5 Tips of How Work is Life for Student
1.विद्यार्थियों के लिए कर्म ही जीवन कैसे है की 5 टिप्स (5 Tips of How Work is Life for Student),कर्म ही जीवन है (Work is Life):
- विद्यार्थियों के लिए कर्म ही जीवन कैसे है की 5 टिप्स (5 Tips of How Work is Life for Student) के आधार पर आप जान सकेंगे की कर्म ही जीवन कैसे हैं?कौन से ऐसे कर्म हैं जो जीवन के पर्याय हैं,जीवन को गति देते हैं और कौन-से कर्म हमें नहीं करना चाहिए।कर्म करें तो कैसे करें?
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2.कर्म की गति (Speed of Karma):
- गति जीवन का लक्षण भी है और विश्वात्मा का नियम भी है।विश्व का प्रत्येक अणु-परमाणु गतिमान है।कार्य गति का अनुसारी परिणाम है।विश्वात्मा अथवा परमात्मा भी इस नियम के परे नहीं है।वह भी निरंतर कर्म करने को विवश है।
- कोई भी (पुरुष) किसी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता है।हे अर्जुन! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है,किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है,तो भी मैं कर्म में ही वर्तता हूं।कर्म को वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। (श्रीमद्भगवद्गीता)
- वासना अथवा इच्छा द्वारा कार्य की प्रेरणा होती है और कार्य प्रभाव उत्पन्न करता है।इच्छा,कार्य तथा प्रभाव तीनों के समन्वित रूप को कर्म कहा जाता है।स्पष्ट है कि हम निरंतर कर्म में निरत रहते हैं।कर्म के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।हमारे मन में नानाविध वासनाएं एवं इच्छाएं उत्पन्न होती रहती हैं,हम उनकी प्रेरणानुसार कार्य करते हैं और तदनुसार उत्पन्न प्रभाव को प्राप्त करते हैं।कार्य के प्रभाव को फल भी कहा जाता है।
- इस शरीर से जीवन का निकलना,पुनः कर्म में प्रवेश करना और कोटिशः योनियों में भ्रमण करना,यह सब अपने कर्म दोष का फल है और कुछ नहीं।
- कार्य के अनुसार प्रभाव पैदा होता है,उस पर हमारा वश नहीं चलता है।इसी प्रकार कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है।उस पर हमारा वश नहीं रहता है।हम हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिश्रण में बिजली की चिंगारी भेजें या ना भेजें,यह तो हमारे वश में है,परंतु चिंगारी का संस्पर्श उन्हें जल में परिवर्तित कर ही देगा,उनका जल में परिवर्तित ना होने देना हमारे वश में अथवा अधिकार में नहीं है।हम आग में हाथ दे या ना दें,यह तो हमारे अधिकार की बात है,परंतु अग्नि में हाथ जले या न जले यह हमारे अधिकार में नहीं है।इसी से कहा जाता है कि कर्म पर हमारा अधिकार है,उसके फल पर नहीं-कर्मण्येवाधिकारस्ते,मा फलेषु कदाचन अर्थात तेरा कर्म मात्र में ही अधिकार होवे फल में कभी नहीं (श्रीमद्भगवद्गीता)।
- कर्म का फल तो कर्मफल के अविचल एवं शाश्वत नियम के अनुसार मिलना ही है।अतः किसी कर्म के फल के प्रति ऊहापोह करने का परिणाम यह होगा कि हम अपने सम्मुख उपस्थित कर्त्तव्यों के प्रति प्रमाद करने लग जाएंगे।
- कुछ कर्मों का फल हमको तत्काल प्राप्त हो जाता है,कुछ कर्मों का फल कुछ समय पश्चात प्राप्त होता है और कुछ कर्मों का फल जन्म भर प्राप्त होता हुआ नहीं दिखाई देता है और पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार वह हमें अगले किसी जन्म में प्राप्त होता है।कर्म की इस प्रक्रिया को लक्ष्य करके भाग्य की परिकल्पना की गई है।भाग्य और कर्म पर्यायवाची बन गए हैं,परंतु एक तथ्य सुनिश्चित है कि फल की प्राप्ति एवं भाग्य का निर्माण कर्म की ही देन है।तभी तो लोक व्यवहार की भाषा में कहा जाता है-“बोया पेड़ बबूल के आम कहाँ ते होय।” यानी खोटे कर्म करके,बुरे कर्म करके अच्छे,शुभ,हितकारी फल नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
3.प्राणीमात्र कर्म करने के लिए बाध्य है (Every living being is bound to act):
- हम केवल शरीर से ही नहीं,वचन और मन से भी कर्म करते रहते हैं,हम शरीर से जो काम करते हैं,वाणी से जो बात करते हैं तथा मन में जो विचार लाते हैं,वे सब अपना प्रभाव अथवा फल उत्पन्न करते हैं।अपने द्वारा उत्पन्न समस्त कर्मफल को प्राप्त करना अथवा उसके परिणामों को भोगना हमारी विवशता है,जिसे हम नियति या भाग्य कहते हैं।हमको चाहिए कि सफलता प्राप्त हो अथवा असफलता मिले,दोनों को अपनी सृष्टि समझें और उन्हें समभाव से स्वीकार करें।इस दृष्टि से निरंतर अपना काम करते रहना ही समभाव से जीवन-यापन करना कहा जाता है।फल प्रयत्न से प्राप्त नहीं होता है।वह दैव की प्रेरणा अथवा निर्धारित नियम के अनुसार मिलता है,जैसा बोओगे,वैसा काटोगे या पाओगे।
- जैसे फूल और फल स्वतः ही अपने समय पर वृक्षों में लग जाते हैं,उसी प्रकार किए गए कर्म भी अपने फल-भोग को समय पर प्रदान करते हैं।
- जब समस्त सुख-दुःख के हेतु हमारे कर्म हैं,तब अन्य किसी को उनका हेतु समझना दुर्बुद्धि नहीं तो और क्या कहा जाना चाहिए?
- प्रतिपल इच्छा अथवा वासनाओं द्वारा संकुलित हम जीव काममय अथवा संकल्प रूप हैं।जैसा संकल्प होगा,वैसा ही प्रयत्न होगा।जैसा प्रयत्न होगा,वैसा ही कर्म होगा और जैसा कर्म होगा,वैसा ही उसका फल होगा।अतएव हमको चाहिए कि हमारे संकल्प सदैव शुभ हों।शुभ संकल्प का व्यावहारिक रूप यह है कि हमारे सामने जो भी कार्य हो उसको हम पूरी लगन एवं निष्ठा के साथ करें।कार्य की श्रेणी की अपेक्षा निष्ठा का महत्त्व कहीं अधिक होता है।
- इतिहास प्रमाण है कि झाड़ू लगाने,जूते साफ करने तथा इसी प्रकार के तथाकथित छोटे कार्यों को करने वाले व्यक्ति जीवन में पूर्णतः सफल हुए और उच्चतम पद एवं आसन को प्राप्त करके लोकाराधन के अधिकारी हुए।गणितज्ञ आर्यभट,ब्रह्मगुप्त,महावीराचार्य से लेकर कार्ल फेडरिक गाॅउस,अल्बर्ट आइंस्टीन,इसाक न्यूटन तक के अनेक उदाहरण हमें यही शिक्षा देते हैं कि कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा जीवन में बहुत महत्त्व रखती है।इसाक न्यूटन एक गरीब परिवार में पैदा होकर कर्त्तव्यपरायणता,निष्ठा,शुभ संकल्प आदि के सोपानों पर चढ़कर एक महान गणितज्ञ और वैज्ञानिक बन गए थे।
- कर्मफल का रहस्य एवं उसकी महिमा समझ लेने के उपरांत ईर्ष्या,द्वेष,असंतोष आदिक संबंधी अशिव विचारों के लिए हमारे जीवन में स्थान नहीं रह जाता है।जो आज सिर पर ताज रखकर बैठता है,वह ना मालूम कूड़े और मल के कितने टोकरे अपने सिर पर रख चुका है,जो आज चिथड़ों में रह रहा है,वह ना मालूम अपने किए हुए किन कर्मों का फल भोग रहा है और अपने कर्त्तव्य कर्म के सम्यक निर्वाह द्वारा किस स्वर्ण मंदिर का स्वामी बन जाएगा,कोई नहीं कह सकता है।
- यदि ऐसा न होता तो महान विचारक इस प्रकार का कथन क्यों करते, “Every saint has a past and every sinner has a future” अर्थात प्रत्येक संत के पीछे उसका पापमय अतीत रहता है और प्रत्येक पापी के सामने उज्ज्वल भविष्य रहता है।कहने का तात्पर्य यह है कि हम अतीत को बदल नहीं सकते हैं,वर्तमान से बच नहीं सकते।परंतु भविष्य हमारे सामने हाथ में रहता है।शुभ संकल्प प्रेरित आचरण द्वारा श्रेष्ठ कर्मों को एकत्र करके हम अपने कर्मों के भंडार में शिवत्व की वृद्धि तो कर ही सकते हैं।
- शुभ,कल्याणकारी,हितकारी कर्मों के परिणाम भी अच्छे ही होते हैं।अतः उचित प्रयत्न करने,सही तरीके से अध्ययन करने के रास्ते को किसी भी हालत में नहीं छोड़ना चाहिए।
4.अपने भाग्य रूपी कर्मों से भागना उचित नहीं (It is not advisable to run away from one’s fateful deeds):
- अपने भाग्य अथवा अपनी स्थिति परिस्थिति के प्रति निराश होकर अथवा उससे हार मानकर बैठ जाना किसी भी दशा में,किसी भी मानदंड के आधार पर उचित नहीं कहा जा सकता है।जीवन है,तो गति है और गति को अस्वीकार करना प्रकृति के नियम के विपरीत आचरण करना है।हाथ-पैर हिलाए-डुलाए बिना तो हम पेट भी न भर सकेंगे।कर्म के अभाव में भोजन,भवन,आचरण आदि सब कुछ अप्राप्य हो जाएं।मानव सभ्यता एवं संस्कृति का विकास कर्मशील व्यक्तियों के श्रम-सीकर द्वारा ही संभव हो सकता है।कर्मरत मानव ही अपने सबल कंधों पर समाज के योग-क्षेम को वहन करते हुए देखे जाते हैं।वस्तुतः जीवन का निष्कर्ष एवं सर्वस्व ‘कर्म’ के प्रति मनुष्य की ललक ही है।
- प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है।हम अपना हृदय टटोलकर देख लें।हम जितना काम कर लेते हैं,उसी के अनुपात में सफलता प्राप्त कर लेते हैं।कर्म से विमुख व्यक्ति परोपजीवी बन कर जीवन का भार ढोता है और जिस देश के निवासी कर्म के महत्त्व को कम करके आँकते हैं,वह देश गुलाम बन जाता है।केवल कर्महीन भाग्य को कोसते हैं,उन्हीं के पास शिकवा-शिकायतों का ढेर रहता है।हम प्रकृति के इस नियम का पालन करके अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए प्रयत्नशील हों- कर्म ही जीवन हैं,कर्म ही पूजा है,कर्म ही आराधना है,कर्म ही साधना और उपासना है।
- एक बार राजा भोज ने गरीबों,दलितों,असहायों को दान देने का निश्चय किया।उन्होंने नियमित रूप से दान देना शुरू कर दिया तो उनके मंत्री को बड़ी चिंता हुई।अतः उन्होंने दानशाला की दीवार पर लिखा कि आपत्ति के लिए धन का संचय करना चाहिए।दूसरे दिन राजा भोज आए,उन्होंने दीवार पर लिखे वाक्य को पढ़ा और नीचे लिख दिया कि भाग्यशाली के लिए कोई आपत्ति नहीं है।मंत्री ने जब देखा तो उन्होंने उसके नीचे लिखा कि यदि भाग्य कुपित हो जाए तो? राजा भोज ने अगले दिन फिर से मंत्री के वाक्य को पढ़ा और नीचे लिखा कि पुरुषार्थी व्यक्ति भाग्य को बदलने में समर्थ है,यही नहीं अपने प्रचंड पुरुषार्थ के बल पर वह नए भाग्य का निर्माण कर सकता है।
- इसके बाद मंत्री जी आए और उन्होंने राजा के प्रत्युत्तर को पढ़ा तथा उसके नीचे कुछ नहीं लिखा।
- तात्पर्य यह है कि कर्मशील व्यक्ति अपने लक्ष्य को,अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है।अतः अपने कर्म क्षेत्र को छोड़कर नहीं भागना चाहिए,अनवरत कर्म करते रहना चाहिए।विपरीत भाग्य को भी प्रचंड पुरुषार्थ से बदला जा सकता है,अनुकूल किया जा सकता है।परंतु यदि हम कर्म ही न करें,निठल्ले बैठे रहें,आलस्य करते रहें तो फिर जैसा करेंगे वैसा ही फल भोगने के लिए भी अपने आप को तैयार कर लेना चाहिए।भारत भूमि कर्म योगियों की भूमि है और उनके जीवन चरित्र को देखकर हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि उन्होंने अपने पुरुषार्थ से,कर्म से विपरीत समय को भी अनुकूल समय में बदल लिया और जैसा चाहते थे,वैसा सब कुछ प्राप्त कर लिया।शर्त यही है कि धैर्यपूर्वक कर्म करते रहें,अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में जुटे रहें तो देर-सवेर अपने प्रतिकूल समय को अनुकूल समय में बदल सकते हैं।
5.छात्र-छात्राएँ सही दिशा में कर्म करें (Students should work in the right direction):
- छात्र-छात्राओं को ऊपर के विवरण से यह तो समझ में आ ही गया होगा कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं मिलता है।कर्म प्रमुख है,भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए भी शुभ कर्म करना जरूरी है।
- प्रत्येक छात्र-छात्रा कर्म करने के लिए स्वतंत्र है।जैसा चाहे वैसा कर्म करें पर एक बात जरूर ख्याल में रखें कि कर्म करने के मामले में कर्म कमजोर और हम बलवान तभी तक हैं जब तक हम कर्म करते नहीं है।कर्म करते ही स्थिति उलट जाती है।किया हुआ कर्म बलवान और हम उसके अधीन हो जाते हैं।बार-बार किया हुआ कर्म संस्कार बन जाता है और हम संस्कार के गुलाम हो जाते हैं।फिर उस कर्म को हम संस्कारवश ही करने लगते हैं,आदतन करने लगते हैं क्योंकि इसके लिए हम विवश हो चुके होते हैं।फिर हम उसके औचित्य या अनौचित्य पर जरा भी विचार नहीं करते क्योंकि हम कंडीशन्ड यानी संस्कारवश हो चुके होते हैं।
- कर्म करना मनुष्य के हाथ में है और फल देना भगवान के विधि विधान,प्राकृतिक व्यवस्था के हाथ में है।प्रकृति की सारी व्यवस्था भगवान द्वारा संचालित है और उसी के अधीन है।
- अतः अपने अध्ययन कार्य को,अपने प्रत्येक कार्य को,अपनी परीक्षा की तैयारी करने को,नित्य कर्मों को,सहायक कर्मों को पूरी निष्ठा,पूरी ईमानदारी के साथ संपन्न करें और फल को भगवान के सहारे छोड़ दें क्योंकि फल देना या लेना हमारे हाथ में है भी नहीं।आप लाख कोशिश कर लें,कोई भी योजना बना लें,कोई भी तरकीब भिड़ा लें परंतु फल लेना या देना आपके वश में नहीं हो सकता है।
- भगवान के विधि-विधान के अनुसार ही फल मिलता है।जो भी फल मिले उसे सहज भाव से स्वीकार करें।आपके हाथ में प्रयत्न,पुरुषार्थ और प्रयास करना ही है सो सतत करते रहें।यदि फल प्राप्ति के सोच-विचार में उलझे रहेंगे तो कर्म को पूरी निष्ठा,पूर्ण मनोयोग,पूर्ण एकाग्रता के साथ संपन्न नहीं कर पाएंगे।तब आप वर्तमान काल में नहीं भूतकाल और भविष्य काल में गोते लगा रहे होंगे।भूतकाल को आप बदल नहीं सकते और भविष्य काल आपके हाथ में है नहीं,आपके हाथ में केवल वर्तमान काल ही है।और जो वर्तमान काल में जीता है,वही कर्मयोगी है,वही पूरी निष्ठा एवं एकाग्रता के साथ अपने कर्म को अंजाम दे सकता है।
- अतः अपने आपको वर्तमान काल का पूर्ण सदुयोग करने में झोंक दें और फल क्या होगा वो प्रभु जाने,उसकी चिंता न ही करें।भूत और भविष्य काल में गोते लगाने से हमारी शक्ति बिखर जाती है,कई भागों में बँट जाती है।और यह तो आप आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि जिस कार्य को पूर्ण शक्ति लगाकर नहीं किया जाएगा उसका परिणाम,शुभ,अनुकूल और हितकारी कैसे हो सकता है,हो सकता भी नहीं,होगा भी नहीं चाहे आप कितनी ही जुगत और तिकड़म लगा ले।
- उपर्युक्त आर्टिकल में विद्यार्थियों के लिए कर्म ही जीवन कैसे है की 5 टिप्स (5 Tips of How Work is Life for Student),कर्म ही जीवन है (Work is Life) के बारे में बताया गया है।
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6.कमाल के लड़के हो (हास्य-व्यंग्य) (You Are An Amazing Boy) (Humour-Satire):
- गणित अध्यापक ने रामलाल से (हर सवाल को सही,ठीक तरीके से और बेहतरीन तरीके से करने पर) कहा:कमाल के लड़के हो!
- रामलाल:नहीं सर में जगदीश जी का लड़का (पुत्र) हूं।आपका कथन सरासर गलत है।
7.विद्यार्थियों के लिए कर्म ही जीवन कैसे है की 5 टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 5 Tips of How Work is Life for Student),कर्म ही जीवन है (Work is Life) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.निष्काम कर्म से क्या आशय है? (What do you mean by anything done for its own sake without concern for the result?):
उत्तर:निष्काम कर्म से आशय है कि कर्मफल में आसक्ति मत रखो और कर्म के कर्ता भी अपने आप को मत समझो।क्योंकि किसी भी कर्म का फल हमारे हाथ में नहीं होता है और कर्म का कर्ता समझने पर हमारे अंदर अहंकार बढ़ता है।और अहंकार से विद्या का अर्जन नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न:2.कर्म को किस ढंग से करें? (How to perform the work?):
उत्तर:कर्म करते-करते मनुष्य को ऐसा लगना चाहिए कि उसने कुछ किया ही नहीं।कर्तापन का अभियान न आये,कर्म का बोझ मन और बुद्धि को न झुकाए,उमंग और उत्साह के हाथ पैर न टूटे,प्रसन्नता न कुम्हलाये,आत्मा सदा हंसता खेलता रहे और सर्वत्र आनंदमय ब्रह्म का दर्शन हो तो समझना चाहिए कि कर्म में अकर्म (निष्काम) हो रहा है।यही सर्वोत्तम तरीका है।
प्रश्न:3.क्या बिना कर्म के कुछ नहीं मिलता है? (Is there nothing to be gained without action?):
उत्तर:शुभ कर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से दुःख मिलता है।अपना किया हुआ कर्म सर्वत्र फल देता है।बिना किए हुए कर्म का फल कहीं नहीं भोगा जाता।तिलों से ही तेल निकलता है,रेत से तेल नहीं निकलता।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा विद्यार्थियों के लिए कर्म ही जीवन कैसे है की 5 टिप्स (5 Tips of How Work is Life for Student),कर्म ही जीवन है (Work is Life) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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