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5 Tips for Parents to Raise Children

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1.अभिभावकों द्वारा बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Parents to Raise Children),बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Raising Children):

  • अभिभावकों द्वारा बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Parents to Raise Children) के आधार पर बच्चों की अच्छी तरह से परवरिश की जा सकती है।बच्चों का सही-समुचित लालन-पालन पारिवारिक दायित्व होने के साथ महत्त्वपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारी भी है।विगत वर्षों में घर-परिवार की परिस्थितियाँ रिश्तो का ताना-बाना कुछ ऐसा बन पड़ा है कि यह एक अहम सामाजिक मुद्दा बन गया है,क्योंकि यदि बच्चों को प्यार-दुलार व सुधार की मीठी-खट्टी घुट्टी नहीं पिलाई गई तो उनके व्यक्तित्व व जीवन दोनों की नींव कमजोर हो जाती है।
  • इस कमजोरी का एहसास भले ही तुरंत ना हो,लेकिन बाद में इसके परिणाम परिवार व समाज में दीखने लगते हैं।आज घरों के आंगन और समाज के व्यापक दायरे में जो जिंदगी की ढहती इमारतें दीखती हैं,विशेषज्ञ उसका कारण अब कहीं बचपन में खोजने लगे हैं।
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2.माता-पिता की नकारात्मक बातों का बच्चों पर प्रभाव (Impact of Parents’ Negative Words on Children):

  • आधुनिकता के इस युग में विज्ञान व वैज्ञानिकता को ढाल बनाकर जो भौतिकवादी व भोगवादी दृष्टि विकसित हुई है,उसने अनेकों अवैज्ञानिक काम कर डाले हैं।इसी के साथ जीवन की आधी-अधूरी व बेढंगी तस्वीर बना डाली है।विज्ञान व वैज्ञानिकता तो सत्य की ओर उन्मुख,निरंतर की जाने वाली प्रयोगधर्मिता है।जो हमेशा अपने सुधार-परिष्कार के साथ प्रगति में विश्वास करती है।
  • इसमें ना तो किसी कुतर्क की गुंजाइश है और न हीं हठधर्मिता की और जब मुद्दा जन्म-विकास व उत्कृष्टता से संबंधित हो,तब तो दृष्टिकोण को कहीं अधिक व्यापक व परिष्कृत होना चाहिए;क्योंकि यह मुद्दा यदि सही ढंग से सुलझाया जा सका तो समाज के अधिकांश समस्याएं अपने आप ही सुलझ जाएगी।
  • बच्चों की परवरिश में इसके अलावा जो महत्त्व की बात है,वह है बच्चों के साथ किया जाने वाला व्यवहार।माता-पिता व घर के सदस्य बच्चों के साथ जो व्यवहार करते हैं,उसका पर्याप्त महत्त्व है।सामान्य क्रम में यह देखा जाता है कि बच्चों के माता-पिता यहां तक की घर के अन्य सदस्य उनके साथ जो व्यवहार करते हैं,वह पर्याप्त जटिल व आडंबरपूर्ण होता है।कई बार औरों को दिखाने के लिए,अहंकारपूर्ण प्रदर्शन के लिए बच्चों के कोमल मन पर बेवजह का बोझ डाल दिया जाता है;जबकि इसकी कोई खास जरूरत नहीं होती।
  • जबकि होना यह चाहिए-बच्चों के साथ किया जाने वाला व्यवहार उनकी शारीरिक,मानसिक व भावनात्मक स्थिति के अनुसार ही होना चाहिए।यानी कि इसमें स्वाभाविकता,सहजता,सरलता व सुस्पष्टता का समावेश हो।साथ ही उसमें उनके लिए प्यार व अपनत्व का गहरा समावेश हो।ऐसा व्यवहार ही बच्चों की नजर में उनके माता-पिता को विश्वसनीय व हितैषी बनाता है और वे उनके साथ स्वयं को सहज व सुरक्षित अनुभव करते हैं।
  • ध्यान रखने की बात इसमें यह है कि बच्चे जितना अधिक स्वयं निश्चिंत,सुरक्षित व सकारात्मक अनुभव करेंगे,उतना ही अधिक वे विकसित होंगे।उनके व्यक्तित्व की आधारशिला मजबूत होगी।
  • बच्चों के साथ किए जाने वाले व्यवहार के बारे में यह जान लेना भी जरूरी है कि उनके साथ किया जाने वाला व्यवहार ही उनके लिए सीख व उपदेश होता है।यही उनके लिए टीचिंग,ट्यूशन और कोचिंग है।या कई बार यों कहें कि अक्सर यह होता है कि व्यवहार और सिखावन में फर्क कर लिया जाता है।प्रायः माता-पिता बच्चों से व्यवहार तो अपनी रुचि या प्रवृत्ति के अनुसार करते हैं,परंतु सीख देते समय उनका रूप-स्वरूप बदल जाता है,लेकिन ऐसी सीख प्रायः गुणकारी और असरदायी नहीं होती।

3.बच्चे कैसे सीखते हैं? (How Do Children Learn?):

  • जिस वातावरण की महिमा कई जगह-कई तरह से कही जाती है,उसे अच्छा व कारगर बनाने में संतुलित-स्वस्थ भावनाएं,सकारात्मक,परिष्कृत विचार,सदाशयता पूर्ण किए गए कार्य और सबसे बढ़कर सच्ची भगवद भक्ति से की गई आध्यात्मिक साधनाएं समन्वित रूप से अपनी भूमिका निभाती है।ये सभी तत्त्व जहां व जिस वातावरण में जितना अधिक घुलेंगे,वहाँ उतना ही असरकारक वातावरण तैयार होगा।
  • ऐसे वातावरण में जन्म लेने वाले,पलने-बढ़ने वाले बच्चे निश्चित रूप से स्वयं ही स्वस्थ व संस्कारवान होते चले जाते हैं।ऐसा होने के पीछे एक तथ्य यह है कि बच्चे में जन्म के समय से लेकर काफी बाद तक अचेतन मन विशेष रूप से क्रियाशील होता है; जबकि तर्क,बुद्धि एवं विचार बस अंकुरण की अवस्था में होते हैं।
  • इस वजह से बच्चों के द्वारा जो ग्रहण किया जाता है वह विश्लेषण-विवेचन की जटिल प्रक्रियाओं के द्वारा नहीं,बल्कि सीधी-सादी भावनाओं के माध्यम से उनमें सब कुछ सहज संप्रेषित हो जाता है।
  • इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात बच्चों के अनुभव करने की क्षमता है,जो जन्म से ही पर्याप्त विकसित व संवेदनशील होती है।वे अनायास ही कठोर या कोमल भावनाओं से परिचित हो जाते हैं।साथ ही उन्हें अपने आस-पास की सकारात्मकता या नकारात्मकता भी गहराई से प्रभावित करती है।उनके लिए आडंबरपूर्ण ढंग से कहा या दिखाया जाने वाला तथ्य प्रमाण नहीं होता है,बल्कि प्रमाण बनता है,उनका स्वयं का अनुभव।वे जो स्वयं महसूस करते हैं,उसके अनुसार उनके व्यक्तित्व में वृद्धि या विकास की गति संपन्न होती है।इसलिए वातावरण में जो भी चीजें घुली हों या घोली जाएँ,वे सभी ऐसी होनी चाहिए,जो बच्चे बड़ी सहजता व आसानी से महसूस कर सकें,तभी वे उनके विकास के लिए सहयोगी व सहायक बनती है; अन्यथा उनका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
  • इसे मनोवैज्ञानिक भाषा में कहना हो तो यह कहेंगे कि महत्त्व बच्चों के लिए सहज अनुभव करने योग्य वातावरण (perceived environment) का है।
  • बच्चों के साथ जो व्यवहार या बर्ताव किया जाता है,उसके बारे में यह भी जानना जरूरी है कि बच्चे अपने आस-पास होने वाली घटनाओं से स्वभाविक ही प्रेरित और प्रभावित होते हैं।भले ही उन्हें ये ध्यान में रखकर न घटित हो रही हों।ऐसा इसलिए होता है,क्योंकि बच्चों में अधिक से अधिक सीख लेने-जान लेने,समझ लेने की ललक बहुत गहरी होती है।भले ही उन्हें यह सब न सिखाया-समझाया या बताया जा रहा हो।
  • फिर भी वे इसे सीखते-जानते एवं समझते हैं।ऐसी स्थिति में जो भी क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं,बातचीत-व्यवहार उनके आस-पास,विशेष रूप से उनके माता-पिता या अभिभावकों द्वारा किया जा रहा है वे अनजाने ही उसकी नकल करने लगते हैं।यही वजह है की माता-पिता की आदतें-बोलने-बातचीत करने का अंदाज उनके बच्चों में स्वतः ही आ जाता है।
  • होता यों है कि प्रायः ज्यादातर माता-पिता और अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे स्वस्थ-प्रसन्न व सद्गुण संपन्न बनें,लेकिन इसके लिए जो उचित विधि-व्यवस्था है वे इसे जुटा पाने में असमर्थ रहते हैं।
  • एक मनोवैज्ञानिक महोदय का अपने मित्र के परिवार में जाना हुआ।जब वह वहां पहुंचे तब उस परिवार का छोटा बच्चा अपनी दादी से पूछ रहा था-“दादी आप टें कब बोलेंगी?” बच्चे की बूढ़ी दादी ने हैरान होकर अपने पोते से पूछा-“बेटा! यह टें बोलने से तुम्हारा क्या मतलब है?”
  • उत्तर में बच्चे ने बड़ी मासूमियत से कहा-“दादी! मम्मी पापा से यह कह रही थी कि पता नहीं यह बुढ़िया कब टें बोलेगी (मौत आएगी)।जब यह टें बोल पाएगी तभी इसका सारा रुपया हमारे काम आएगा।”
  • उस बच्चे की बात सुनकर बूढ़ी दादी मां बोली तो कुछ नहीं,पर उनकी आंखों में विवशता-बेबसी के आंसू आ गए और इन बातों को सुनकर मनोवैज्ञानिक महोदय को आज के माता-पिता की स्थिति व उनके द्वारा बच्चों के लालन-पालन के ढंग का पता चला।
    अपनी चर्चा में उन्होंने यह बात अपने मित्र को बतायी और बोले-“यह बच्चा तुम्हारा भविष्य है।तुम इसे जैसा गढ़ोगे- तुम्हारा भविष्य वैसा ही होगा।”

4.माता-पिता का कैसा व्यवहार होना चाहिए? (How Should Parents Behave?):

  • आज जो भी समझदार हैं उन सबकी यही एक सोच है कि यदि घर-परिवारों के सीमित परिदृश्य से लेकर समाज-संसार के व्यापक परिसर में सकारात्मक परिवर्तन लाने हैं,यहाँ सुख-संस्कार व संवेदना का वातावरण तैयार करना है,तो इसकी जिम्मेदारी माता-पिता व अभिभावक को उठानी होगी।यही वजह है,जिसके कारण यह कहा-समझा और जाना जा सकता है कि माता-पिता बनना या अभिभावक होना जैविक समस्या होने के साथ पारिवारिक-सामाजिक,मनोवैज्ञानिकों और बहुतायत में आध्यात्मिक समस्या है।
  • इसलिए इसके समाधान भी इन सभी आयामों में एक साथ खोजे जाने चाहिए।यदि ऐसा किया जा सका तभी माता-पिता को संस्कारवान संतान,परिवार को सुशील,सभ्य,शिष्ट बच्चे और समाज को उन्नत-उत्कृष्ट व्यक्तित्व मिल सकेंगे।
  • यही वजह है कि इस अहम मुद्दे के सही समाधान के लिए विचारशीलों की दृष्टि भारतीय संस्कृति व इसके जीवन मूल्यों की ओर गई है।भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ यजुर्वेद में कहा गया है-अभिभावक को यह स्पष्ट होना चाहिए कि उसे किस प्रकार के बालक को जन्म देना और उसका विकास करना है।
  • यजुर्वेद के उस मंत्र का तात्पर्य यह है कि बच्चे को जन्म देने वाले माता-पिता को शारीरिक रूप से स्वस्थ,मानसिक रूप से समुन्नत व आध्यात्मिक रूप से सुसंस्कृत होना चाहिए।तभी वे उस वातावरण का निर्माण कर सकते हैं,जो बच्चे के जन्म से पहले और उसके जन्म के बाद की एक अनिवार्य जरूरत है।
  • अगर माता-पिता दोनों मिलकर अपने मन व तन को एक संतान के स्वागत के लिए तैयार करें और इससे भी आगे चलकर जो बातें वे अपने बच्चों में नहीं चाहते,उन सबसे वे खुद परहेज करें,मतलब वे एक तप-साधना करें तो निश्चित ही उनके यहां जो बच्चे जन्म लेंगे,वे स्वस्थ शरीर,स्वस्थ मन और सबसे बढ़कर एक अधिक विकसित आत्मा लेकर आएंगे।
  • इस बात का मतलब यह है कि बच्चों के लालन-पालन के लिए,उन्हें सही संस्कार व सीख देने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व आधारभूत जरूरत वातावरण है; क्योंकि यह बिना कुछ कहे सब कुछ कह देता है,बिना कुछ सिखाए सब कुछ सिखा देता है।
  • संक्षेप में संस्कारवान बच्चा व अच्छा वातावरण गुणवत्ता के संप्रेषण की स्वचालित प्रणाली है।बच्चों के संदर्भ में इसका निर्माण माता-पिता के स्वयं के व्यक्तित्व व उनके अपने कृतित्व से होता है।घर-परिवार के अन्य सदस्य इसमें सहयोगी सहायक की भूमिका निभाते हैं।
  • बात साफ है और सवाल भी साफ है-माता-पिता और अभिभावक अपने बच्चों को कैसा गढ़ रहे हैं? किस तरह से गढ़ रहे हैं? उनके इस तरीके से उनके स्वयं के जीवन के साथ संपूर्ण समाज का जीवन बँधा हुआ है।
  • वृक्ष-वनस्पतियां,पेड़-पौधे जंगल में भी उगते हैं और उद्यानों में भी उगाए जाते हैं।जंगल में उगने वाले पेड़-पौधों को कोई सँवारने वाला नहीं होता।इसलिए उनमें जीवन तो होता है,पर सौंदर्य नहीं,लेकिन जिन्हें उद्यान में किसान उगाता है,उनके स्वरूप में एक निखार होता है।उनमें जीवन के साथ सौंदर्य भी होता है।इस सौंदर्य से सभी प्रेरित,प्रभावित,प्रवर्तित,परिवर्तित होते हैं।
  • बस,बच्चों के लालन-पालन के संबंध में भी यही सच है।उन्हें जन्म देने मात्र से जिम्मेदारी नहीं निभ जाती है।जिम्मेदारी तो उनके व्यक्तित्व को परिष्कृत व सौंदर्यपूर्ण बनाने से निभती है।यदि इस जिम्मेदारी को व्यापक ढंग से निभाया जा सके तो आने वाले समय में परिवार व समाज समस्याग्रस्त न होकर सुखप्रद व शांतिपूर्ण होंगे।

5.बच्चों के लालन-पालन का दृष्टांत (The Parable of Raising Children):

  • दो भाई-बहन कमरे में बैठकर पढ़ रहे थे।उनके माता-पिता से कोई सज्जन मिलने आए हुए थे।तभी अचानक पुत्र का मित्र गणित की कोई समस्या पूछने के लिए घर पर आया।पुत्र ने अपनी बहन से कहा कि उसको जाकर बोल दो की भैया घर पर नहीं है,बाद में आना।बहिन ने अपने भाई के कहे अनुसार वैसा ही बोल दिया।
  • बच्चों के माता-पिता से मिलने आए सज्जन यह सब देख रहे थे।समझाने लगे कि अच्छे बच्चे इस तरह झूठ नहीं बोलते हैं बल्कि आपस में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं।दोनों भाई-बहन बोले अंकल आप बिल्कुल चिंता न करें हम झूठ नहीं बोल रहे हैं।
    हमारे माता-पिता से कोई मित्र मिलने आते हैं तो वे घर पर होते हुए भी हमसे यही कहलवाते हैं कि उनको बोल दो पिताजी घर पर नहीं है।हम तो माता-पिता अक्सर जैसा व्यवहार करते हैं,उसी को सीखने के लिए रिहर्सल कर रहे हैं।
  • सज्जन उन बच्चों का जवाब सुनकर दंग रह गए और उनसे कोई जवाब देते नहीं बना।वे घूमकर बच्चों के माता-पिता की तरफ प्रश्न-सूचक मुद्रा में देखने लगे और मन ही मन कहने लगे कि बच्चों पर माता-पिता के व्यवहार का कितना प्रभाव पड़ता है।
  • वस्तुतः हर माता-पिता यह चाहते हैं कि उनकी संतान श्रेष्ठ,सदगुण संपन्न बने परंतु यह नहीं जानते हैं कि अच्छी व श्रेष्ठ संतान का निर्माण कैसे किया जाता है?
  • उपर्युक्त आर्टिकल में अभिभावकों द्वारा बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Parents to Raise Children),बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Raising Children) के बारे में बताया गया है।

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6.दो गप्पियों की बातचीत (हास्य-व्यंग्य) (A Conversation Between Two Gossips) (Humour-Satire):

  • दो गप्पी बातें कर रहे थे।
  • पहला गप्पी:कल मैं मद्रास गया था वहाँ गणित संग्रहालय (Mathematics Museum) देखा,बहुत अच्छा लगा,सोचता हूं उसे खरीद लूं।
  • दूसरा गप्पी:मैं उसे बेचूंगा ही नहीं,कैसे खरीदोगे।

7.अभिभावकों द्वारा बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 5 Tips for Parents to Raise Children),बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Raising Children) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.बच्चे किससे सीखते हैं? (From Whom Do Children Learn?):

उत्तर:बच्चे अधिकांश बातें और व्यवहार माता-पिता से सीखते हैं।बच्चों में नकल करने की प्रवृत्ति जन्मजात होती है कि वे सीख सकें इसलिए प्रायः बच्चे अपने माता-पिता की नकल किया करते हैं।हर माता-पिता की यह चाहत होती है कि उनको संतान प्राप्त हो,उनकी गोद सूनी न रहे।इनमें ऐसे माता-पिता की संख्या बहुत ज्यादा होती है जो सिर्फ संतान ही नहीं चाहते बल्कि अच्छी संतान चाहते हैं पर ऐसे माता-पिता बहुत कम होंगे जो भली-भाँति जानते हों कि अच्छी संतान कैसे प्राप्त होती है।इसलिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि संतान हो बल्कि यह महत्त्वपूर्ण है कि अच्छी संतान हो,अच्छे संस्कारों वाली संतान हो ताकि भविष्य में देश अच्छे नागरिकों वाला राष्ट्र बन सके।

प्रश्न:2.स्टडी फोबिया क्या है? (What is Study Phobia?):

उत्तर:अक्सर देखा जाता है कि बच्चे स्कूल का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं।स्कूल जाने के नाम से उनके पेट में दर्द होने लगता है,सिर दर्द हो या पेट दर्द या फिर कोई ओर बहाना बनाने लगते हैं।बच्चा पढ़ाई से जी चुराने लगता है,स्कूल न जाने के तरह-तरह के बहाने ढूंढने लगे,पढ़ाई के बढ़ते दबाव से उनकी भूख-प्यास मर जाए या वे चिड़चिड़े हो जाएं,तो समझिए बच्चा स्टडी फोबिया का शिकार हो गया है।यदि उसने होमवर्क नहीं किया है,तो टीचर की डांट के डर से कोई न कोई बहाना तैयार रहता है।यह फोबिया परीक्षाओं के आते ही बढ़ जाता है।मां-बाप की अपेक्षाओं के कारण भी यह फोबिया बढ़ जाता है।

प्रश्न:3.बच्चों में स्टडी फोबिया या अन्य फोबिया कैसे दूर करें? (How to Overcome Study Phobia or Other Phobias in Children?):

उत्तर:बच्चों में ऊपर बताए गए फोबिया के लक्षणों को शुरुआती दौर में ही पकड़ा जाए ताकि फोबिया ज्यादा ना बढ़े।अभिभावकों और शिक्षकों को बच्चों से बातचीत कर उन्हें समझना चाहिए और उन्हें किस चीज से परेशानी है,यह जानने की कोशिश करनी चाहिए।स्टडी फोबिया के बढ़ने से बच्चों को बिहेवियर (व्यवहार) थेरेपी दी जाती है।इनमें डॉक्टर से बातचीत कर उनकी परेशानी जानने की कोशिश करते हैं।
बच्चों को अगर हम इस दुनिया में लाते हैं,तो उनके मानसिक स्वास्थ्य और उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाने की जिम्मेदारी भी मां-बाप की है,किसी ओर की नहीं।हमें सोचना है कि इस खूबसूरत दुनिया में हम क्या उन्हें यहां की तमाम बदसूरती दिखाने के लिए लाए हैं? इसका जवाब हम बड़ों को ढूंढना है,बच्चों को नहीं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा अभिभावकों द्वारा बच्चों के लाल लाल पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Parents to Raise Children),बच्चों के लालन-पालन की 5 टिप्स (5 Tips for Raising Children) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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