत के होने में क्या रुकावटें हैं? (What Are Obstacles to Prosperous India in 21st Century?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.बेरोजगारी का क्या अर्थ है? (What does unemployment mean?):
उत्तर:सामान्य बोलचाल में सभी व्यक्ति जो किसी उत्पादक कार्य में लगे हुए नहीं होते उन्हें बेरोजगार कहा जाता है।बेरोजगारी की अवधारणा को केवल कार्यकारी जनसंख्या तक ही सीमित रखना चाहिए।
प्रश्न:2.गरीबी से क्या आशय है? (What do you mean by poverty?):
उत्तर:अक्सर यह कहा जाता है कि वे लोग गरीब हैं जो एक निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते हैं।एक अन्य परिभाषा के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में एक व्यक्ति के भोजन में 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी होनी चाहिए।
प्रश्न:3.कुटीर और लघु उद्योग में क्या अंतर है? (What is the difference between cottage and small scale industry?):
उत्तर:जब किसी औद्योगिक इकाई में परिवार के सदस्य ही कार्य करते हैं तो वह कुटीर उद्योग होता है और इसके विपरीत जब 10 से 50 तक मजदूरी के बदले में काम करने वाले श्रमिकों की सेवाएं प्राप्त की जाती है तो वह लघु उद्योग होता है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा 21वीं सदी में भारत खुशहाल कैसे हो? (How Can India Prosper in 21st Century?),21वीं सदी में खुशहाल भारत के होने में क्या रुकावटें हैं? (What Are Obstacles to Prosperous India in 21st Century?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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