Reality of 2nd Generation Economic Reforms in India
1.भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की वास्तविकता (Reality of 2nd Generation Economic Reforms in India),भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधार (Second Generation Economic Reforms in India):
- भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की वास्तविकता (Reality of 2nd Generation Economic Reforms in India) जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि उदारीकरण,भूमंडलीकरण को जिस जोर-शोर तथा गाजे-बाजे के साथ स्वागत किया गया था उससे आम आदमी तथा युवावर्ग कितना दूर है?
- भारत में आज भी निरक्षर,अशिक्षित व्यक्ति यहां तक कि कम पढ़ा लिखा युवा भी इन आर्थिक सुधार से ना तो कोई सरोकार रखता है और ना इनमें दिलचस्पी लेता है।इसका कारण है भारत विविधताओं तथा विरोधाभासों का देश है।
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2.भारत विरोधाभासों का देश (India a Land of Contradictions):
- दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों अथवा वर्तमान आर्थिक सुधारों की प्राथमिकताएं क्या थीं? परंपरागत तथा प्रथम पीढ़ी के आर्थिक सुधार क्या थे और उसकी प्राथमिकताएं क्या थीं? लेकिन शायद ही देश में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जो इस बहस में हिस्सेदारी करने की बात तो दूर यह भी नहीं जानते कि आर्थिक सुधार है क्या बला और उस पर भी यह पहली और दूसरी पीढ़ी अथवा उत्तरोत्तर पीढ़ी का चक्कर तो और भी अबूझ है।शायद भारत है ही विसंगतियों का दूसरा नाम।
- कुछ वर्षों पूर्व स्वीडन के एक अर्थशास्त्री-जो अमेरिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे-वे भारत की यात्रा पर आए।संयोग से इस अर्थशास्त्री रोनाल्ड मिलर की भारत के इतिहास और दर्शन में भी काफी रुचि थी,इसलिए उन्होंने झांसी,खजुराहो और इसी तरह के और भी तमाम छोटे-छोटे स्थानों की यात्रा की।प्रोफेसर मिलर ने इस यात्रा के दौरान भारत की आम बसों और रेलगाड़ियों में सफर किया तथा वे ऐसी छोटी-छोटी जगहों में रहे,जहां आमतौर पर विदेशी पर्यटक नहीं रहते।इस यात्रा में उन्होंने जो अनुभव किया उसका वर्णन अमेरिका जाकर ‘वॉल स्ट्रीट जनरल’ में लेख लिखा।इस लेख का सारांश है:
- भारत एक साथ अनगिनत विरोधाभासों का देश है।अमेरिका में रहते हुए भारत जैसे देश को समझ पाना बहुत कठिन है।वह एक साथ जेट युग और बैलगाड़ी युग में है।दुनिया में सबसे ज्यादा कंप्यूटर प्रोग्रामर अगर भारत में है तो शायद भारतीय ही ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा लोग हैं जिन्होंने ना तो कंप्यूटर के बारे में सुना है और न ही उसे देखा है।गैर अंग्रेजीभाषी देशों में भारत ही ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा लोग अंग्रेजी बोलते,समझते और लिखते हैं तथा भारत ही दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा निरक्षर लोग हैं।
- भारत में करोड़ों की संख्या में ऐसे हैं जिनके पास रहने के लिए किसी भी तरह का कोई आश्रय नहीं है।ये लोग फुटपाथों,रेलवे स्टेशनों,मंदिरों,गुरुद्वारों,सामुदायिक भवनों,पार्कों,सार्वजनिक भवनों,खण्डहरों,धर्मशालाओं,अनाथालयों और रैनबसेरों में रात गुजारते हैं।दुनिया में और कोई ऐसा देश नहीं है जहां इतनी बड़ी संख्या में लोग बेघर हैं।वहीं भारत में सबसे अधिक लोग हैं जो पक्के मकानों,शानदार कोठी,बंगलों तथा स्वयं के आवासीय मकानों में रहते हैं।
- लगभग इसी तरह का विरोधाभास आर्थिक सुधारों के मामले में भी है।भारत में एक तरफ जहां आर्थिक विशेषज्ञों और ताकतवर मीडिया की व्यापक उपस्थिति है,जो आर्थिक सुधारों पर तूफानी बहस करते-रहते हैं,वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों की भी सबसे ज्यादा तादाद यहीं है जो न तो आर्थिक सुधार जैसा कोई शब्द जानते हैं और न ही उनके जीवन में इससे किसी भी तरह की हलचल हुई है।आर्थिक सुधारों को अगर सीधे-सीधे देश के गरीब लोगों की स्थिति से संदर्भित करके देखा जाए तो यह विरोधाभास और भी स्पष्ट हो जाएगा।आर्थिक सुधारों की अघोषित तौर पर तो शुरुआत इंदिरा गांधी ने ही अपने तीसरे प्रधानमंत्रित्व में कर दी थी,लेकिन इन सुधारों को नीतियों के दायरे में लाने की शुरूआत उनके बेटे राजीव गांधी ने की थी तथा पीवी नरसिंहम्हाराव ने इन सुधारों के अनुरूप ही नीतियाँ गढ़नी शुरू की थी।इस तरह देखा जाए तो आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुए अप्रत्यक्ष रूप से चार दशक और पूरी तरह प्रत्यक्ष रूप से ऐसा हुए तीन दशक से ऊपर पूरा हो चुका है।
3.आर्थिक सुधारों का लाभ (Benefits of Economic Reforms):
- मगर सवाल है कि क्या इस कालावधि में देश के गरीब लोगों को आर्थिक सुधारों का किसी तरह का फायदा हुआ है? इस सवाल का सीधा-सीधा जवाब है,नहीं।देश के आम लोगों के लिए ये आर्थिक सुधार किस तरह एक छल साबित हुए हैं इसको सैंपल सर्वे के आंकड़ों में देखा जा सकता है।इन आँकड़ों से साफ पता चलता है कि देश में गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या में कोई कमी होने के बजाए इस समयावधि में बढ़ोतरी हुई है।
- 1983 में गांवों में कुल आबादी के 45.6 प्रतिशत लोग गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे थे जबकि शहरों में ऐसे लोगों की तादाद कुल आबादी के 40.8 प्रतिशत थी।इस तरह गांवों और शहरों में कुल मिलाकर गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं लोगों की तादाद 32 करोड़ 28 लाख थी तथा कुल मिलाकर गरीबी-रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का राष्ट्रीय औसत 44.5 प्रतिशत था।
- 1987-88 में इस परिदृश्य में मामूली-सा सकारात्मक परिवर्तन हुआ और गांवों में गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या घटकर 39.1 प्रतिशत रह गयी तथा शहरों में यह कमी 2.6 प्रतिशत हुई जिससे शहरों में गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों का प्रतिशत 38.2 पर आ गया।इस तरह गरीबी रेखा के सकल प्रतिशत में भी प्रतिशत 5.9 की कमी हुई।इस तरह देश में गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे लोगों का प्रतिशत गिरकर 38.9 रह गया और लोगों की संख्यात्मक तादाद 32 करोड़ 28 लाख से घटकर 30 करोड़ 49 लाख रह गयी।
- यह अपने आप में एक विरोधाभास ही है कि जब आर्थिक उदारवाद इतने गाजे-बाजे के साथ नहीं शुरू हुआ था तब गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों में बड़ी तादाद में कमी आयी थी।राजीव गांधी के कार्यकाल में अंतिम सालों और 2 वर्षीय राजनीतिक अस्थिरता के दौरान शायद आजादी के बाद सबसे कम लोग गरीबी रेखा के नीचे रह गए थे।(प्रतिशत की दृष्टि से)।1989-90 में गांवों में गरीबी रेखा के नीचे लोगों की तादाद कुल जनसंख्या का 33.7 प्रतिशत थी जबकि शहरों में यह 36 प्रतिशत था।राष्ट्रीय औसत 34.3 प्रतिशत था जबकि संख्यात्मक तादाद में यह कमी 1983 के मुकाबले 5 करोड़ घटकर 27 करोड़ 60 लाख तक पहुंच गई थी।
- लेकिन 1989-90 के बाद से गरीबों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है।तकनीकी तौर पर अगर कभी एक-आध प्रतिशत इधर-उधर हुआ तो भी इसे रुझान में कोई फर्क नहीं आया।जनसंख्या का रुझान लगातार गरीबी रेखा की तरफ बना रहा।1998 में यह भयंकर रूप से बढ़कर 43% तक पहुंच गयी,जो देखने में तो 1983 के मुकाबले एक प्रतिशत कम लगता है,लेकिन तब की और 1998 की आबादी को देखा जाए तो यह तब के मुकाबले काफी ज्यादा है।इसका सबसे बड़ा सबूत प्रतिशत के बजाय लोगों की वास्तविक तादाद को देखकर भी लगाया जा सकता है।1983 में गरीबी की रेखा के नीचे निवास करने वाले लोगों की कुल तादाद जहां 32 करोड़ 28 लाख थी,वहीं 1998 में यह बढ़कर 40 करोड़ 63 लाख पहुंच गयी।भारत में 2005-06 में गरीबी रेखा के नीचे 55 प्रतिशत,2013-14 में 29.17 प्रतिशत,2022-23 में 11.28 प्रतिशत MPI (Global Multidimensional Poverty in India) के अनुसार तथा नीति आयोग के अनुसार 25 प्रतिशत गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं।
- गरीबों की संख्या में यह बढ़ोतरी साफ-साफ बताती है कि आर्थिक सुधारों का आम लोगों के जीवन में न केवल खुशहाली के स्तर पर कोई योगदान ही है उल्टे इससे उनकी जिंदगी में लगातार संकट ही आया है।इसलिए यह बहुत जरूरी है कि आर्थिक सुधारों के इस जोरदार बहस में इस तथ्य को भी याद रखा जाए।हालांकि ऐसा नहीं है कि आर्थिक सुधारों को देश की संपन्नता में चिन्हित नहीं किया जा सकता।
- आज की तारीख में भारत में 3000 से ज्यादा किस्म के टेलीविजन भारत के उपभोक्ता बाजारों में मौजूद है तथा कई ब्रांड के मोबाइल फोन बाजारों में मौजूद हैं जो कि बड़े उपभोक्तावर्गी बाजार का सूचक है।यहीं नहीं हमारे यहां जितने भी पारंपरिक टिकाऊ उपभोक्ता सामान हैं उन सबके न केवल ब्रांड ही हमारे देश में तमाम देशों के मुकाबले ज्यादा मौजूद हैं बल्कि वे बिकते भी काफी ज्यादा हैं।इसलिए दुनिया की ज्यादातर उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियां हमारे यहां कारोबार करती हैं।हमारे देश में उपभोक्ता वस्तुओं की यह बिक्री और विभिन्न ब्रांडों की मौजूदगी आर्थिक उदारवाद से पैदा हुई समृद्धि की भी द्योतक है,लेकिन गरीबी इसमें एक अतिरिक्त तथ्य की तरह,उसे हर विमर्श में याद रखा जाना चाहिए।
4.भारत में आर्थिक सुधारों का निष्कर्ष (Conclusion of Economic Reforms in India):
- अब सवाल यह उठता है कि गरीब और गरीब,अमीर और अमीर हो रहे हैं,भारत में असमानता और गरीबी बढ़ रही है तो भारत में आवश्यक वस्तुओं (Necessary Things),सुविधायुक्त चीजों (Comfortable Things) के ब्रांडों की इतनी अधिक किस्म का उपलब्ध होना तथा खपत तो समझ में आता है परंतु विलासितापूर्ण चीजों (Luxurious Things) के विभिन्न ब्रांडों का होना और खपत तो ऊपरी तौर पर यही दर्शाता है कि भारतीय लोग खुशहाल और संपन्न होते जा रहे हैं परंतु यह तस्वीर का एक पहलू है।
- तस्वीर के दूसरे पहलू को एक उदाहरण से समझते हैं।यहां विलासितापूर्ण चीज कार का उदाहरण लेते हैं।आज भारत में कार के एक से एक ब्रांड मौजूद हैं और उनकी खपत हो रही है।कार कंपनियां उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए आक्रामक विज्ञापनबाजी से लेकर आकर्षक सहूलियतों का सहारा लेती हैं।परिणाम यह होता है कि व्यक्ति के मन में कार की लालसा पैदा होती है।जब एक बार यह लालसा पैदा हो जाती है,तो वह तब तक शांत नहीं होती जब तक की इच्छित वस्तु न मिल जाए।
- लेकिन समाज के हर आदमी की औकात तो कार से चलने लायक नहीं है।फिर लालसा का क्या किया जाए?
- वयस्क व्यक्ति तो ‘चादर देखकर पैर फैलाने’ की कोशिश करता है लेकिन युवावर्ग अपनी चादर नहीं देखता,वह केवल अपनी इच्छा की पूर्ति चाहता है।चाहे जैसे भी हो।कहने का तात्पर्य यह है कि समाज का वह युवावर्ग,जिसके माता-पिता कार नहीं खरीद सकते।येनकेन प्रकारेण कार पाना ही चाहेगा।इसके लिए वह गलत रास्तों को अपनाएगा।वैसे 1991,जब से देश में उपभोक्ता संस्कृति बढ़ी है,युवावर्ग अपराध की तरफ बढ़ा है।आज हालात यह है कि युवा पीढ़ी अपनी इच्छापूर्ति के लिए इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि किसी की भी हत्या करना उसके लिए केवल एक खेल है।
- अपराध न तो केवल धनी बच्चों को ही आकर्षित कर रहा है और न ही उन्हें जो बुनियादी जरूरतों मसलन रोटी-कपड़े के लिए रोज जूझते हैं।इसका कारण,उपभोक्ता संस्कृति है।इस प्रवृत्ति में कार तथा विलासितापूर्ण चीजों का उत्पादन करने वाली कंपनियों की विज्ञापनबाजी आग में घी का काम कर रही है।
- युवावर्ग बैंक डकैती,एटीम का उखाड़ना,डकैती,फिरौती,अपहरण,लूटना,साइबर क्राइम,चोरी आदि की ओर अग्रसर हो रहा है तो सवाल यह भी है कि क्या उदारीकरण को रोक दिया जाए।बदली परिस्थितियों में उदारीकरण अनिवार्य तो है लेकिन इसकी एक सीमा होनी चाहिए।हमें इस नीति को लागू करने में समाज का खयाल भी रखना होगा।उदारीकरण के बाद रोजगार के अवसर घटे हैं।क्योंकि उदारीकरण का मतलब है अधिक से अधिक निजीकरण और देश की कंपनी का बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ प्रतिस्पर्धा करना।इस प्रतिस्पर्धा के कारण कंपनियां उत्पादन लागत कम करने के लिए मशीनों को बढ़ावा दे रही हैं और कम से कम श्रमिक रख रही है।यही नहीं,श्रमिकों के वेतन में भी कटौती कर रही हैं।उदारीकरण में प्रतिस्पर्धा इतनी है कि कंपनी उत्पादन लागत कम करने के लिए मजबूर हैं।जब कंपनी अपनी उत्पादन लागत कम करने की सोचती है तो सबसे पहले वे श्रमिकों की छँटनी करती है या उनकी मजदूरी और उनकी सुविधाएं कम कर देती हैं।
- कुछ लोग तर्क देते हैं कि उदारीकरण से रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं तथा जिसमें क्षमता होगी वह आगे बढ़ेगा परंतु इस नीति में रोजगार के अवसर कम हैं,इसके अलावा मिली हुई नौकरी सुरक्षित भी नहीं है।यदि यह नीति इतनी ही बढ़िया होती तो बहुराष्ट्रीय कंपनी विकासशील देशों की ओर रुख क्यों करती?
- सरकार भले ही आंकड़ों के द्वारा यह साबित करने की कोशिश करती है कि बेरोजगारी बढ़ी नहीं बल्कि घटी है।अपराध को भी सरकार बल प्रयोग से कम करने की कोशिश करती है परंतु यह अस्थायी समाधान है।
- सरकार अपने खर्चे की पूर्ति तो सार्वजनिक कंपनियों को जो मूल्यवान संपत्ति है,उन्हें औने-पौने भाव पर बेचकर पूरे कर लेती है तथा खाद्य-पदार्थों और आवश्यक वस्तुओं पर सब्सिडी घटाकर अपना काम चला लेती है।परंतु सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि उदारीकरण के बावजूद भारत अभी एक कल्याणकारी राज्य है।भारत का संविधान अभी भी जिम्मेदारियां तय करता है और संविधान में साफ-साफ कहा गया है कि सरकार सभी लोगों की जीवित रहने की न्यूनतम गारंटी देगी।ऐसे में राज-सहायता महज सरकार की सदासशयता या उसकी मर्जी का मुद्दा नहीं हैं।राज-सहायता भारत के संविधान के संवैधानिक व्यवस्था को गारंटी देने का जरिया है।ऐसे में सरकार यह नहीं कह सकती कि वह राज-सहायता को अपने आर्थिक नजरिया से तय करेगी।
- फिर समाधान क्या है? समाधान है शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहिए।शिक्षा के द्वारा ही लोगों की मानसिकता,युवाओं की मानसिकता को परिवर्तित किया जा सकता है।लेकिन यहाँ शिक्षा से तात्पर्य वर्तमान में दी जारी शिक्षा से नहीं है।बल्कि ऐसी शिक्षा लागू करनी चाहिए जो युवाओं में,बच्चों में चरित्र,सदाचार,मानवीय गुण,राष्ट्रभक्ति की भावना पैदा कर सके तथा उन्हें योग्य बनाएं।शिक्षा में आज बदलाव किया जाएगा तो वर्षों बाद उसके परिणाम दिखाई देंगे।अतः शिक्षा ही मजबूत नींव का काम करेगी।तब तक सरकार को नीति से,कल्याणकारी योजनाओं से,अपराधों को बल इत्यादि का सहारा लेकर सामाजिक समरसता को बनाए रखना चाहिए।
- युवाओं को सही मार्गदर्शन देने के लिए एक जन आंदोलन खड़ा करना होगा क्योंकि अकेले सरकार ही सब कुछ नहीं कर सकती है।माता-पिता,अध्यापकों को,प्रबुद्ध जनों सामाजिक व धार्मिक संगठनों,संतों और धर्माचार्यों आदि सभी को अपनी-अपनी भूमिका निभाकर युवाओं को सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए।आखिर हम सबको यह विचार मंथन करने की जरूरत है कि हम किसके लिए,किस जनसमूह के लिए,किस राष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध हैं? भारत सदियों तक गुलाम रहा है।लोगों पर विदेशी आधिपत्य तथा वर्तमान शिक्षा ने हमारे अंदर जड़ता पैदा कर दी है इसलिए हर कोई एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लेता है।
- तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि भारत के समाज सुधारक,समाज के कर्ताधर्ता,सरकार,माता-पिता प्रबुद्ध जन,धर्मोंपदेशक,सामाजिक संगठन,धार्मिक संगठन फुटकर रूप से तो काम करते दिखाई देते हैं अथवा इनमें से कुछ निष्क्रियता की स्थिति में भी हो सकते हैं।वे तब तक खड़े होने का मानस नहीं बनाते हैं जब तक भारत टूटने के कगार पर खड़ा नहीं हो जाए,जब तक पानी सिर से ऊपर निकल न जाए।इस प्रकार की मानसिकता को बदलने की जरूरत है तथा भारतीय प्राचीन संस्कृति और इतिहास से सबक लेकर हमें अभी भविष्य की आहट को पहचानकर खड़ा होना होगा और मिलकर काम करना होगा तभी इन अथवा अन्य विकट परिस्थितियों का समाधान किया जा सकता है।
- उपर्युक्त आर्टिकल में भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की वास्तविकता (Reality of 2nd Generation Economic Reforms in India),भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधार (Second Generation Economic Reforms in India) के बारे में बताया गया है।
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5.गणित में डूबने का आशय (हास्य-व्यंग्य) (Immersion in Mathematics Means) (Humour-Satire):
- विनीत:मैं गणित को पढ़ाता हूं तो अपने आपको उसमें डूबो देता हूं ताकि उसकी गहराई का पता लग सके।
- निखिल:मेरी एक बात समझ में नहीं आई कि जब तुम गणित में डूबते हो तो अभी तक जिंदा कैसे हो क्योंकि डूबने वाला तो जिंदा बचता ही नहीं है।
6.भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की वास्तविकता (Frequently Asked Questions Related to Reality of 2nd Generation Economic Reforms in India),भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधार (Second Generation Economic Reforms in India) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.कामगारों की छंटनी में क्या दिक्कतें हैं? (What Are the Problems in Retrenchment of Workers?):
उत्तर:आर्थिक सुधारों के लगभग सभी पुरोधा एक ही स्वर में कामगारों की छंटनी का राग अलाप रहे हैं,लेकिन वास्तविक दिक्कत यह है कि ये लोग जिन कामगारों की छंटनी किए जाने की बात कर रहे हैं वे आखिर कहां जाएं और वे क्या करेंगे! हमारे यहां 95% से ज्यादा ऐसे कामगार हैं जिनकी तनख्वाह उनके पूरे परिवार के जीवन का आधार है।आर्थिक सुधारों के क्रांतिकारी विशेषज्ञों के पास ऐसे कामगारों की दिक्कत का कोई व्यावहारिक निदान नहीं है।
प्रश्न:2.आधुनिकरण से क्या आशय है? (What Do You Mean by Modernisation?):
उत्तर:आधुनिकरण ऐसी प्रक्रिया है जिसमें शामिल होने के लिए अवसर सबको मिलना चाहिए।आमतौर पर विशेषज्ञों की राय होती है कि कुछ कामगार इसके लिए फिट नहीं है क्योंकि वे आधुनिक तकनीक के साथ काम करने में दक्ष नहीं है।उन्हें यह सोचना चाहिए कि उन्हें दक्ष होने का पहले कोई मौका तो दें।बिना किसी मौके के यह नहीं कहा जा सकता कि फलां असमर्थ है।
प्रश्न:3.आर्थिक सुधारो से शिक्षा प्राप्ति में क्या दिक्कतें आ रही हैं? (What Are the Problems in Education Due to Economic Reforms?):
उत्तर:शिक्षा लगातार महंगी होती जा रही है,तकनीकी शिक्षा तो और भी ज्यादा।सवाल है कि क्या सिर्फ एक उच्चवर्ग को ही शिक्षा की सुविधा और माहौल उपलब्ध करवाकर सरकार या आर्थिक सुधारों के प्रवक्ता कोई जनलक्ष्य हासिल कर सकते हैं।अगर आर्थिक सुधारों को कारगर बनाना है तो सबको शिक्षा और वो भी सर्वांगीण विकास करने में सक्षम शिक्षा मुहैया करानी पड़ेगी।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की वास्तविकता (Reality of 2nd Generation Economic Reforms in India),भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधार (Second Generation Economic Reforms in India) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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