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5 Tips for Students to Be Spiritual

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1.छात्र-छात्राओं के लिए आध्यात्मिक होने की 5 टिप्स (5 Tips for Students to Be Spiritual),छात्र-छात्राएँ आध्यात्मिक कैसे हों? (How Can Students Be Spiritual?):

  • छात्र-छात्राओं के लिए आध्यात्मिक होने की 5 टिप्स (5 Tips for Students to Be Spiritual) के आधार पर वे जान सकेंगे कि अध्यात्म का क्या महत्त्व है,उन्हें आध्यात्मिक क्यों और किस प्रकार होना चाहिए? आध्यात्मिक जीवन शैली किस प्रकार अपनी जा सकती है और विद्यार्थी के लिए लक्ष्य प्राप्ति में किस प्रकार सहायक है?
  • वैसे आजकल के रंग-ढंग देखकर और वर्तमान शिक्षा पद्धति से जो नवयुवक-नवयुवतियाँ तैयार हो रहे हैं वे आध्यात्मिकता को जीवन के लिए जरूरी नहीं समझते हैं।उनके भौतिक पक्ष का विकास ही होता है और यही वे चाहते हैं।
  • परंतु जब जीवन में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है,घर-परिवार में गृहक्लेश बना रहता है,बहुत धन-संपत्ति अर्जित करने पर भी मन अशांत बना रहता है,तब वह समझ ही नहीं पाता कि ऐसा क्यों हो रहा है,न समझने की कोशिश करता है।बल्कि अपनी समस्याओं का समाधान भौतिक जगत में ढूंढता रहता है,उसे कोई सन्मार्ग दिखाई नहीं देता है।
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2.आध्यात्मिकता का पहला चरण आस्तिकता (The First Stage of Spirituality Theism):

  • आस्तिकता का अर्थ अपने अस्तित्व का बोध करना,अपने अस्तित्व में विश्वास करना।अपनी आत्मा का अनुभव और इसकी संपूर्णता भगवान में समाहित है।जब हम अपनी आत्मा,अपने अस्तित्व का अनुभव करते हैं तो पता चलता है कि सभी मानव,सभी चर-अचर प्राणी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं,प्रभावित होते हैं।
  • कोई भी विद्यार्थी कितना ही यकीन करें कि उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं है,लेकिन जब वे अपने जीवन का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करें,तो यह बात नजर आती है।एक विद्यार्थी अपनी समस्याओं को स्वयं हल नहीं कर लेता है बल्कि अपने मित्रों,शिक्षकों,माता-पिता आदि अनेक व्यक्तियों की बदौलत हल करता है।यदि हम इस बात की उपेक्षा करें,दूसरों की उपेक्षा करें तो यह हमारे लिए अहितकर होती है।अपने अस्तित्व के बोध से,एक-दूसरे के सहयोग से संवेदनशीलता पनपती हैं।
  • जो छात्र-छात्रा यह सोचता है कि वह अकेले ही अपना विकास कर लेगा,उसके विकास के लिए किसी अन्य व्यक्ति की जरूरत नहीं है वह असुर प्रकृति का है।प्राचीन समय में इसी तरह के लोगों को असुर कहा जाता था।असुर व्यक्ति किसी को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते हैं,केवल स्वयं के बारे में ही सोचते हैं।इस असुरता का देवी शक्तियां,आस्तिक व्यक्ति विरोध करता है और उनमें असुरता को खत्म करने के उपाय करती हैं,योजनाएं बनाती हैं।
  • आस्तिकता का अर्थ है साथ-साथ रहना,एक-दूसरे के विकास में सहयोग करना,एक-दूसरे से जुड़े रहना।एक-दूसरे के विकास में सहयोगी होने से सृष्टि का संतुलन बना रहता है।अतः आस्तिकता के माध्यम से हम हमारा संपूर्ण विकास कर पाते हैं और दूसरे के विकास में भी मददगार बनते हैं।
  • जैसे हमारा संपूर्ण शरीर विभिन्न अंगों के सुचारू रूप से कार्य करने पर सुंदर,सुगठित और विकसित होता है,उसी प्रकार समाज के सभी पक्षों का विकास आस्तिकता के माध्यम से होता है।इसके माध्यम से हम यह महसूस करते हैं कि सभी जगह सभी प्राणियों में परमेश्वर का अस्तित्व,परमेश्वर का निवास है और हमारी सोच,दृष्टिकोण,भावना सब रूपांतरित होने लगते हैं।हम व्यापक दायरे और गहराई से सोचने लगते हैं,फिर हम किसी को हानि नहीं पहुंचा सकते,बल्कि सबके संरक्षण व विकास के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।

3.नैतिकता का पालन करें (Follow ethics):

  • विद्यार्थी जीवन पूरे जीवन की नींव का कार्य करता है। अतः यही समय है कि जिसमें आप अपने जॉब के लिए कौशल,व्यावहारिक बातें और आध्यात्मिक बातों को अपने जीवन में अपनाने की नींव डाल सकते हैं।यदि आपने यह सोच लिया कि व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए पूरा जीवन पड़ा है तब सीख लेंगे,लेकिन आगे के जीवन में घर-गृहस्थी के इतने प्रपंच हैं कि तब आपको यह सब बातें शायद ही याद आएं या कर पाएं।
  • नीति-नियमों का पालन करना कुछ छात्र-छात्राओं को बोझ लगता है।कुछ भी करना,स्वच्छंद रहना अपनी मनमानी करना नैतिकता नहीं है।
  • नैतिकता है:अपनी शक्ति का संचय,सुनियोजन व इसके माध्यम से अपने लक्ष्य की प्राप्ति।व्यक्ति शक्ति का सही उपयोग कर सके,सबका विकास हो और कोई किसी का हक न छीने।नैतिकता आयु,वर्ग,योग्यता,परिवेश व समय के साथ बदलती रहती है।छोटे बच्चों के लिए निर्धारित नैतिक नियम,युवाओं के लिए अनिवार्य नहीं होते;क्योंकि वहां पर आवश्यकता व अनिवार्यता के दायरे बदल जाते हैं।ठीक इसी प्रकार युवा व्यक्ति पर लागू होने वाली नैतिकता वृद्ध व्यक्तियों पर लागू नहीं होती।
  • नैतिकता योग्यता पर भी निर्भर करती है।यदि किसी व्यक्ति में योग्यता है तो उस पर नैतिकता की बेड़ियाँ नहीं डाली जाती है।जैसे कोई छात्र प्रतिभाशाली हैं और छठवी कक्षा में ही वह दसवीं कक्षा के सवाल हल कर सकता है तो उस पर नैतिकता का हवाला देकर दसवीं कक्षा की तैयारी नहीं करवाई जाए तो उसकी प्रतिभा कुम्हला जाएगी,उसकी प्रतिभा कुंठित हो जाएगी।
  • एकलव्य ने अपनी प्रतिभा का विकास अपने दिमाग,अपनी लगन और कठोर परिश्रम से किया था और धनुर्विद्या सीखी परंतु द्रोणाचार्य ने उस पर विद्या की चोरी का इल्जाम लगाकर उसका अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लिया।इस तरह उन्होंने नैतिकता का हवाला देकर एकलव्य की प्रतिभा को कुंठित किया,उसकी प्रतिभा को निखरने से वंचित किया।
  • इस प्रकार अंधमान्यताओं,अंधपरंपराओं,गलत नीति-नियमों से नैतिकता अपना मूल उद्देश्य खो देती है तो वह मूढ़ता में तब्दील हो जाती है।नैतिकता स्थायी नहीं होती,समय के साथ बदलती रहती है।जीवन और प्रकृति में परिवर्तन भी निरंतर होते रहते हैं और समय व परिस्थिति बदलते रहते हैं,जिसके अनुसार नीति-नियम भी बदलते रहते हैं।नैतिकता आयु,वर्ग,योग्यता,परिवेश व समय पर निर्भर करती है,लेकिन उसका उद्देश्य यथावत रहता है।नैतिकता के न होने पर व्यक्ति के विचारों,भावों व व्यवहारों की दिशा में भटकन आ जाती है और वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता है।
  • जैसे बालकपन में ब्रह्मचर्य का पालन करना,छात्र जीवन जीवन में ब्रह्मचर्य व वीर्य रक्षा करना नैतिक नियम है परंतु गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के बाद उसे सृजन के लिए संभोग करना पड़ता है।इस प्रकार आयु व समय के अनुसार नैतिक नियम बदल जाते हैं।यदि छात्र-छात्रा अध्ययन काल में ही संभोग,अय्याशी करने का कार्य करने लगे तो वे अपने मूल लक्ष्य अध्ययन व शिक्षा प्राप्ति से भटक जाते हैं।
  • इस प्रकार विद्यार्थी अपनी मनमानी करें,नीति-नियमों को ना माने,स्वयं को मर्यादाओं में न बांधे तो उसकी समस्त ऊर्जा 14 से 20 वर्ष की उम्र में ही समाप्त हो जाएगी,उसकी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा व शक्ति क्षीण हो जाएगी,उसका जीवन खोखला हो जाएगा।हम सभी साथ-साथ जी सकें,हमारी ऊर्जा का सुनियोजन व संरक्षण हो,इसके लिए नैतिकता है।नैतिकता कोई बोझ नहीं है।सहजीवन बनाए रखने के लिए इसमें एक विधि व्यवस्था है।इससे जीवन में संवेदना का विकास होता है।इसके माध्यम से हम अपनी सुख-सुविधा को बाँटकर उपयोग करते हैं।इसके द्वारा हम जिम्मेदार होते हैं,जितनी व्यापकता के दायरे में हम जीते हैं,उतने ही सुखी,संतोषी होते हैं और प्रसन्न रह पाते हैं।

4.धार्मिक बनें (Be Religious):

  • धर्म से तात्पर्य हिंदू धर्म,जैन धर्म,बौद्ध धर्म आदि से लिया जाता है जबकि धर्म इनसे बहुत व्यापक और गहराई वाला अर्थ लिए हुए हैं।मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं जो निम्न हैं:धैर्य,क्षमा,संयम,चोरी न करना,पवित्रता,इंद्रियों को वश में रखना,सद्बुद्धि,विद्या,सत्य और अक्रोध आदि दस लक्षण बताए गए हैं।इन दस लक्षणों का पालन करना ही अध्यात्म है,आध्यात्मिक जीवन है।ये लक्षण सांप्रदायिक नहीं सार्वभौमिक (universal) हैं यानी इनका पालन विश्व का कोई भी व्यक्ति कर सकता है।यह मानव मात्र के लिए पालन योग्य हैं।
  • आज धर्म का वैसा अर्थ नहीं समझा जाता है जैसा वास्तव में है बल्कि विभिन्न संप्रदायों,पंथों द्वारा माने जाने वाले सिद्धांतों,रीति-रिवाजों और विश्वासों को ‘धर्म’ नाम दे दिया गया है जबकि धर्म का वास्तविक अर्थ है स्वभाव,जो धारण कर रखा हो,कर्त्तव्य और कर्त्तव्य का पालन करना।प्रत्येक पदार्थ का एक गुण होता है जो उसने धारण कर रखा होता है (जैसे अग्नि का गुण उष्णता) है और धारण किए गए इस स्वभाव या गुण को ही धर्म कहते हैं।हमें भी ऐसे ही गुण,स्वभाव और कर्त्तव्यों को धारण करना होगा।धर्म का पालन करने से हमारा पालन होगा,धर्म हमारा पालन करेगा और धर्म का पालन न करना,धर्म नहीं अधर्म होगा और अधर्म हमारा नाश कर देगा।
  • उदाहरणार्थ विद्यार्थी का कर्त्तव्य है,धर्म है विद्या अर्जित  करना,ज्ञानार्जन करना,आत्मोन्नति करने के कार्य करना।अब यदि विद्यार्थी अपने उपर्युक्त धर्म का पालन करेगा,अपने आचरण को उत्तम बनाएगा तो उसका परिणाम भी अच्छा होगा,सफल होगा,उसका व्यक्तित्व विकसित होगा,उत्तरोत्तर शुभ कर्म करते हुए आगे की कक्षाओं में क्रमोन्नत होता जाएगा।यदि वह खोटे कर्म करेगा अर्थात् अय्याशी करेगा,वीर्य को नष्ट करेगा,ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करेगा,परीक्षा में नकल करके उत्तीर्ण होने का प्रयास करेगा तो स्वाभाविक है कि इनका परिणाम भी खराब होगा।अच्छा आचरण करके विद्या अर्जित करना धर्म की रक्षा करना है और बुरा आचरण करना धर्म को मारना है।
  • जो विद्यार्थी अधर्मपूर्वक आचरण करेगा उसे आज नहीं तो कल,इसके विनाशकारी परिणाम भोगना ही पड़ेंगे।यह विनाशकारी परिणाम भोगना ही धर्म द्वारा मारना है।विद्यार्थी काल में ऊर्जा का संचय होता है,बल और शक्ति होती है अब यदि वह लड़कियों के साथ संभोग करेगा तो ब्रह्मचर्य खंडित होगा,वीर्य का नाश होगा।उस समय शक्ति और बल के कारण उसे भले ही अहसास नहीं हो परन्तु जब गृहस्थाश्रम में प्रवेश करेगा तब उसे इस बात का एहसास होगा कि अधर्म का पालन करने का दुष्परिणाम क्या होता है? दूसरा नुकसान यह होगा कि अधर्म के कार्यों में संलग्न रहने के कारण वह विद्या अर्जित नहीं कर पाएगा।फलतः जीवन रूपी गाड़ी में समस्याओं,व्यावहारिक संकटों,सांसारिक प्रपंचों,झंझटों का समाधान करने में सक्षम नहीं होगा।

5.जीवन को आध्यात्मिक बनाएं (Make life spiritual):

  • अध्यात्म के अंतर्गत ही सभी शाखाएं समाहित है।धर्म,दर्शन,संस्कृति,सभ्यता,ज्ञान,विज्ञान,सभी शास्त्र इस अध्यात्म की शाखाएं हैं।अध्यात्म,धर्म,नैतिकता,आस्तिकता आदि सभी का मार्गदर्शक है जिसके ज्ञान के बिना धर्म अंधविश्वास एवं पाखंड मात्र रह जाता है तथा वह अपने मार्ग से ही भटक जाता है।बिना आध्यात्मिक दिशा-निर्देश के,धर्म पर चलने वाला अंधेरे में तीर चलाने के समान है जो अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता है।धर्म और अध्यात्म वह विद्या है जिससे मनुष्य वर्तमान जीवन तथा आगामी जीवन को सुखी बनाकर अपनी चेतना का विकास करते हुए अंत में परमात्म तत्त्व से मिल जाता है जो उसका परम लक्ष्य है।धर्म इसी लक्ष्य को प्राप्त करने की विधि है।अध्यात्म विज्ञान है और धर्म इसकी तकनीक है।
  • अब प्रश्न यह उठता है कि बहुत से छात्र-छात्राएं और लोग अध्यात्म के बिना जीवन मौज-मस्ती के साथ गुजार रहे हैं।इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर शव मात्र है उसी प्रकार अध्यात्म के बिना जीवन जीना पशुवत जीवन जीने के समान है।जप,तप,व्रत,उपवास,भजन,ध्यान,योग,पूजा-पाठ,प्रार्थना,कीर्तन आदि जितने भी क्रियाकलाप हम करते हैं,ये सब अपने आपको जगाने के लिए,अपने आपकी,अपने अस्तित्व की अनुभूति करने के लिए किए जाते हैं।इसलिए छात्र-छात्राओं को अपनी पाठ्यपुस्तक व कोर्स की पुस्तकें पढ़ने के साथ-साथ थोड़ा-बहुत आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए।
  • लेकिन इस प्रक्रिया में सबसे बाधक तत्त्व ‘अहंकार’ एवं ‘हमारे पूर्व किए गए दुष्कृत्य होते हैं’, जो हमें इस प्रक्रिया में सहयोग नहीं करते,लेकिन तप,योग,ज्ञान,भक्ति,स्वाध्याय,सत्संग,मनन-चिंतन आदि ऐसी प्रक्रियाएँ हैं,जिनके माध्यम से आगे बढ़ते हैं।इसके फलस्वरूप हमारे अंदर जिनका विकास होता है,उनमें सर्वप्रथम है प्रतिभा,दूसरी प्रखरता और तीसरी अलौकिक शक्तियां।
    आध्यात्मिक जीवन की एक खास बात यह है कि इसके माध्यम से हम अपने जीवन की डोर अपने हाथ में लेते हैं।इसके माध्यम से हम भगवदीय जीवन का आनंद उठा सकते हैं और अपने जीवन की सूक्ष्मताओं को जान सकते हैं,जिनके अभाव में हमारा जीवन जटिल व समस्यापूर्ण बनता है।केवल इसी के माध्यम से हम अपने जीवन की समस्याओं का संपूर्ण समाधान कर सकते हैं।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में छात्र-छात्राओं के लिए आध्यात्मिक होने की 5 टिप्स (5 Tips for Students to Be Spiritual),छात्र-छात्राएँ आध्यात्मिक कैसे हों? (How Can Students Be Spiritual?) के बारे में बताया गया है।

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6.नहीं पढ़ने का दंड (हास्य-व्यंग्य) (Penality for Not Reading) (Humour-Satire):

  • शिक्षक:गणित पढ़ोगे?
  • छात्र:नहीं।
  • शिक्षक:विज्ञान पढ़ोगे?
  • छात्र:नहीं।
  • शिक्षक:तुम्हारा बाप भी ऐसे ही करता था,डंडे खाकर ही पड़ता था,तुम्हारा भी वही हाल होगा,डंडे ही खायेगा।

7.छात्र-छात्राओं के लिए आध्यात्मिक होने की 5 टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 5 Tips for Students to Be Spiritual),छात्र-छात्राएँ आध्यात्मिक कैसे हों? (How Can Students Be Spiritual?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.आध्यात्मिक होने के लिए व्यक्ति में कौनसे गुण होने चाहिए? (What qualities does a person need to be spiritual?):

उत्तर:आध्यात्मिक प्रक्रिया व्यक्ति की एक ऐसी अंतर्यात्रा है,जिसमें निरंतर परिवर्तन घटित होता है और इन परिवर्तनों के कारण उपजे उतार-चढ़ाव को उसे सहने के लिए भी तैयार होना चाहिए अन्यथा इसके परिणाम उसके लिए अच्छे नहीं होते।इसी कारण जो व्यक्ति आध्यात्मिक डगर पर आगे बढ़ते हैं,उनमें अदम्य साहस,सशक्त मन,स्वस्थ शरीर व संतुलित भावनाओं का होना जरूरी है।

प्रश्न:2.शून्य और पूर्ण में क्या संबंध है? (What is the relation between zero and absolute?):

उत्तर:शून्य में विराट (पूर्ण) समाया है और इस विराट (पूर्ण) में शून्य हैं।जो इस शरीर में ही रहकर परमात्मा के इस विराट रूप को समझ पाता है,उसे अनुभव कर पाता है,वही आध्यात्मिक है और इसके लिए उसे इस भौतिक दृश्यमान जीवन से परे घटित होने वाले जीवन को भी अनुभव करना होगा।आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही मनुष्यों को सही राह दिखा पाने में सक्षम है और यही हम सबके जीवन का ध्येय होना चाहिए।

प्रश्न:3.आध्यात्मिकता से व्यक्तित्व में क्या फर्क पड़ता है? (What difference does spirituality make in Personality?):

उत्तर:आध्यात्मिकता मूलतः व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है।इसके माध्यम से हम अपने व्यक्तित्व में जन्म-जन्मांतरों से पड़ी हुई गाँठों को खोल पाते हैं,उनमें जमा ऊर्जा को मुक्त कर पाते हैं और अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं।आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को खूब तेज कर देना।आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने बंधनों से मुक्त हो रहा है,पूरी तरह से स्वतंत्र हो रहा है,अब वह किसी के अधीन नहीं रह गया है,अब वह अपनी स्वेच्छा से कुछ भी कर सकने में समर्थ हैं और उसे यह अधिकार स्वयं प्रकृति ने दिया है।आध्यात्मिकता न तो मनोवैज्ञानिक क्रिया है और न सामाजिक।यह शत-प्रतिशत हमारे अस्तित्व से संबंधित है।अगर हम किसी कार्य में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं तो वहीं पर आध्यात्मिक प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है;क्योंकि किसी भी किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है और उसे गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा छात्र-छात्राओं के लिए आध्यात्मिक होने की 5 टिप्स (5 Tips for Students to Be Spiritual),छात्र-छात्राएँ आध्यात्मिक कैसे हों? (How Can Students Be Spiritual?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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