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What is Importance of Duty in Life?

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1.जीवन में कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है? (What is Importance of Duty in Life?),जीवन में कर्त्तव्य का महत्त्व है? (Importance of Duty in Life):

  • जीवन में कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है? (What is Importance of Duty in Life?) हम अक्सर अपने अधिकारों के बारे में तो बात करते हैं परंतु कर्त्तव्यों की अनदेखी करते हैं।करने योग्य हितकारी और आवश्यक कर्मों को कर्त्तव्य कहते हैं।आईए जानते हैं कि स्वाभाविक व कर्त्तव्य कर्मों में क्या फर्क है और उनकी महत्ता क्या है?
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2.कर्त्तव्यों का संबंध किन कर्मों से है? (What actions are related to duties?):

  • मूल प्रश्न तो यही है कि कर्त्तव्य क्या है? इस प्रश्न का सीधा-सा उत्तर यह है कि जिस कर्म को संपादित करना मनुष्य के लिए किसी न किसी वजह से जरूरी है,वह कर्त्तव्य है।मानव सभ्यता की उत्पत्ति के साथ ही यह आभास हो गया था कि यदि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को बनाए रखना जरूरी है,यदि व्यक्ति और समाज को विकास-मार्ग पर आगे बढ़ाते रहना है तो एतदर्थ कुछ कार्यों का किया जाना सुनिश्चित करना होगा।इस तरह के सुनिश्चित कर्मों को ही कर्त्तव्य की संज्ञा दी जाती है।
  • विश्व का प्रत्येक समाज,प्रत्येक राष्ट्र,प्रत्येक परिवार और यहां तक की प्रत्येक व्यक्ति विकास की अपनी अवधारणा के अनुसार कुछ कर्मों का संपादन आवश्यक मानता है और अपने जीवन में इसके अनुपालन का भरसक प्रयत्न करता है।संदर्भ और दृष्टिकोण के भेद से कर्त्तव्यों में भेद-मतभेद भी हो सकते हैं,लेकिन कभी भी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती जब मनुष्य और उसकी संस्थाएं अपने आप को कर्त्तव्यमुक्त समझ सकें।
  • इस प्रसंग में यह बात ज्ञातव्य है कि कर्त्तव्यों का संबंध हमारे केवल उन्हीं कर्मों से है जो ऐच्छिक होते हैं,जिन्हें करने या न करने पर हमारा थोड़ा या ज्यादा अधिकार होता है।हो सकता है कि हमारा कोई कर्त्तव्य ऐसा हो जिसे करने की बाध्यता हम अधिक महसूस करते हों,जबकि किसी दूसरे कर्त्तव्य के लिए बाध्यता का बोध हमें कुछ कम होता हो।लेकिन ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता,जब हम अपेक्षित कर्त्तव्य को करने से पूरी तरह इन्कार भी कर सकते हैं।यानी कर्त्तव्यों के साथ एक आंतरिक अथवा बाह्य बाध्यता के साथ-साथ एक अंतर्भूत स्वतंत्रता भी अवश्य होती है,जिनके करने,न करने पर हमारा वश होता है।सिर्फ ऐसे जरूरी कर्मों को ही कर्त्तव्य कहा जाएगा।
  • सभी जरूरी कर्म कर्त्तव्य की परिधि में नहीं आते।उदाहरण के लिए,अन्न,जल,वायु आदि का सेवन हमारे जीवित रहने के लिए जरूरी है।परंतु,इनका सेवन हमारा कर्त्तव्य नहीं है।कारण यह कि हम इन्हें ग्रहण करने या ना करने के लिए स्वतंत्र नहीं है।इनका सेवन करना हमारा स्वभाव है,ऐसा स्वभाव जिस पर हमारा कोई वश नहीं।शरीर में रक्त संचार ना हो तो जीवन चक्र थम जाएगा।यह कार्य जारी रखना हमारे शरीर का अनिवार्य कर्म है।पर यह हमारा कर्त्तव्य नहीं है।क्यों? क्योंकि हमारे पास इसका कोई विकल्प नहीं है।
  • हम इसे जारी रखने,न रखने के लिए स्वतंत्र नहीं है।हमारी चेतना का इसके ऊपर कोई नियंत्रण नहीं हैं।अतः यह हमारा कर्त्तव्य नहीं।ऐसे सारे कर्मों को अनैच्छिक अथवा स्वाभाविक कर्म कहा जा सकता है जो जरूरी होने के बावजूद कर्त्तव्य का दर्जा नहीं पा सकते।
  • कर्त्तव्य कर्मों की यह विशेषता है कि वे मूलतः चेतना के विषय होते हैं।उनके संपादन में चेतना पूर्व शर्त की भूमिका निभाती है।कर्त्तव्यों के पीछे चेतना की चिंतन प्रक्रिया की पूरी भूमिका होती है,तभी वे अस्तित्व में आते हैं।जबकि जरूरी लेकिन कर्त्तव्य की परिधि में न आने वाले कर्म ‘आम तौर’ पर सिर्फ शारीरिक होते हैं,उनके पीछे चिंतन प्रक्रिया की कोई भूमिका नहीं होती है।यहां ‘आमतौर’ का तात्पर्य है कि ऐसा एक कर्म चेतना के साथ भी जुड़ा होता है।
  • चिंतन करना चेतना का स्वभाव है अतः इसे भी कर्त्तव्य कर्मों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।चिंतन करने की स्वाभाविक प्रक्रिया पर चैतन्य का कोई नियंत्रण नहीं होता।ऐसा नहीं हो सकता की चेतना अस्तित्ववान हो और चिंतन न करे।चिंतन-विषय का विकल्प तो चेतना के पास हो सकता है,होता भी है,लेकिन चिंतन प्रक्रिया का कोई विकल्प अचिंत्य है।इस प्रकार,समस्त कथनोपकथन का सारांश यह है कि जिस कर्म के ऊपर सोच-विचार और करने,न करने की गुंजाइश हो,वही कर्म वास्तव में ऐच्छिक और कर्त्तव्य कहा जा सकता है।

3.कर्त्तव्यों का पालन करना जरूरी क्यों है? (Why is it important to perform duties?):

  • अब प्रश्न यह उठता है कि कर्त्तव्य होते कितने प्रकार के हैं? व्यष्टि से लेकर समष्टि तक जितनी भी मानवीय संस्थाएं हो सकती हैं,उन सभी के मुताबिक कर्त्तव्यों को वर्गीकृत किया जा सकता है।कुछ कर्म मनुष्य को इसलिए करना चाहिए कि वह एक प्राणी है,कुछ इसलिए कि वह एक मनुष्य है,कुछ इसलिए कि वह एक परिवार का सदस्य है और इसी तरह यह श्रृंखला आगे बढ़ती हुई कुछ कर्त्तव्यों को इसलिए विहित करती है कि व्यक्ति एक समाज,समुदाय,राज्य,पृथ्वी या विश्व का एक सदस्य है।इन सभी संदर्भों के अनुसार व्यक्ति के कर्त्तव्य निश्चित होते हैं।इस वर्गीकरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से कुछ कर्त्तव्य तो संदर्भों की सभ्यता के अनुसार समान हो सकते हैं,जबकि कुछेक संदर्भगत वैभिन्य के कारण असमान भी हो सकते हैं।जैसे:मनुष्य होने के नाते जिन कर्त्तव्यों को किया जाना चाहिए,वे विश्व के सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से करने योग्य हैं।जबकि राज्य,समाज,समुदाय अथवा पारिवारिक वातावरण के संदर्भ में व्यक्तियों के कर्त्तव्य भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
  • अब सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कर्त्तव्यों का किया जाना क्यों आवश्यक है? अनेक अवसरों पर देखा जाता है कि कर्त्तव्यों का निष्पादन कर्त्ता या उससे जुड़े कुछ खास व्यक्तियों को नितांत अप्रिय प्रतीत होता है।क्या ऐसी स्थितियों में भी कर्त्तव्य किए जाने चाहिए? यदि हां,तो क्यों? उत्तर के अंतिम छोर तक पहुंचने के लिए हम मानव जीवन के एक खास विश्लेषण से शुरुआत करें।मानव जीवन के दो पक्ष हैं।एक तो स्वयं जीवन यानी मनुष्य की सत्ता और दूसरा इस सत्ता की सार्थकता।
  • मनुष्य को इन दोनों मोर्चों को संभालना पड़ता है और बुद्धि संपन्न होने के नाते अन्य सभी चीजों के मुकाबले उसे ज्यादा परिश्रम भी करना पड़ता है।हम सत्तामात्र की बात करें।यह सिर्फ उसी सूरत में बनी रह सकती है,जब जीवन की सुरक्षा की जाए।मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है,जो इसके लिए चिंतित रह सकता है और रहता भी है।अन्य जीव में चिंतित रहने की न तो सामर्थ्य रहती है और ना वे चिंतित रहते हैं।
  • अन्य जीव सिर्फ जी लेते हैं और इस क्रम में उनका केवल एक ही सहारा होता है:प्राकृतिक,अनैच्छिक और स्वाभाविक क्रियाएं,जो स्वतः संपन्न होती रहती हैं।बेशक ये सभी क्रियाएं मनुष्यों के संदर्भ में भी संपन्न होती रहती हैं लेकिन मनुष्य अपने जीवन को बनाए रखने के लिए सिर्फ इन्हीं के भरोसे नहीं रहता।वह कुछ और भी करना जरूरी समझता है और उसे करता भी है।ये अतिरिक्त जरूरी क्रियाएं भी मानवीय कर्त्तव्यों की परिधि में आ जाती हैं।मनुष्य को इन जरूरी कर्त्तव्यों का लाभ भी मिला है।जीवन-जगत का इतिहास साक्षी है कि अन्य समस्त जीव योनियों के मुकाबले मनुष्य योनि सर्वाधिक दीर्घजीवी रही है।इसकी सिर्फ यही वजह है।अन्य जीव समय के मद्देनजर उन कर्मों को करने में असमर्थ रहते हैं जो उनकी जैविक परंपरा को बनाए रखने के लिए जरूरी होते हैं,जबकि मनुष्य समय और कालचक्र की धार को पहचान कर ऐसे जरूरी कर्मों की पहचान कर लेता है।इसलिए दीर्घजीवी जीवन की चाह ऐसे कर्मों को पूर्व शर्त के रूप में स्वीकार करती है और उन्हें मानवीय कर्त्तव्य घोषित करती है।

4.सत्ता की सार्थकता (The Significance of Power):

  • अब सार्थकता की बात करें।यह कहना तो हिमाकत होगी कि सार्थकता सिर्फ मानवीय सत्ता के साथ ही जुड़ी हुई है,लेकिन यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि अन्य प्राणियों की सार्थकता जहाँ केवल प्रकृति प्रदत्त है वहीं दूसरी ओर मनुष्य अपनी सार्थकता के निर्माण में भागीदार भी होता है।यदि मानवीय अस्तित्व की सार्थकता का एक हिस्सा प्रकृति का उसे दिया हुआ उपहार है तो बाकी दूसरा हिस्सा स्वयं मानवीय प्रयासों का फल।यही तो फर्क है मानवीय एवं मानवेतर सत्ताओं की सार्थकता के बीच।इसी फर्क के चलते यहां जहां मानवेतर सत्ताओं की सार्थकता प्रकृति प्रदत्त उपहार बन कर रह जाती है,वहीं मानवीय सत्ता की सार्थकता उसका अर्जित अधिकार बन जाती है।मानवेतर सत्ताएं सार्थक हैं,क्योंकि प्रकृति ने दया अथवा प्रेमवश उसे सार्थक बनाया है;मनुष्य सार्थक है क्योंकि उसने स्वयं भी अपने आप को सार्थक बनाया है।
  • मनुष्य की सार्थकता उसकी उन कोशिशों का परिणाम होती है,जो वह अपनी सत्ता के संदर्भ में ‘क्यों?’ का प्रश्न उठाकर करता है।यह उसका स्वाभाविक प्रश्न होता है कि वह आखिर है क्यों  उसके होने ना होने का अर्थ और असर क्या हो सकता है? इन प्रश्नों के आलोक में वह अपने लिए कुछ नितांत आवश्यक कर्मों की श्रृंखला का सृजन करता है।यही मानवीय कर्त्तव्य है।यह कार्य मानवेत्तर सत्ताएं नहीं कर सकती,क्योंकि उनके भीतर यह सामर्थ्य ही नहीं है।वे इस लायक ही नहीं कि अपने होने-न-होने के अर्थ का विश्लेषण कर सकें और उसके संदर्भ में अपने कर्त्तव्य पथ का निर्माण कर सकें।यह महान कार्य सिर्फ मनुष्य कर सकता है,बल्कि यूं कहें कि सिर्फ मनुष्य को ही प्रकृति ने इस कार्य के योग्य समझा है और उसे यह जिम्मेदारी सौंपी है।मनुष्य विभिन्न संदर्भों में विहित कर्त्तव्यों का निष्पादन कर अपनी सत्ता को सार्थक बनाता है और जो व्यक्ति इस दायित्व से पीछे रहता है उसे नर पशु की संज्ञा दी जाती है।”वह नर नहीं,नर पशु निरा है,और मृतक सम्मान है।”

5.राज्य मानव जीवन का सर्वोच्च नियामक (The state is the supreme regulator of human life):

  • जैसा कि पूर्व पंक्तियों में संकेत किया जा चुका है,मनुष्य के कुछ कर्त्तव्य ऐसे होते हैं जिन्हें उसे मनुष्य होने के नाते सम्पन्न करना चाहिए।इस संदर्भ में मानव मात्र के कर्त्तव्य समान होते हैं।लेकिन अन्य सभी संदर्भों-परिवार,समाज,राष्ट्र और विश्व के संदर्भों में मानवीय कर्त्तव्यों में भिन्नता दिखाई दे सकती है और प्रायः दिखाई देती भी है।ये सभी संदर्भ मनुष्य के समक्ष एक चुनौतीपूर्ण वातावरण प्रस्तुत करते हैं।मानव मात्र को इन भिन्न रूपात्मक संदर्भों में किए जाने वाले विभिन्न कर्त्तव्यों के बीच समन्वय भी स्थापित करना पड़ता है,वरना मानव जाति परस्पर लड़कर मर-मिट जाएगी।इसकी सर्वाधिक स्पष्ट व्याख्या राज्य के लिए किया जाने वाले कर्त्तव्यों के संदर्भ में हो सकती है।
  • राज्य मानव जीवन का सर्वोच्च नियामक है।मनुष्य ने जितनी भी संस्थाओं की रचना की है,उनमें राज्य ही ऐसा है जो उसके सुख-दुःख,हानि-लाभ,पतन-विकास आदि से सबसे ज्यादा सरोकार रखता है।यही कारण है कि समस्त कर्त्तव्यों में राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का स्थान सबसे ऊंचा माना जाता है।यहां तक कि अन्य कर्त्तव्यों की कीमत पर भी यदि मनुष्य अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का संपादन कर लेता है तो उसके वजूद को सार्थक समझा जाता है।इतना ही नहीं,मनुष्य अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों के संपादन में अपने अन्य संदर्भगत कर्त्तव्यों की जितनी अवहेलना करता है,उसका सम्मान उतना ही अधिक किया जाता है।
  • राष्ट्रीय कर्त्तव्यों को दिया जाने वाला यह गौरव अकारण नहीं है।राष्ट्र वास्तव में इस योग्य होता भी है।यह व्यक्ति के विकास के लिए अधिकतम अवसर मुहैया कराने में समर्थ होता है और उसका परिवेश,कम से कम सैद्धांतिक स्तर पर,इतना विस्तृत होता है कि मनुष्य का वैयक्तिक पक्ष उसके भीतर अपने अधिकतम विस्तार का अवसर भी पा लेता है।राष्ट्रीय दृष्टिकोण सार्वभौम दृष्टिकोण के तुल्य होता है।जो व्यक्ति सही अर्थों में अपने वैयक्तिक दृष्टिकोण को राष्ट्रीयता की चेतना से एकाकार कर लेता है,उसके लिए ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना कोई कठिन साध्य लक्ष्य नहीं रह जाती।
  • लेकिन दुर्भाग्यवश कभी-कभी राष्ट्रीयता का विकृत अर्थ ग्रहण कर लेने के कारण एक ऐसे राष्ट्रवादी भाव का सृजन हो जाता है,जो विश्व के अन्य राष्ट्रों के साथ टकराव का मार्ग प्रशस्त कर देता है।यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि ऐसा ‘राष्ट्र’ शब्द की गलत अवधारणा के कारण होता है।राष्ट्र ऐसा कुछ भी नहीं सिखाता,जो मनुष्य के भीतर असहिष्णुता,भेद बुद्धि और टकराहट की भावना को बढ़ावा देने वाला हो।

6.भारतीय संविधान में वर्णित मूल कर्त्तव्य (Fundamental Duties mentioned in the Indian Constitution):

  • उदाहरण के तौर पर भारतीय संविधान में वर्णित उन कर्त्तव्यों का जायजा लिया जा सकता है,जिन्हें 42वें संविधान संशोधन संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में शामिल किया गया।संविधान के अनुच्छेद 51क (भाग 4 क) में 1976 में शामिल किए गए इन 10 मूल कर्त्तव्यों का रूप निम्नलिखित है:भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह:
  • (1.)संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों,संस्थाओं,राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे।
  • (2.)स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उसका पालन करे।
  • (3.)भारत की प्रभुता,एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे।
  • (4.)देश की रक्षा करे।
  • (5.)भारत के सभी लोगों में समरसता और भातृत्व की भावना का निर्माण करे।
  • (6.)हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझे और उसका परिरक्षण करे।
  • (7.)प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करे।
  • (8.)वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करे।
  • (9.)सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे,तथा
  • (10.)व्यक्तिगत व सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का प्रयास करे।
  • यदि हम उपर्युक्त कर्त्तव्यों का विश्लेषण करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है,जो भारतीयों को यह सिखाता हो कि अन्य धर्मों,समुदायों अथवा राष्ट्रों का विरोध किया जाना चाहिए अथवा सारी दुनिया में किसी एक ही जातीय-सामाजिक संस्कृति के विस्तार वर्चस्व का प्रयास करना चाहिए।यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को ऐसी शिक्षा देता हो यानी उन्हें अन्य धर्मों,समाजों,राष्ट्रों और संस्कृतियों के विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश करता हो तो यह निश्चित है कि उसे राष्ट्रीयता अथवा मानवता में से किसी का भी सही अर्थ नहीं मालूम है।यदि राष्ट्रीयता की भावना का विश्व बंधुत्व की भावना से कोई विरोध होता हो तो वसुधैव कुटुंबकम का आदर्श भारतीय संस्कृति का सनातन तत्त्व कैसे बन पाता?
  • ध्यान रहे,इस आदर्श का सूत्रपात और प्रचलन उस युग से है जब स्वयं भारत भी अनेक राज्यों में बँटा हुआ था और इनके बीच आए दिन भयानक संघर्ष होते रहते थे।यह वस्तुस्थिति इस बात का प्रमाण है कि भारतीय मनीषियों को राष्ट्रवाद तथा विश्व-बंधुत्व के बीच अंतर्विरोध कभी दिखाई नहीं दिया और इसीलिए इसकी साधना सर्वथा संभव है।जब अनवरत राजकीय संघर्षों के दौर में यह सच था तो आज,जबकि समूचा विश्व एक मंच पर आ चुका है और अधिकाधिक निकटता के लिए प्रयासरत है,यह आदर्श चरितार्थ क्यों नहीं हो सकता?
  • उपर्युक्त समस्त विवेचन-विश्लेषण का निहितार्थ यह है कि मनुष्य के लिए आवश्यक कर्त्तव्यों के बीच वास्तव में किसी भी संदर्भ में कोई टकराव अवश्यंभावी नहीं है।यदि कहीं किसी संदर्भ में ऐसा टकराव दिखाई देता है तो वह सच्ची कर्त्तव्य भावना नहीं,बल्कि मानवीय अदूरदर्शिता का परिणाम है जिस पर विजय प्राप्त करना मानव जाति के लिए स्वयं सबसे बड़ी चुनौती है और यह चुनौती वह सर्वोच्च कसौटी है जिस पर मानवीय बुद्धि एवं उसकी सत्तात्मक सार्थकता का परीक्षण किया जाता है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में जीवन में कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है? (What is Importance of Duty in Life?),जीवन में कर्त्तव्य का महत्त्व है? (Importance of Duty in Life) के बारे में बताया गया है।

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7.छात्र-छात्राओं को चुप करने का तरीका (हास्य-व्यंग्य) (How to Silence Students) (Humour-Satire):

  • गणित शिक्षक:अगर छात्र-छात्राएं इकट्ठे होकर हुड़दंग कर रहे हों,गड़बड़ कर रहे हों,शोर कर रहे हों तो उन्हें शांत करने के लिए तुम क्या करोगे?
  • एक छात्र:उन्हें कहा जाना चाहिए कि आज गणित का टेस्ट है,सभी छात्र तैयार हो जाओ।

8.जीवन में कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है? (Frequently Asked Questions Related to What is Importance of Duty in Life?),जीवन में कर्त्तव्य का महत्त्व है? (Importance of Duty in Life) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.दायित्व से क्या आशय है? (What do you mean by liability?):

उत्तर:किसी कर्त्तव्य के पालन करने की अनिवार्यता को दायित्व कहते हैं।दायित्व का निर्वाह करना कर्त्तव्य है और कर्त्तव्य का पालन करना दायित्व होता है।

प्रश्न:2.छात्र-छात्राओं को राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का ज्ञान क्यों नहीं हैं? (Why do students not have knowledge of national duties?):

उत्तर:विद्यालयों के पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम एवं कर्त्तव्यों का विवरण शामिल है।लेकिन यह सब हमारे युवा वर्ग के मन-मस्तिष्क में देश की एकता,अखण्डता,सम्प्रभुता की रक्षा के लिए संघर्ष करने की भावना नहीं भर पाते।इससे एक बात स्पष्ट होती है कि कहीं ना कहीं हमें ऐसे विचारों की शिक्षा देने के माध्यम और कार्यविधि के सैद्धांतिक शिक्षा के साथ-साथ व्यावहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था भी करनी चाहिए।

प्रश्न:3.कर्त्तव्य और अधिकार आपस में कैसे जुड़े हुए हैं? (How are duties and rights intertwined?):

उत्तर:कर्त्तव्य एक चुंबक है जिसकी ओर तेजी से आकर्षित होता हुआ अधिकार दौड़ा आता है,कर्त्तव्य में इतनी आकर्षण शक्ति है।कर्त्तव्य का पालन चित्त की शक्ति का मूल मंत्र है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा जीवन में कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है? (What is Importance of Duty in Life?),जीवन में कर्त्तव्य का महत्त्व है? (Importance of Duty in Life) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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